प्रस्तावना – परमाणु अपरिमित शक्ति के स्रोत है जिनका सदुपयोग यदि प्राणी जगत के मंगल के लिए हो सकता है, वही इनका दुरुपयोग अमंगल भी कर सकता है। यह बात विश्व के सभी वैज्ञानिक पहले से ही जानते थे। दुर्भाग्यवश परमाणु शक्तियों का प्रयोग जितना विनाश के साधन जुटाने में हुआ है, उतना निर्माण कार्यों में नहीं हुआ है। इसीलिए आज परमाणु बमों तथा प्रक्षेपास्त्रों का निर्माण मानव-जाति के लिए खतरे की घंटी की भाँति मँडरा रहा है।परमाणु अप्रसार सन्धि
परमाणु अप्रसार सन्धि का तात्पर्य
संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्देशानुसार एक सन्धि का प्रारूप तैयार किया गया था, जिसके आधार पर यह निश्चित हुआ था कि भविष्य में कोई भी राष्ट्र किसी नए परमाणु-शस्त्र का परीक्षण नहीं करेगा तथा जिन राष्ट्रों के पास परमाणु शस्त्र मौजूद है, वे भी उन शस्त्रों को नष्ट कर देंगे। इस सन्धि को ही ‘परमाणु अप्रसार सन्धि’ का नाम दिया गया था।
आज विश्व में जो राष्ट्र परमाणु शस्त्रों से सम्पन्न हैं वे है-रुस, अमेरिका, चीन, फ्रांस तथा ब्रिटेन। इस सन्धि प्रस्ताव के अग्रणी राष्ट्र अमेरिका एवं रूस ये तथा अमेरिका एवं रूस सहित कई देशों ने इस सन्धि प्रस्ताव पर अपनी स्वीकृति दर्शाते हुए हस्ताक्षर भी किए थे। इस सन्धि का सम्मान करते हुए रुस ने तो अपने कई परमाणु-शस्त्र नष्ट भी कर दिए, लेकिन अन्य देशों जैसे अमेरिका, फ्रांस तथा चीन ने इस सन्धि प्रस्ताव का उल्लंघन करते हुए कई नए परीक्षण भी कर डाले अमेरिका द्वारा अन्तरिक्ष की ऊँचाई तक के प्रवेपणास्त्र 1 का परीक्षण एवं चीन द्वारा डी. एफ. 8000 कि.मी. प्रक्षेपणास्त्र इसके प्रमाण है।
परमाणु अप्रसार सन्धि का महत्व
विश्वभर में अस्त्र शस्त्रों का प्रयोग न हो क्योंकि नित्य नए परीक्षणों ने मानव जाति के समक्ष गम्भीर समस्या पैदा कर दी है। इन परीक्षणों का दुष्प्रभाव विनाशलीला दिखा रहा था। इन परीक्षणों पर धन भी बड़ी मात्रा में व्यय होता है, इसके विपरीत यदि उस धन को निर्माण कार्यों तथा देश के विकास कार्यों में लगाया जाए तो वह विश्व के अनेक पिछड़े तथा दुर्बल प्रदेशों का कल्याण कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त इस प्रकार के परीक्षणों द्वारा अन्य देशों में भी परमाणु शस्त्र विकसित करने की इच्छा जागृत होगी, जिससे परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्रों का एकाधिकार समाप्त हो जाएगा। इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए अनेक विचारकों ने इस परमाणु अप्रसार सन्धि की आवश्यकता को महसूस किया था।
परन्तु परमाणु अप्रसार सन्धि प्रस्ताव में कुछ आन्तरिक विरोध भी है जिसके कारण अधिकृत परमाणु शक्ति शस्त्र सम्पन्न राष्ट्र पूर्णतया इसके अधीन नहीं आते। वे अनेक बातों में स्वतन्त्र बने रहते हैं इसीलिए यह सन्धि पक्षपातपूर्ण हैं। भारत ने भी इस सन्धि पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं तथा परमाणु परीक्षण सम्बन्धी अपना अधिकार सुरक्षित रखा है। भारत सहित 44 देशों को परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र माना जाता है तथा ये पाँचों परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र इन सभी देशों द्वारा सन्धि पर हस्ताक्षर करा लेना चाहते हैं।
भारत के राष्ट्रीय हित
पाकिस्तान तथा चीन की मित्रता, दोनों का भारत विरोधी रवैया तथा अमेरिका का भी पाकिस्तान के प्रति झुकाव, ये सभी बातें ध्यान में रखते हुए भारत को अपनी सुरक्षा की चिन्ता थी। पाकिस्तान तो वैसे भी सदा ही भारत के साथ युद्ध करने के लिए तैयार रहता है। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद चीन का रवैया सदा भारत विरोधी ही रहा है। इन सभी कारणों से भारत के लिए परमाणु शस्त्र कार्यक्रम का विकास आवश्यक था, ताकि वह किसी भी आकस्मिक स्थिति में अपने देश की सुरक्षा कर सके। भारत ने इसीलिए सन् 1974 में पहला परमाणु परीक्षण किया। इसका अमेरिका ने बहुत विरोध किया तथा भारत को तारापुर परमाणु विद्युत केन्द्र के लिए जल आदि देना भी बन्द कर दिया। सन् 1998 में भारत ने पोखरण में दूसरा परमाणु परीक्षण करके अपनी कुशलता का प्रमाण प्रस्तुत किया। इसके बदले में पाकिस्तान ने भारत तथा पाकिस्तान दोनों के इन परीक्षणों द्वारा पाँचों परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्रों ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। उन राष्ट्रों का तर्क यह है कि इससे दक्षिण-पूर्व एशिया में शक्ति सन्तुलन बिगड़ गया है तथा हर देश एक दूसरे से होड़ कर रहा है। उनका यह भी मत है कि विश्व में सर्वाधिक जनसंख्या वाले इस क्षेत्र में भयानक मानवीय क्षति तथा विनाश होगा। अमेरिका तथा चीन ने इस बात पर बहुत जोर दिया है कि भारत भी इस परमाणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर करे।
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भारत का तर्क
इस सन्धि प्रस्ताव पर हस्ताक्षर न करने के सम्बन्ध में भारत ने भी अपने कुछ तर्क प्रस्तुत किए हैं। भारत ने अपनी मर्जी से और कोई भी परमाणु परीक्षण न करने की घोषणा की है। दूसरे भारत को परमाणु अप्रसार सन्धि में और अधिक निष्पक्षता तथा सुधार चाहिए। भारत ने यह भी आश्वासन दिया है कि वह परमाणु शस्त्रों के प्रयोग की दिशा में कभी पहल नहीं करेगा तथा भारत ने अपना वादा निभाया भी है। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने अपने देश की सीनेट को सन्धि में आवश्यक सुधारों का सुझाव भी दिया है।
उपसंहार – इस विषय में अलग-अलग लोगों के अलग-अलग मत हैं। कुछ लोग इस पर हस्ताक्षर करने के समर्थन में हैं तो कुछ इसके विरोधी भी हैं। संसद के दोनों सदन इस दिशा में विचार-विमर्श कर रहे हैं और वे ही यह बात तय करेंगे कि भारत को इस परमाणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर करने चाहिए अथवा नहीं।