परामर्श प्रविधियों
परामर्श- प्रविधियों का अध्ययन कई दृष्टिकोणों से किया जा सकता है, परन्तु इनका बढ़ावानुसार (Countinuum of lead) अध्ययन करना सुविधाजनक है। इन विधियों में से केवल एक विधि को ही अपनाकर परामर्शदाता परामर्श दे दें, यह जरूरी नहीं है। कभी-कभी तो उसे प्रथम विधि से लेकर अन्तिम विधि तक का प्रयोग करना पड़ता है। परन्तु सभी विधियों का प्रयोग आवश्यक नहीं क्योंकि परामर्श का कार्य कभी-कभी प्रथम या द्वितीय विधि से पूरा हो जाता है। उस अवस्था में अन्य विधियों का प्रयोग निरर्थक होगा।
(1 ) मौन धारणा (Silece)-
कभी-कभी चुपचाप किसी की बातें सुनना उन बातों के उत्तर देने से अधिक प्रभावशाली होता है। इस प्रकार जब छात्र अपनी समस्या का वर्णन करता है, तब परामर्शदाता मौन धारण कर लेता है। मौन धारण बताता है कि परामर्शदाता छात्र की समस्या को समझ रहा है उस पर विचार कर रहा है एवं जो कुछ छात्र कर रहा है, उसे स्वीकार करता है। छात्र वर्णन करता जाता है क्योंकि उसे वर्णन करने की आवश्कता है। इसके साथ ही साथ इस वर्णन से परामर्शदाता उसकी समस्या को अधिक से अधिक समझने की चेष्टा करता है। इसका एक उदाहरण नीचे दिया जाता है जैसे
छात्र- मुझे डर है, मैं परीक्षा में असफल हो जाऊँगा।
परामर्शदाता – तुममें आत्मविश्वास की कमी है।
छात्र- जी हाँ, मैं सोचता हूँ।
परामर्शदाता – (मीन धारण)
छात्र- मैं नहीं चाहता। पर इतना मैं समझता हूँ कि मुझे एम०ए० में अंग्रेजी के स्थान पर मनोविज्ञान लेना चाहिए था तथा प्रारम्भ से ही परिश्रम करना चाहिए था।
(2) स्वीकृति (Acceptance)-
कभी-कभी परामर्श दाता कुछ शब्द इस प्रकार कह देता है। कि उनसे ज्ञात हो जाता है कि परामर्शप्रार्थी जो कुछ कह रहा है उसे वह स्पष्टतः समझ रहा है। परन्तु इन शब्दों को परामर्शदाता इस प्रकार कहता है जिससे प्रार्थी के धाराप्रवाह में कोई विघ्न पैदा उदाहरण के लिए, परामर्शदाता बीच-बीच में ‘ठीक है’, ‘बहुत अच्छा’, हूँ इत्यादि’ शब्दों का उच्चारण करके परामर्शप्रार्थी को यह बोध करा सकता है कि वह जो कुछ कह रहा है, उसे वह (परामर्शदाता) ठीक समझ रहा है। कभी-कभी परामर्शदाता अपनी स्वीकृति के लिए कोई शब्द न कहकर केवल स्वीकारात्मक ढंग से अपना सिर हिला सकता है।
( 3 ) पुनर्कथन (Restatement)-
पुनरावृत्ति एवं स्वीकृति परामर्शप्रार्थी के लिए समान अर्थ एवं महत्व रखती है। स्वीकृति एवं पुनरावृत्ति दोनों से ही प्रार्थी को यह बोध होता है कि परामर्शदाता उनकी बात को समझ रहा है तथा स्वीकार करता है। पुनरावृत्ति के द्वारा परामर्शदाता उसी बात को दुहराता है जिसे प्रार्थी ने वर्णित किया है, परन्तु परामर्शदाता दुहराते समय किसी प्रकार का संशोधन या स्पष्टीकरण प्रार्थी के भाषण में नहीं करता है।
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(4) स्पष्टीकरण (Clarification)-
उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि परामर्शदाता का प्रमुख कर्तव्य यह है कि वह प्रार्थी को बोध करा दे कि उसे समझ रहा है तथा स्वीकार करता है परन्तु कभी-कभी परामर्शदाता को यह आवश्यक हो जाता है कि वह प्रार्थी के वर्णन का स्पष्टीकरण कर दें, किन्तु स्पष्टीकरण करते समय प्रार्थी को यह बोध न होना चाहिए कि उसे बलपूर्वक किसी रास्ते पर डाला जा रहा है। स्पष्टीकरण द्वारा परामर्शदाता प्रार्थी वर्णन को संक्षिप्त कर उसे स्पष्ट कर सकता है।
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