पहलव (पल्लव) वंश – पहलव मूलतः पार्थिया के निवासी थे। पार्थिया, बैक्ट्रिया के पश्चिम की ओर कैस्पियन सागर के दक्षिण-पूर्व में स्थित सेल्युकसी साम्राज्य का सीमवर्ती प्रान्त था। तृतीय शतब्दी ईसा पूर्व के मध्य बैक्ट्रिया के साथ ही पार्थिया के यवन क्षत्रप ने भी अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी। परन्तु शीघ्र ही पूर्व की ओर से आने वाले कुछ व्यक्तियों ने यवन शासक की हत्या कर दी तथा उन्होंने जिस साम्राज्य की नींव डाली यह पार्थियन नाम से विख्यात हुआ।
पार्थियन साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक मित्रदात प्रथम (171-130 ईसा पूर्व) था। पूर्व में उसने जेड्रोसिया, हेरात तथा सीस्तान की विजय की थी। उसके बाद फ्रात द्वितीय (138-128 ईसा पूर्व) या फिर आर्तवान (128-123 ईसा पूर्व) राजा हुए जो शकों के विरूद्ध युद्ध में मारे गए। मिन द्वितीय (123-188 ई.पू.) इस वंश का सबसे प्रतापी राजा था। उसने शकों को परास्त किया तथा सीस्तान और कान्धार पर अधिकार कर लिया।
भिदात द्वितीय के बाद भी पार्थियनों का सीस्तान, आरकोसिया, एरिया तथा काबुल घाटी में अधिकार बना रहा। इन प्रदेशों से मिले हुए सिक्कों से अनेक राजाओं के नाम ज्ञात होते हैं। पहले वे पार्थियन नरेशों के गवर्नर थे, परन्तु बाद में स्वतन्त्र हो गए तथा इण्डो-यूनानियों को परास्त कर उन्होंने भारत के कुछ भागों पर अधिकार भी कर लिया। भारत पर आक्रमण करने वाले पार्थियन सरदार मूलतः सीस्तान तथा आरकोसिया से आए थे उन्हीं को भारतीय ग्रन्थों में ‘पट्टव’ कहा गया है। उनमें निम्नलिखित शासकों के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है
(1) वोनोनीज
जिस समय शक शासक मेएस गन्धार में शासन कर रहा था, वोनोनीज, सीस्तान, आकोसिया तथा एरिया का राजा था। वह अपने सिक्को पर ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण करता है। उसके कुछ सिक्के यवन नरेश यूक्रेटाइडीज के सिक्कों के अनुकरण पर डाले गए हैं। इस प्रकार के सिक्कों पर यूनानी तथा खरोधी दोनों ही लिपियों में लेख प्राप्त होते है। सिक्कों के पृष्ठभाग पर उसके भाई श्पलहोर तथा भतीजे श्पलगडम के नाम मिलते है। सम्भवतः ये दोनों उसके प्रान्तीय शासक थे। बोनोनीज ने 18 ई.पू. तक शासन किया।
(2) श्पेलिरस
बोनोनीज के बाद स्पेलिरस राजा हुआ। उसके कुछ सिक्कों के मुखभाग पर ) हुआ।। यूनानी लिपि में श्पेलिरस का नाम तथा पृष्ठभाग पर शक नरेश एजेंज का नाम ख़ुदा है। इससे ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि संभवतः शक नरेश उसकी अधीनता में उपराजा (वायसराय) था। इससे पार्थियनों का तक्षशिला पर अधिकार सूचित होता है।
(3) गोण्डोफर्नीज
वह पल्लव वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली राजा हुआ उसके शासन काल का एक अभिलेख तख्ते वाही (पेशावर जिले में स्थित) से प्राप्त हुआ जिस पर 103 की तिथि दी गई है। यदि इसे विक्रम संवत् की तिथि स्वीकार की जाय तो ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि वह 103-57 व् 46 ई. में राज्य कर रहा था। यह तिथि उसके राज्य काल के 26वें वर्ष की है। अतः उसने 20 ईसवी (46-26) में शासन कार्य प्रारम्भ किया था।
गोण्डोफर्नीज के सिक्के पंजाब, सिन्ध, कान्धार, सीस्तान तथा काबुल घाटी में पाए गए हैं। इससे उसके साम्राज्य के विस्तृत होने की सूचना मिलती है। ऐसा लगता है कि शकों को परास्त कर उसने पंजाब तथा सिन्ध पर अधिकार कर लिया था। तक्षशिला उसकी राजधानी बनी अस्पवर्मन जो पहले शक नरेश एजेन द्वितीय की अधीनता में क्षत्रप था, अब गोण्डोफनींद की अधीनता स्वीकार करने लगा ईसाई अनुश्रुति में उसे ‘सम्पूर्ण भारत का राजा’ कहा गया है जिसके शासन काल में ईसाई धर्म का प्रचारक सेन्ट टामस भारत आया था। परन्तु इस अनुश्रुति की प्रामाणिकता काफी संदिग्ध है।
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गोण्डोफर्नीज के उत्तराधिकारियों के विषय में हमें निश्चय रूप से कुछ भी ज्ञात नहीं है। सिक्कों से दो राजाओं के नाम मिलते हैं- एब्डगेसस तथा पकोरिस ये दोनों निर्बल शासक थे। इसके बाद कुषाणों के भारत पर आक्रमण हुए। कुषाणों ने पल्लव को परास्त कर यहाँ अपना शासन कायम कर लिया। परन्तु ऐसा लगता है कि पश्चिमी भारत में द्वितीय शताब्दी ईस्वी तक पल्लव वंश की सत्ता किसी न किसी रूप में बनी रही। सातवाहन नरेश गौतमीपुत्र सातकर्णि को नासिक गुहालेख में किसी पल्लव राजा को उखाड़ फेंकने का श्रेय दिया गया है। महाक्षत्रप रुद्रदामन की अधीनता में सुविशाख नामक पल्लव सुराष्ट्र में शासन करता था। पार्थियन राजाओं के सिक्कों पर ‘घ्रमिय’ (धार्मिक) उपाधि उत्कीर्ण मिलती है। ऐसा लगता है कि शकों के समान वे भी भारतीय संस्कृति से प्रभावित हुए तथा उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था।
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