पारिस्थितिकी को परिभाषित कीजिए तथा पारिस्थितिकी संतुलन के लिए सुझाव दीजिए।

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पारिस्थितिकी को परिभाषित – ‘पारिस्थितिकी’ शब्द ‘Ecology ‘ का अनुवाद है। इकोलॉजी शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 1869 में अर्नेस्ट हीकेल नामक जीव वैज्ञानिक ने किया। उन्होंने इस शब्द का प्रयोग जीव-जन्तुओं के निवास स्थान सम्बन्धी विशेषताओं और उन दशाओं की प्रकृति को स्पष्ट करने के लिए किया जो विभिन्न जीवों के अस्तित्व के लिए आवश्यक होती हैं। इस प्रकार पारिस्थितिकी का अभिप्राय उन दशाओं से है जिनसे पर्यावरण और विभिन्न जीवों के बीच होने वाली अन्तक्रियाओं की जानकारी मिलती है। हीकेल ने पारिस्थितिकी के बारे में लिखा है कि “यह जीवों के निवास और अस्तित्व का विज्ञान है।” बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में पारिस्थितिकी की व्याख्या व्यापक अर्थ में की जाने लगी है। पारिस्थितिकी को एक ऐसे विज्ञान के रूप में परिभाषित किया जाने लगा जो सम्पूर्ण जैव-मण्डल की अस्तित्व सम्बन्धी दशाओं का अध्यन करता है। मैकफेडेन के अनुसार, “पारिस्थितिकी की अध्ययन वस्तु पौधों, जीव-जन्तुओं तथा उनके पर्यावरण के बीच सम्बन्धों को संचालित और नियंत्रित करने वाले नियमों और सिद्धान्तों की व्याख्या है। ओडेम ने लिखा है। कि “जीवों और पर्यावरण के बीच सम्बन्धों की सम्पूर्णता या प्रतिमान को ही पारिस्थितिकी कहा जाता है।

आज पारिस्थितिकी का सम्बन्ध मानव जीवन से भी बढ़ता जा रहा है। अब यह महसूस किया जाने लगा है कि अपने चारों ओर की भौतिक दशाओं से केवल वनस्पतियों और जीव-जन्तु ही प्रभावित नहीं होते बल्कि मानव के चारों ओर की भौतिक और सामाजिक दशाएँ भी उसके जीवन को एक विशेष रूप से दालती भी है। इसी धारणा के आधार पर पार्क और बर्गेस ने 1925 में ‘सामाजिक पारिस्थितिकी की अवधारणा को विकसित किया। आँगबर्न व निमकॉफ के अनुसार, “मानव पारिस्थितिकी सामान्य पारिस्थितिकी की ही एक शाखा है जिसमें मनुष्य तथा उसके पर्यावरण के पारस्परिक सम्बन्ध को स्पष्ट किया जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि आज समाजशास्त्र, मानवशास्त्र और अर्थशास्त्र में भी पारिस्थितिकी तथा इससे सम्बन्धित समस्याओं के अध्ययन को विशेष महत्व दिया जाने लगा है।

जय सभ्यता का विकास होने लगा तो मानव ने नयी प्रौद्योगिकी की सहायता से प्राकृतिक पर्यावरण पर कुछ नियंत्रण स्थापित करना प्रारम्भ किया। परिणामस्वरूप पारिस्थितिकीय सन्तुलन में एक अपकर्ष पैदा होने लगा। व्यक्ति की अव्यवस्थित गतिविधियों के कारण पर्यावरण में प्रदूषण बढ़ने से पारिस्थितिकी में एक ऐसा असन्तुलन पैदा होने लगा जिसने सम्पूर्ण जीवों के लिए खतरा उत्पन्न करना प्रारम्भ कर दिया। आधुनिक समय में आर्थिक विकास के लिए किये जाने वाले सभी प्रयत्नों के परिणामस्वरूप कुछ समय पूर्व का ‘प्राकृतिक मानव’ आज ‘आर्थिक ‘मानव’ बनता जा रहा है। इस प्रास्थिति ने जिस नयी समस्या को जन्म दिया उसी को हम परिस्थितिकीय उपकर्ष की समस्या कहते हैं।

भौगोलिक पर्यावरण क्या है?

पारिस्थितिकी के तत्व

आर. डी. मैकेन्जी ने मानव जीवन को प्रभावित करने वाले परिस्थितिशास्त्र सम्बन्धी प्रमुख तत्वों को निम्न भागों में विभाजित किया है-

  1. भौगोलिक तत्व जैसे जलवायु नदियाँ, पहाड़, जंगल और भौगोलिक स्थिति।
  2. आर्थिक तत्व जैसे विनिमय पद्धति, व्यावसायिक वितरण, रहन-सहन का स्तर स्थानीय उद्योग का संगठन इत्यादि ।
  3. सांस्कृतिक तथा यांत्रिक तत्व- जैसे समुदाय के अन्तर्गत प्रचलित जनरीतियाँ, प्राथमिक रूढ़ियाँ, नैतिकता, संस्थाएँ, धर्म, रेलगाड़ी, मोटरगाड़ी, टेलीफोन, विभिन्न प्रकार की उत्पादन सम्बन्धी मशीनें

पारिस्थितिकीय संतुलन हेतु सुझाव

पारिस्थितिकीय संतुलन हेतु अग्रांकित सुझाव दिये जा सकते हैं-

  1. सार्वजनिक वाहनों का प्रयोग अधिक किया जाना चाहिए।
  2. भूमि की क्षति को रोका जाना चाहिए।
  3. वायु तथा जल वृद्धि की ओर प्रयास किये जाने चाहिए।
  4. पशु शक्ति, मानव शक्ति, पवन ऊर्जा, जल शक्ति, सौर ऊर्जा के प्रयोग को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
  5. कारखाना कानून का पालन होना चाहिए।
  6. जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण लगाया जाना चाहिए।
  7. शिक्षा का विकास किया जाना चाहिए।
  8. वृक्षारोपण को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
  9. पर्यावरण शिक्षा का विस्तार किया जाना चाहिए।
  10. जलाऊ लकड़ी का कम प्रयोग किया जाना चाहिए।
  11. आर्थिक नियोजन करते समय पर्यावरण संरक्षण को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।

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