पाँच महायज्ञों का वर्णन कीजिए।

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पाँच महायज्ञों का वर्णन – गृहस्थ आश्रम में व्यक्ति पाँच महायज्ञों का आयोजन करता था तथा वह अपने कर्त्तव्य। पालन के साथ-साथ अपने तीन ऋणों से मुक्ति का साधन भी इसी आश्रम में करता था –

(क) देव यज्ञ

विश्व को नियन्त्रण में रखने के लिए सूर्य, वायु, अग्नि आदि देवी शक्तियों के प्रति मानव ऋणी होता है। मनुष्य को प्रातः एवं सायं इस यज्ञ को करना चाहिए। इस यज्ञ के द्वारा व्यक्ति देवी-देवताओं के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता था। यह यज्ञ इसलिए किया जाता था कि मनुष्य की उपलब्धियाँ एवं सुख देवताओं की कृपा से प्राप्त होते हैं। देवताओं के प्रति कृतज्ञता मनुष्य का महत्वपूर्ण कर्त्तव्य था।

(ख) पितृ यज्ञ

दूसरा यज्ञ पितर-यज्ञ होता था। मनुष्य अपने पिता एवं पितामह के प्रति भी ऋणी होता है और श्रद्धा के साथ यज्ञ करता है। यही यज्ञ आगे चलकर श्रद्धा में परिवर्तित हो जाता है। इस यज्ञ के द्वारा व्यक्ति अपने पितरों की तथा पूर्वजों, की शुद्धि एवं तर्पण करता था। यह यज्ञ कार्य वानप्रस्थी के लिए भी आवश्यक कार्य था कि वह अपने पूर्वजों के तर्पण की व्यवस्था करें।

(ग) मनुष्य यज्ञ

मानव वही है जो मानव कल्याण के लिए सदैव तत्पर रहे। उसे मनुष्य का अतिथि सत्कार करना चाहिए। इसे नृयज्ञ एवं अतिथि यज्ञ भी कहा जाता है। मनुष्य यज्ञ के द्वारा व्यक्ति सम्पूर्ण मानव समाज के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता था। वह सम्पूर्ण मानवता के आश्रय से मुक्त होने के लिए इस यज्ञ का आयोजन करता था।

(घ) भूत यज्ञ

चौथा यज्ञ भूत यज्ञ होता था। मानव मात्र की सेवा ही नहीं, प्रत्युत प्राणियों की सेवा करना गृहस्थ का कर्त्तव्य है। भूत यज्ञ को बलि वैश्य यज्ञ भी कहा गया है। इस यज्ञ के आयोजन का अभिप्राय प्राणिमात्र का कल्याण करना था। प्राणियों के कल्याण के बाद ही कर्त्तव्य से मुक्ति प्राप्त होती थी।

सर्वोच्च जन न्यायालय पर टिप्पणी लिखिये।

(ङ) ब्रह्म यज्ञ

ब्रह्म का तात्पर्य ज्ञान से हैं अर्थात् ज्ञान एवं विद्या की उन्नति के लिए जिन अनुष्ठानों का वैदिक ग्रन्थों में वर्णन मिलता है उसे ब्रह्म यज्ञ कहा जाता है।

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