Ancient History

पालकालीन मूर्तिकला |

पालकालीन मूर्तिकला – पाल युग में यद्यपि कलाकार अपने कार्य में स्वतन्त्र था, पर वह शास्त्रीय तत्वों से मुक्त होकर कार्य नहीं कर सकता था। इस काल में जितनी मूर्तियां बनायी गयी, वे ‘साधन-माला’ में लिखित और ब्राह्मण नियमों के अनुसार बनायी गयी। मध्यकाल की अधिकतर मूर्तियां मन्दिरों में मिलती है। उनमें धार्मिक प्रभाव अधिक है। वे अधिकतर कला की दृष्टि से इतनी उत्कृष्ट नहीं है। उत्तर भारत की बुद्ध धर्म के देवी-देवताओं की कुछ मूर्तियां सुन्दर बनी है परन्तु उनमें भी मौलिकता की कमी है। मूर्तियां केवल धर्म का मूर्त रूप है, उनमें कला की भावना का प्रायः अभाव है। इस काल के उत्तरार्ध में जो मूर्तियां बर्नी, उन पर तान्त्रिक विचारधारा का प्रभाव अधिक है।

इस काल में पूर्वी उत्तर भारत में पाल शैली का विकास हुआ। इसमें काले चिकने पत्थर का प्रयोग किया गया। इस कला में एक विशिष्ट सादगी है। पाल शैली की पत्थर की और कांसे की मूर्तियों में कोई अन्तर नहीं पाया जाता। नालन्दा की अष्टधातु की ‘अवलोकितेश्वर’ की ओर कुकिहार की ‘तारा’ की मूर्तियां कला की दृष्टि से श्रेष्ठ है। उड़ीसा के मन्दिरों की मूर्तियां और तक्षण कला भी उत्कृष्ट है।

इस काल की बहुत सी मूर्तियां बहुभुजी है। विष्णु की चतुर्भुज मूर्तियां सर्वत्र मिलती है। कुछ मूर्तियों में अधिक हाथ न दिखलाकर देवताओं के चि शंख, चक्र, गदा और पद्म दिखाये गये हैं। विष्णु के दस अवतारों की मूर्तियां बहुलता में बनीं शिव, गणेश, कार्तिकय और शक्ति की भी अनेक प्रतिमाएं इस काल में बनीं। शिव की लिंग मूर्तियों की प्रधानता थी, बंगाल में सबसे महत्वपूर्ण शिव प्रतिमा ‘उमा महेश्वर’ के नाम से पुकारी जाती है। पाल शैली की सुन्दर मूर्तियों में ‘अर्धनारीश्वर’ की भी गणना की जाती है। अधिकतर प्रतिमाएं दोहरे कमलासन पर खड़ी या बैठी दिखलायी गयी है।मूर्तिकला

प्रतिहार वंश पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

उत्तर भारत में इस काल की बोधिसत्य की अनेक मूर्तियां मिली है। इत्सिंग ने लिखा है कि बंगाल के कलाकार मिट्टी की बुद्ध की लाखों मूर्तियां बनाते थे।

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