न्यायिक पुनर्विलोकन का महत्व– न्यायिक पुनर्विलोकन की उपर्युक्त आलोचनाओं ये बावजूद इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि न्यायिक पुनर्विलोकन की व्यवस्था भारतीय लोकतन्त्र के लिए नितान्त आवश्यक और भारत की समस्त राज व्यवस्था के लिए अत्यधिक हितकर है। संविधान द्वारा संघीय व राज्य सरकारों के बीच जो शक्ति-विभाजन किया गया है, न्यायिक पुनर्विलोकन के आधार पर ही उसकी रक्षा सम्भव है। द्वितीय, शासन की शक्ति पर अंकुश रखने तथा नागरिक अधिकारों स्वतन्त्रताओं की रक्षा करने का कार्य भी व्यापिक पुनर्विलोकन के आधार पर ही किया जा सकता है। तृतीय, न्यायिक पुनर्विलोकन की व्यवस्था संविधान के सन्तुलन चक्र का कार्य करती है और न्यायिक पुनर्विलोकन के आधार पर ही सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय संविधान के अधिकारी व्याख्याता तथा रक्षक के रूप में कार्य कर सकते हैं।
इसके अतिरिक्त, न्यायिक पुनर्विलोकन के सम्बन्ध में की गयी कुछ आलोचनाएं निवान्त भ्रमपूर्ण है। तथ्यों से इस बात की पुष्टि नहीं होती कि न्यायिक पुनर्विलोकन के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुदारवादी या प्रगतिविरोधी शक्ति के रूप में कार्य किया है। कुलपति नैयर ने अपने एक लेख में नितान्त सही रूप में लिखा है कि, “न्यायालय से न्यायिक पुनर्विलोकन का अधिकार छीना जाना लोकतन्त्र के हित में नहीं होगा।’
न्यायिक पुनर्विलोकन शासन की शक्ति को मर्यादित रखने का एक प्रमुख साधन है। सर्वोच्च न्यायालय की सात सदस्यीय संविधान पीठ ने 1977 में अपने सर्वसम्मत निर्णय में कहा है: “न्यायिक पुनर्विलोकन संविधान का एक मूलभूत लक्षण है। संसद संवैधानिक संशाधन के आधार भी न्यायिक पुनर्विलोकन शक्ति को सीमित नहीं कर सकती।”