निर्देशित परामर्श से आप क्या समझते हैं ?

निर्देशित परामर्श – निदेशात्मक परामर्श की विधि परम्परागत एवं अत्यन्त प्रचलित हैं ई०जी० विलियमसन इस विधि के प्रमुख समर्थक हैं निर्देशात्मक परामर्श के अन्तर्गत, परामर्श का मुख्य उत्तरदायित्व विशिष्ट रूप से प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्ति का होता है। जिसे ‘परामर्शदाता’ कहा जाता है। परामर्शदाता, उपबोब्ध को स्वयं की राय से परिचित करता है और सेवार्थी को वांछनीय दिशा की ओर अग्रसारित करने हेतु। सुझाव भी देता है। परामर्श की सम्पूर्ण प्रक्रिया के अन्तर्गत वह धुरी के समान क्रियाशील रहता है। अतः परामर्शदाता को परामर्श का केन्द्र कहना, अनुचित नहीं होगा।

निदेशात्मक परामर्श के सोपान

विलियमसन ने निदेशात्मक उपबोधन के अप्रलिखित छः सोपान दिये हैं

  1. विश्लेषण (Analysis)- विश्लेषण के अन्तर्गत उपबोब्ध के बारे में सही जानकारी प्राप्त करने के लिए अनेक स्रोतों द्वारा आधार सामग्री एकत्रित की जाती है।
  2. संश्लेषण (Synthesis)- द्वितीय सोपान में, संकलित आधार, सामग्रियों को क्रमबद्ध, व्यवस्थित एवं संक्षेप में प्रस्तुत किया जाता है। जिससे सेवार्थी के गुणों, न्यूनताओं समायोजन एवं कुसमायोजन की स्थितियों का पता लगाया जा सके।
  3. निदान (Diagnosis)- निदान के अन्तर्गत सेवार्थी द्वारा अभिव्यक्ति समस्या के कारण तत्वों तथा उनकी प्रकृति के बारे में निष्कर्ष निकाले जाते हैं।
  4. पूर्व अनुमान (Prognosis)- इसमें छात्रों की समस्या के सम्बन्ध में भविष्यवाणी की जाती है।
  5. परामर्श (Counselling)- पंचम सोपान में, परामर्शदाता सेवार्थी के समायोजन तथा पुनः समायोजन के बारे में वांछनीय प्रयास करता है।
  6. अनुगामी (Follow up)- इसमें उपबोब्ध की नयी समस्याओं के पुनः घटित होने की सम्भावनाओं से निपटने में सहायता की जाती है और सेवार्थी को प्रदान किए गये परामर्श की प्रभावशीलता का मूल्यांकन किया जाता है
    हर्ष और भास्कर वर्मन की सन्धि की उपलब्धियों पर प्रकाश डालिए।

निदेशात्मक परामर्श की विशेषताएँ

निदेशात्मक परामर्श की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. परामर्शदाता का कर्तव्य, अपने निदान के अनुरूप निर्णय लेने में उपबोध्य की सहायता करना होता है।
  2. परामर्शदाता प्रार्थी को आवश्यक सूचनाओं से परिचित कराता है, सेवार्थी की परिस्थिति वस्तुनिष्ठ वर्णन व अर्थापन करता है तथा उसे विवेकयुक्त उपबोधन प्रदान करता है।
  3. निदेशात्मक परामर्श में, सेवार्थी के बौद्धिक पक्ष पर बल दिया जाता है।
  4. इस प्रकार के उपबोध्य के अन्तर्गत सेवार्थी की उपेक्षा उसकी ‘समस्या’ पर अधिक ध्यान दिया जाता है। जिससे सम्पूर्ण परिस्थिति एवं उससे उत्पन्न समस्याओं को जाना जा सके।
  5. इसके अन्तर्गत, परामर्शदाता के निर्देशन के अनुसार ही उपबोध्य को कार्य करना होता है। इस दृष्टि से परामर्श की सम्पूर्ण प्रक्रिया में सेवार्थी का सहयोग आवश्यक हो जाता है।
  6. निदेशात्मक परामर्श में, परामर्श प्रदान करने हेतु प्रत्यक्ष व्याख्यात्मक तथा समझाने बुझाने की ओर प्रवृत्त करने वाली विधियों का उपयोग किया जाता है। इस धारणा के अन्तर्गत परामर्शदाता को वैयक्तिक एवं वस्तुनिष्ठ, दोनों प्रकार की विधियों के मध्य के मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।

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