निर्देशन के प्रमुख सिद्धान्त – निर्देशन के मूलभूत का अर्थ स्पष्ट हो जाने के बाद निर्देशन के सिद्धान्तों को समझ लेना अति आवश्यक हैं इसलिए इन सिद्धान्तों का ज्ञान निर्देशन के क्रियात्मक या व्यावहारि कार्य में अधिक सहायता होता है। निर्देशन कार्यक्रम का संगठन यदि इन सिद्धान्तों को ध्यान में रखते हुए किया जाय तो ऐसा संगठन अधिक प्रभावशाली सिद्ध होगा। किन्तु यहाँ पर स्पष्टीकरण करना उपयुक्त होगा कि निर्देशन के सिद्धान्तों के बारे में विभिन्न विद्वान एकमत नहीं है। जोन्स ने निर्देशन के पांच सिद्धान्त, क्रो और क्रो ने चौदह तथा हम्फ्रीज और ट्रैक्सलर ने सात सिद्धान्नों का उल्लेख किया है। किन्तु यहाँ ऐसे सिद्धान्तों पर विचार करना उपयुक्त होगा जिनके बारे में सभी सिद्वान एकमत है।
(1 ) निर्देशन समस्त छात्रों के लिए
सभी नवयुवकों को निर्देशन सहायता की आवश्यकता होती है। किन्तु इस सम्बन्ध में एक गलत धारणा प्रचलित है कि निर्देशन सहायता केवल उनको चाहिए जो कुसमायोजित होते है। विद्यालयों में समय, स्थान, कर्मचारी एवं बजट आदि की व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण अधिकांश विद्यालय निर्देशन सेवा को उन छात्रों के लिए सीमित कर देते हैं जो बीच में अध्ययन छोड़ देते हैं, जो कक्षा में उत्पात मचाते है या जो परामर्श प्राप्त करने की प्रार्थना करते हैं। उपर्युक्त बाधाओं को ध्यान में रखते हुए समस्त छात्रों को परामर्श देने के लिए सामूहिक विधियों का प्रयोग तर्कसंगत प्रतीत होता है। वैसे भी जनतन्त्रात्मक शिक्षा प्रणाली में सभी छात्र को निर्देशन सहायता प्राप्त करने का अधिकार समान रूप से प्राप्त होना चाहिए।
(2) निर्देशन जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है
जिस प्रकार निर्देशन सहायता समस्त छात्रों के लिए सुलभ होनी चाहिए उसी प्रकार निर्देशन प्रक्रिया किसी विशेष आयु के लोगों तक सीमित नहीं की जा सकती है। यह जीवन भर चलती रहनी चाहिए। युवक को निर्देशन सहायता की आवश्यकता अपने समस्त जीवन स्तरों पर अनुभव होती हैं। छात्र जीवन के बाद जब युवक किसी व्यवसाय में नियुक्ति पाता है तो उस व्यवसाय में उत्तम • समायोजन एवं प्रगति के लिए उचित परामर्श की आवश्यकता अनुभव करता है।
संयुक्त परिवार के विघटन के कारणों पर प्रकाश डालिये।
(3) निर्देशन छात्र विकास के सभी क्षेत्रों से सम्बन्धित होना चाहिए
निर्देशन छात्र के सर्वागीण विकास से सम्बन्धित होता हैं। अतः इसको छात्र के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और भावात्मक वृद्धि पर अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। अब तक निर्देशन के सम्बन्ध में विद्वान में मिथ्या धारणा पनपती रही है कि निर्देशन केवल व्यक्ति को व्यावसायिक ज्ञान देने तक ही सीमित है।
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