निर्देशन एवं परामर्श की नवीन प्रवृत्तियाँ
वैज्ञानिक प्रवृत्ति एवं सामाजिक विज्ञानों के निरन्तर विकास के कारण ज्ञान के क्षेत्र में एक अभूतपूर्व विस्फोट परिलक्षित हो रहा है। प्रगति एवं विकास से सम्बन्धित समस्त क्षेत्रों, व्यक्ति एवं समाज से सम्बन्धित अवधारणाओं, प्रयुक्त की जाने वाली विधियों, युक्तियों आदि पर इनका स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। निर्देशन एवं परामर्श के लक्ष्य, कार्यविधि, पद्धतियाँ, पारस्परिक सम्बन्धों की भूमिका आदि पर भी इसका प्रभाव होना स्वाभाविक है। यही कारण है कि निर्देशन सेवाओं की परम्परागत प्रणाली में आज व्यापक स्तर पर परिवर्तन किए जा रहे हैं। आज परामर्श को परामर्शदाता के स्थान पर सेवार्थी केन्द्रित बना दिया गया है तथा प्रतिभा के प्रत्यय को विशिष्ट महत्व प्रदान करते हुए इसके विकास पर अधिक बल दिया जा रहा है। इसके अतिरिक्त भी अनेक नवीन प्रवृत्तियाँ इस क्षेत्र में दृष्टिगोचर हो रही हैं, जिनका उल्लेख निम्नलिखित हैं
(1 ) शैक्षिक निर्देशन से सम्बन्धित नवीन प्रवृत्तियाँ
वर्तमान समय में निर्देशन को मात्र सांवेगिक प्राथमिक चिकित्सा का माध्यम ही स्वीकार नहीं किया जाता है अपितु इसे एक ऐसी प्रविधि के रूप में विकसित किया। जा रहा है जो विद्यार्थी के समस्त मनोवैज्ञानिक पक्षों के विकास में सहायक हो। इसी कारण वर्तमान आवश्यकता जो के परिप्रेक्ष्य में निर्देशन के लक्ष्य में भी परिवर्तन कर दिया गया है और इसका लक्ष्य विकासात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति निर्धारित कर दिया गया। इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए, विद्यार्थियों में ज्ञानार्जन क्षमताओं के विकास, व्यावसायिक अवसरों की तैयारी व समाजीकरण पर बल दिया जाना सुनिश्चित किया गया है।
(2) परामर्शदाता के प्रशिक्षण कार्यक्रमों में परिवर्तन
परामर्शदाता के प्रशिक्षण से सम्बन्धित पाठ्यक्रम में भी आज व्यापक स्तर पर परिवर्तन किए गए है। आज मनोविज्ञान के प्रत्येक पहलू का ज्ञान, प्रत्येक परामर्शदाता के लिए सर्वाव्धक आवश्यक स्वीकार किया जा रहा है। स्नातक एवं स्नातकोत्तर दो भागों में निर्देशन सम्बन्धी पाठ्यक्रम को विभक्त करके विदेशों में बड़ी संख्या में परामर्शदाताओं को प्रशिक्षित के अनुभव को भी महत्व प्रदान किया गया है। तकनीकी विकास के फलस्वरूप यह भी आवश्यक स्वीकार किया गया है कि प्रत्येक परामर्शदाता को कम्प्यूटर प्रणाली का पर्याप्त ज्ञान हो। अनुसन्धान की नवीन एवं प्राचीन विधियों एवं प्रविधियों की जानकारी भी परामर्शदाताओं को प्रदान की जा रही है।
(3) मूल्यांकन के नवीन धारणाओं का विकास
निर्देशन एवं परामर्श की प्रक्रिया, किस सीमा तक अपने लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को प्राप्त कर सकी है? इस ज्ञान के अभाव में निर्देशन प्रक्रिया को प्रभावी बना पाना असम्भव है। अतः निर्देशन की प्रचलित मूल्यांकन पद्धतियों के अतिरिक्त कुछ अन्य प्रविधियों एवं धारणाओं के विकास पर बल दिया जा रहा है। इस सन्दर्भ में नवीन परिवर्तन निम्नलिखित हैं
- निर्देशन लक्ष्यों के पुनर्निर्धारण, उनकी वैधता, विश्वासनीयता एवं सार्थकता के सम्बन्ध में पुनर्निचार किया जा रहा है।
- आवश्यकता के अनुपात में निर्देशन कार्यकर्ताओं की संख्या, निर्देशन में उनकी रुचि तथा प्रशिक्षण आदि के सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार के सर्वेक्षण किए जा रहे हैं।
- इस सम्बन्ध में विभिन्न शोधों को प्रोत्साहित किया जा रहा है कि निर्देशन एवं परामर्श की प्रक्रिया को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सुचारू रूप से सम्पन्न करने के लिए किन सुविधाओं की आवश्यकता है।
- उपलब्ध आलेखों की पर्याप्तता, उपलब्धता आदि के सम्बन्ध में भी कांछित निर्णय लिए जा रहे हैं।
- सेवार्थी के सम्बन्ध में अधिक प्रदत्तों के संकलन एवं उनके वस्तुनिष्ठ विश्लेषण को महत्व प्रदान किया जा रहा है।
- निर्देशन कार्यक्रमों में आवश्यक सहभागिता अथवा विभिन्न कर्मियों के समन्वित प्रयासों पर भी पुनर्विचार किया जा रहा है।
(4) निर्देशन के क्षेत्र में तकनीकी की भूमिका
तकनीकी के व्यापक विकास के परिणामस्वरूप, परामर्शदाताओं के द्वारा किए जाने वाले अनेक कार्य, अब मशीनों के द्वारा किए जा सकते हैं। संगणक एवं कम्प्यूटरों का उद्भव इस क्षेत्र के लिए वरदान हो सकेगा। परामर्शदाताओं का प्रमुख कार्य मनोवैज्ञानिक परीक्षणों के प्रशासन तक ही सीमित हो जाने की संभावना है। यह भी संभव है कि कालान्तर में परामर्श की समग्र प्रक्रिया पर ही कम्प्यूटर का नियंत्रण हो जाए। कम्प्यूटर के भावी प्रयोग पर आधारित इन संभावनाओं ने परामर्शदाता की भूमिका को सुनिश्चित करने के लिए विवश कर दिया है और इस दिशा में चिन्तन, मनन, विचार-विमर्श की प्रक्रिया चल रही है। अब कम्प्यूटर का प्रयोग भी निर्देशन में किया जाने लगा है।
(5) मानव व्यवहार से सम्बन्धित नवीन धारणाओं का विकास
सामाजिक विज्ञानों के निरन्तर विकास के फलस्वरूप मानव की प्रकृति एवं उसके विकास पर अनेक नई खोजें हुई हैं। नव फ्रायडवादी विचारधारा के अन्तर्गत, मानव व्यवहार के जैविक एवं सामाजिक तत्वों पर विशेष बल दिया जा रहा है, बुद्धि एवं अभिरूचि के स्थान पर, प्रतिभा के विकास एवं प्रयोग को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। यदि किसी व्यक्ति में कोई प्रतिभा है तो उसके विकास एवं उपयोग के समुचित अवसर प्रदान किए जाने चाहिए और व्यक्ति एवं समाज की प्रगति की दृष्टि से इसी का सर्वाधिक महत्व है। निर्देशन एवं परामर्शदाताओं को इन नवीन धारणाओं से परिचित होना आज नितान्त आवश्यक है।
इन नवीन प्रवृत्तियों के अतिरिक्त रूथ स्ट्रॉंग ने निर्देशन की निम्नलिखित नवीन प्रवृतियों को विकसित करने पर विशेष बल दिया है
1. सेवार्थी केन्द्रित उपबोधन
परामर्शद को परामर्शदाता केन्द्रित बनाने के स्थान पर सेवार्थी केन्द्रित बनाया जाना चाहिए। यह परामर्श, प्रार्थी की आवश्यकताओं, विकास के स्तर एवं वस्तुनिष्ठ आधारों पर सम्पन्न किया जाना चाहिए।
2. विकासात्मक निर्देशन पर बल
व्यक्ति का समग्र व्यक्तित्व अखण्ड है तथा उसकी विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित समस्यायें भी, परस्पर एक-दूसरे से सम्बद्ध होती हैं। अतः निर्देशन प्रदान करते समय व्यक्ति के व्यक्तित्व के समग्र पक्षों पर समन्वित रूप से ध्यान किया जाना चाहिए। साथ ही व्यक्ति की एक समस्या का अध्ययन करते समय अन्य क्षेत्रों से सम्बन्धित पक्षों का भी ध्यान रखा जाना चाहिए।
3. निर्देशन कार्यक्रमों में शिक्षकों का सहयोग
यह प्रयास किया जा रहा है कि निर्देशन एवं परामर्श कार्यक्रमों में शिक्षकों की सहभागिता में वृद्धि हो सके। कारण यह है कि निर्देशन शिक्षा की प्रक्रिया का एक सह अंग है। शिक्षा में निर्देशन निहित है। अतः यह अपेक्ष की जाती है कि एक परामर्शदाता को शिक्षण की प्रक्रिया से भी परिचित होना चाहिए। लेकिन सर्वाधिक उचित यही है कि एक शिक्षक को ही निर्देशन एवं परामर्श की प्रक्रिया से परिचित कराकर उनका इस दिशा में उपयोग किया जाए। निर्देशन शिक्षा एक सशक्त सहायक प्रणाली है।
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4. सामूहिक कार्य का महत्व
वर्तमान समय में यह अनुभव किया जा रहा है कि सेवार्थी को समुचित निर्देशन एवं परामर्श देने के लिए उससे सम्बन्धित अभिभावकों, शिक्षकों, प्राचार्यों, मित्रों का भी सहयोग प्राप्त किया जाए। मात्र परामर्शदाता के द्वारा ही इस भूमिका का निर्वाह सार्थक रूप में किया जाना कठिन है। अतः निर्देशन व परामर्श के क्षेत्र में सामूहिक कार्य को प्रोत्साहित किया जा रहा है।
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