नीति निदेशक तत्वों का अर्थ, स्वरूप एवं प्रमुख तत्वों का वर्णन कीजिए।

नीति निदेशक तत्वों का अर्थ और स्वरूप- निदेशक तत्व हमारे राज्य के सम्मुख कुछ आदर्श उपस्थित करते हैं, जिनके द्वारा देश के नागरिकों का सामाजिक, आर्थिक एवं नैतिक उत्थान हो सकता है। संविधान की प्रस्तावना द्वारा भारत के नागरिकों को समानता, स्वतन्त्रता एवं न्याय प्रदान करवाने का लक्ष्य इन आदेशों को क्रियान्वित किये जाने पर ही पूर्ण हो सकता है। ये निदेशक तत्व एक प्रकार से राज्य के लिए नैतिकता के सूत्र हैं तथा देश में स्वस्थ एवं वास्तविक प्रजातन्त्र की स्थापना की दिशा में प्रेरणा देने वाले हैं। इन तत्वों की प्रकृति के सम्बन्ध में संविधान की 37वीं धारा में कहा गया है कि “इस भाग में दिये गये उपबन्धों को किसी भी न्यायालय द्वारा बाध्यता नहीं दी जा सकेगी, किन्तु तो भी इसमें दिये हुए तत्व देश के शासन में मूलभूत हैं और विधि निर्माण में इन तत्वों का प्रयोग करना राज्य का कर्तव्य होगा।”

इस धारा से यह बात स्पष्ट है कि निदेशक तत्वों को मूल अधिकारों के समान वैज्ञानिक शक्ति प्रदान नहीं की गयी है अर्थात् निदेशक तत्वों की क्रियान्वित के लिए न्यायालय के द्वारा किसी भी प्रकार के आदेश जारी नहीं किये जा सकते हैं। वैधानिक शक्ति प्राप्त न होने पर भी ये तत्व राज्य शासन के संचालन के आधारभूत सिद्धान्त हैं और राज्य का यह नैतिक कर्तव्य है कि व्यवहार में सदैव ही इन तत्वों का पालन करे। निदेशक तत्वों की प्रकृति को स्पष्ट करते हुए जी. एन. जोशी ने लिखा है कि “इन निदेशक तत्वों का विधानमण्डलों को कानून बनाते समय और कार्यपालिका को इन कानूनों को लागू करते समय ध्यान रखना चाहिए। ये उस नीति की ओर संकेत है जिसका अनुकरण संघ और राज्यों को करना चाहिए।”

नीति निदेशक तत्वों का स्वरूप

नीति निदेशक तत्वों के स्वरूप के सम्बन्ध में प्रमुखतया निम्न तीन बातें उल्लेखनीय हैं:

  1. इन तत्वों को न्यायालय द्वारा लागू नहीं किया जा सकता। दूसरे शब्दों में, इन्हें वैधानिक शक्ति प्राप्त नहीं हैं।
  2. निदेशक तत्व देश के शासन में मूलभूत स्थान रखते हैं।
  3. कानून बनाते समय इन तत्वों का प्रयोग करना राज्य का कर्तव्य होगा। यहाँ राज्य का अभिप्राय सभी राजनीतिक सत्ताओं से है। केन्द्रीय सरकार, संसद, राज्य सरकार, विधानमण्डल और भारत सरकार या राज्य सरकार के अधीन सभी स्थानीय और अन्य प्राधिकारी इसके अधीन हैं।

नीति निदेशक तत्व

संविधान की धारा 38 से 51 तक में राज्य नीति के निदेशक तत्वों का वर्णन किया गया है। अध्ययन की सुविधा के लिए इन तत्वों को निम्न वर्गों में बाँटा जा सकता है

1.आर्थिक सुरक्षा सम्बन्धी निदेशक तत्व

भारतीय संविधान के निर्माताओं का उद्देश्य भारत में एक लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना करना था और इस दृष्टि से अधिकांश निदेशक तत्वों द्वारा आर्थिक सुरक्षा और आर्थिक न्याय के सम्बन्ध में व्यवस्था की गयी है। संविधान में इस प्रकार के निम्न तत्वों का उल्लेख है। का प्रयत्न करेगा।

(1) राज्य प्रत्येक स्त्री और पुरुष को समान रूप से जीविका के साधन प्रदान करने

(2) राज्य देश के भौतिक साधनों के स्वामित्व और नियन्त्रण की ऐसी व्यवस्था करेगा। कि अधिक से अधिक सार्वजनिक हित हो सके।

(3) राज्य इस बात का भी ध्यान रखेगा कि सम्पत्ति और उत्पादन के साधनों का इस प्रकार केन्द्रीकरण न हो कि सार्वजनिक हित को किसी प्रकार की हानि पहुँचे।

(4) राज्य प्रत्येक नागरिक को चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, समान कार्य के लिए समान वेतन प्रदान करेगा।

(5) राज्य श्रमिक पुरुषों और स्त्रियों के स्वास्थ्य और शक्ति तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न होने देगा।

(6) मूल संविधान में कहा गया था कि ‘राज्य बच्चों तथा युवकों की शोषण से तथा भौतिक या नैतिक परित्याग से रक्षा करेगा।’ 42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा उसे इस प्रकार संशोधित किया गया है, “राज्य के द्वारा बच्चों को स्वस्थ रूप में विकास के लिए अवसर और सुविधाएँ प्रदान की जायेंगी, उन्हें स्वतन्त्रता और सम्मान की स्थिति प्राप्त होगी, बच्चों तथा युवकों की शोषण से तथा भौतिक या नैतिक परित्याग से रक्षा की जायेगी।

(7) राज्य अपने आर्थिक साधनों के अनुसार और विकास की सीमाओं के भीतर यह प्रयास करेगा कि सभी नागरिक अपनी योग्यता के अनुसार रोजगार पा सकें, शिक्षा पा सकें एवं बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी और अंगहीनता, आदि दशाओं में सार्वजनिक सहायता प्राप्त कर सकें।

(8) राज्य ऐसा प्रयत्न करेगा कि व्यक्तियों को अपनी अनुकूल अवस्थाओं में ही कार्य करना पड़े तथा स्त्रियों को प्रसूतावस्था में कार्य न करना पड़े।

(9) राज्य इस बात का प्रयत्न करेगा कि कृषि और उद्योग में लगे हुए सभी मजदूरों को अपने जीवन निर्वाह के लिए यथोचित वेतन मिल सके, उनका जीवन स्तर ऊपर उठ सके, वे अवकाश के समय का उचित उपयोग कर सकें तथा उन्हें सामाजिक और सांस्कृतिक उन्नति का अवसर प्राप्त हो सके।

(10) राज्य का कर्तव्य होगा कि गांवों में व्यक्तिगत अथवा सहकारी आधार पर कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन दें।

(11) वैज्ञानिक आधार पर कृषि का संचालन करना भी राज्य का कर्तव्य होगा।

(12) राज्य पशुपालन की अच्छी प्रणालियों का प्रचलन करेगा और गार्यो, बड़ों तथा अन्य दुधारू और वाहक पशुओं की नस्ल सुधारने और उनके वध को रोकने का प्रयत्न करेगा। 42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा आर्थिक सुरक्षा सम्बन्धी दो निदेशक तत्व और जोड़े गये है, ये इस प्रकार है

(13) राज्य इस बात का प्रयत्न करेगा कि कानूनी व्यवस्था का संचालन समान अवसर तथा न्याय की प्राप्ति में सहायक हो और उचित व्यवस्थापन, योजना या अन्य किसी प्रकार से समाज के कमजोर वर्गों के लिए निःशुल्क कानूनी सहायता की व्यवस्था करेगा, जिससे आर्थिक असामर्थ्य या अन्य किसी प्रकार से व्यक्ति न्याय प्राप्त करने से वंचित न रहें।

(14) राज्य उचित व्यवस्थापन या अन्य प्रकार से औद्योगिक संस्थानों के प्रबन्ध में कर्मचारियों के भागीदार बनाने के लए कदम उठायेगा।

44वें संवैधानिक संशोधन (अप्रैल 1979) द्वारा आर्थिक सुरक्षा सम्बन्धी निदेशक तत्वों में एक और तत्व जोड़ा गया है। इसमें कहा गया है कि, ” राज्य न केवल व्यक्तियों की आय और उनके सामाजिक स्तर, सुविधाओं और अवसरों सम्बन्धी भेदभाव को कम से कम करने का प्रयत्न करेगा, वरन् विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए व्यक्तियों के समुदाय के बीच विद्यमान आय, सामाजिक स्तर, सुविधाओं और अवसरों को भी कम करने का प्रयत्न करेगा।”

2. सामाजिक हित सम्बन्धी निदेशक तत्व

इस सम्बन्ध में राज्य के अधोलिखित कर्तव्य निश्चित किये गये हैं

(1) राज्य लोगों के जीवन स्तर को सुधारने और स्वास्थ्य सुधारने के लिए प्रयत्न करेगा। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए औषधि में प्रयोग किये जाने के अतिरिक्त स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मादक द्रव्यों तथा अन्य पदार्थों के सेवन पर प्रतिबन्ध लगायेगा।

(2) राज्य जनता के दुर्बलतर अंगों के, विशेषतया अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के, शिक्षा तथा अर्थ सम्बन्धी हितों की विशेष सावधानी से उन्नति करेगा और सामाजिक अन्याय तथा सभी प्रकार के शोषण से उनकी रक्षा करेगा।

3.न्याय, शिक्षा और प्रजातन्त्र सम्बन्धी निदेशक तत्व

भारत में सुगम और सुलभ न्याय व्यवस्था, शिक्षा के प्रचार और प्रसार तथा प्रजातन्त्र की भावना के विकास के लिए भी कुछ निदेशक तत्वों का वर्णन किया गया है, जो इस प्रकार हैं

(1) राज्य भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक ‘समान नागरिक संहिता’ (Uniform Civil Code) प्राप्त कराने का प्रयास करेगा। ( अनुच्छेद 44 ) ।

(2) राज्य की लोक सेवाओं में, न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक करने के लिए राज्य कदम उठाएगा।

(3) नीति निदेशक तत्वों के अन्तर्गत मूल संविधान के अनुच्छेद 45 में कहा गया था, “विधान लागू होने के 10 वर्ष के समय में राज्य 14 वर्ष तक के बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था करेगा।” विधान लागू होने के बाद 50 वर्ष के समय में भी इस स्थिति को प्राप्त नहीं किया जा सका। 86वें संवैधानिक संशोधन (2002) के आधार पर इस निदेशक तत्व को ‘स्वतन्त्रता के अधिकार’ के अन्तर्गत मूल अधिकार की स्थिति प्रदान कर दी गई। है तथा निदेशक तत्वों में इसके स्थान पर नया अनुच्छेद जोड़ा गया है जो इस प्रकार है- “राज्य प्रारम्भिक बाल्यावस्था में देखभाल और 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की शिक्षा के लिए प्रयास करेगा।”

(4) प्रजातन्त्र की भावना के विकास के लिए निदेशक तत्वों में कहा गया है कि राज्य ग्राम पंचायतों के संगठन की ओर कदम उठायेगा और इन्हें अधिकार प्रदान किये जायेंगे कि वे स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य कर सकें।

4. प्राचीन स्मारकों की रक्षा सम्बन्धी निदेशक तत्व

इन तत्वों द्वारा प्राचीन स्मारकों, कलात्मक महत्व के स्थानों और राष्ट्रीय महत्व के भवनों की रक्षा का कार्य भी राज्य को सौंपा गया है।

42वें संवैधानिक संशोधन में कहा गया है कि राज्य ‘देश के पर्यावरण (Environment) की रक्षा और उसमें सुधार का प्रयास करेगा।’ राज्य के द्वारा वनों और वन्य जीवन की सुरक्षा का भी प्रयास किया जाएगा।

त्रिशक्ति संघर्ष के विषय में लिखिए।

5. अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति सुरक्षा सम्बन्धी निदेशक तत्व

हमारे देश का आदर्श सदैव ही ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का रहा है और हमने सदैव ही शान्ति तथा ‘जीओ और जीने दो’ के सिद्धान्त को अपनाया है। इसी आदर्श को हमारे संविधान के अन्तिम निदेशक तत्व में इस प्रकार बताया गया है।

राज्य अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में निम्नलिखित आदर्शों को लेकर चलने का प्रयत्न करेगा।

  • अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा में वृद्धि,
  • राष्ट्रों के बीच न्याय और सम्मानपूर्ण सम्बन्ध स्थापित रखना,
  • राष्ट्रों के आपसी व्यवहार में अन्तर्राष्ट्रीय कानून और सन्धियों के प्रति आदर का भाव बढ़ाना।
  • अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों को मध्यस्थता द्वारा सुलझाने के लिए प्रोत्साहित करना।

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