नन्द वंश का पतन
महापद्मनन्द के पुत्र का नाम घनानन्द था। महापद्मनन्द के पास अतुल धनराशि थी। कथासरित्सागर से विदित होता है कि उसके पास 122 करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ थी। महावंश का कथन है कि- “सबसे छोटे मशत को धन लिप्सा के कारण धनानन्द कहा जाता था। उसने 80 कोटि धन नदी (गंगा) की तलहटी की खड्ड में संग्रहीत किया था। काफी गहरी खुदाई करके उसने यहाँ धन गाड़ा था। चमड़ा, गोंद, पत्थर आदि पर तथा अन्य वस्तुओं, पर भी कर लगाकर ही उसने उसी प्रकार दूसरा कोष भी गाड़कर रखा।” कर्टियस ने उसका नाम अग्रमीज बताया है। कर्टियस का कथन है कि “अग्रमीज का पिता जाति का नाई था और उसका प्यार रानी से हो गया था। उसने रानी के पति और पुत्रों की हत्या करके स्वयं राजा बन गया। इससे विदित होता है। कि वह जाति का शूद्र था।”
महापद्मनन्द एक शुद्ध रखेल से उत्पन्न हुआ था। इसीलिए उसे हेय दृष्टि से देखा जाता था। नन्दों ने अपने प्राचीन वैदिक धर्म को त्याग कर जैन धर्म स्वीकार किया था। पतित होने कारण और निम्न कुल में उत्पन्न होने के कारण वह ब्राह्मणों की मान मर्यादा के प्रति भी हमेशा उदासीन रहता था। उसकी उम्र आर्थिक नीति के परिणामस्वरूप प्रजा भी बहुत दुःखी थी। इसी समय नन्द वंश का दुश्मन चाणक्य और सम्राट बनने के स्वप्न को देखने वाला चन्द्रगुप्त दोनों ने मिलकर नन्द साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया और नन्द वंश का सर्वनाश हो गया।
महापद्मनन्द के उत्तराधिकारी और मगध में तीसरी क्रान्ति
महापद्मनन्द ने कुल अट्ठासी वर्ष तक शासन किया। यद्यपि यह सही प्रतीत नहीं होता है। सम्भवतः उसने अट्ठाईस वर्षो तक शासन किया था। महापश्चनन्द के उत्तराधिकारियों की संख्या आठ बताई जाती है। इस वंश का अन्तिम शासक घनानन्द था। इसी को मारकर चन्द्रगुप्त ने मौर्य साम्राज्य की स्थापना की।
कुछ विद्वानों के विचार से नन्द वंश में दो सम्राट हुए- “महापद्मनन्द और घनानन्द परन्तु कुछ विद्वान इस वंश में नौ सम्राट बतलाए हैं, जिसमें घनानन्द अन्तिम सम्राट था, जो सिकन्दर का समकालीन था। घनानन्द के समय मगध में तीसरी क्रान्ति हुई जिसके अप्रलिखित कारण थे
- घनानन्द पथभ्रष्ट, दुराचारी शासक था।
- वह धन का लोभी था और प्रजा से अधिक से अधिक कर वसूल करना चाहता था। वह निर्दयता से जनता का शोषण करता था।
- प्रजा उसके काले कारनामों के कारण उससे घृणा करने लगी थी। भारतीय इतिहास में अत्याचारी शासक को हमेशा पदच्युत कर दिया गया है। शोषित जनता इस अत्याचारी राज्य को समाप्त करने के लिए दृढ़ संकल्प हो गई।
- साम्राज्य के श्रेष्ठ व्यक्तियों से उसने बैर मोल ले लिया था, यथा चन्द्रगुप्त और चाणक्य से चन्द्रगुप्त ने नन्द वंश को समाप्त करके मौर्य वंश आरम्भ किया।
भारतीय इतिहास में नन्द वंश का स्थान
नन्द वंश ने भारत में एक ऐसे विशाल और विस्तृत साम्राज्य की नींव डाली जो मौर्य के समय अखिल भारतीय साम्राज्य हो गया। मगध राज्य में भारत के एकीकरण के स्वप्न को साकार बनाया। पुराणों में महापद्मनन्द को अखिल क्षत्रान्तकारी सर्वक्षत्रान्तक एकराट कहा है। नन्द राजाओं ने विशाल सेना और असीमित धन एकत्रित किया, जिसके आधार पर मगध राज्य शक्तिशाली साम्राज्य बन सका।
नन्दों ने पाटलिपुत्र को राजनीतिक, व्यवसायिक एवं सैनिक केन्द्र बना दिया। पाटलिपुत्र लगभग एक हजार वर्ष तक भारत का प्रमुख नगर बना रहा। कला कौशल और शिक्षा का केन्द्र रहा। ‘वररुचि, कार्तयायन, पाणिनि, वर्ष, उपवर्ष’, आदि अनेक प्रकाण्ड पण्डितों ने पाटलिपुत्र में ही शिक्षा प्रदान की । नन्द राजाओं ने कुशल शासन प्रणाली का वह ढाँचा तैयार किया जिसे चन्द्रगुप्त मौर्य ने और दृढ़ कुशल बनाया। नन्द राजाओं ने नाप तौल की नवीन प्रणाली आरम्भ की।
इस प्रकार से मौर्य वंश के उदय के पूर्व उपरोक्त राजवंशों ने मगध के उत्कर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
नन्द वंश का महत्व-नन्द राजाओं का शासन काल भारतीय इतिहास में कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। सामाजिक दृष्टि से यह निम्न वर्ग के उत्थान का काल माना जाता था। उनका राजनैतिक महत्व इस तथ्य में निहित था कि इस वंश के राजाओं ने उत्तर भारत में सर्वप्रथम एकछत्र शासन की स्थापना की। उन्होंने एक ऐसी सेना तैयार की थी जिसका उपयोग परवर्ती मगध राजाओं ने विदेशी आक्रमणकारियों को रोकने तथा भारतीय सीमा में अपने राज्य का विस्तार करने में किया। नन्दों के समय में मगध राजनैतिक दृष्टि से अत्यन्त शक्तिशाली तथा आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त समृशाली बन गया। नन्दों की अतुल सम्पत्ति को देखते हुए यह अनुमान करना स्वाभाविक है कि हिमालय पार के दशों के साथ उनका व्यापारिक सम्बन्ध था। साइबेरिया की ओर से वे स्वर्ण मंगाते थे। जेनोफोन की साइरोपेडिया से पता चलता है कि भारत का एक शक्तिशाली राजा पश्चिमी एशियाई देशों के झगड़ों की मध्यस्थता करने की इच्छा रखता था। इस भारतीय शासक को अत्यन्त धनी व्यक्ति कहा गया है जिसका संकेत नन्दवंश के शासक धनानन्द की ओर ही है। सातवीं शत के चीनी यात्री हुएनसांग ने भी नन्दों के अतुल सम्पति की कहानी सुनी थी। उसके अनुसार पाटलिपुत्र में पाँच स्तूप थे जो नन्द राजा के सात बहुमूल्य पदार्थों द्वारा संचित कोषागारों का प्रतिनिधित्व करते थे। आर्थिक समृद्धि के कारण पाटलिपुत्र का भी विकास हुआ तथा वह शिक्षा और साहित्य का प्रमुख केन्द्र बन गया। व्याकरणाचार्य पाणिनि महापद्मनन्द के मित्र थे और उन्होंने पाटलिपुत्र में रहकर ही शिक्षा पायी थी वर्ष उपवर्ष तथा काव्यायन आदि विद्वान नन्द काल में ही उत्पन्न हुए।
इस प्रकार हम देखते हैं कि नन्द वंशीय राजाओं के काल में मगध साम्राज्य राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टि से प्रगति के पथ पर अग्रसर हुआ। बुद्धकालीन राजतन्त्रों में मगध ही अन्ततोगत्वा सर्वाधिक शक्ति सम्पन्न साम्राज्य के रूप में उभर कर सामने आया। इसके लिए मगध शासकों की शक्ति के साथ ही साथ प्राकृतिक कारण भी कम सहायक नहीं थे। मगध की दोनों राजधानियाँ- राजगृह तथा पाटलिपुत्र अत्यन्त सुरक्षित भौगोलिक स्थिति में थी। राजगृह पहाड़ियों से घिरी होने के कारण शत्रुओं द्वारा सुगमता से जीती नहीं जा सकती थी। इसी प्रकार पाटलिपुत्र नदियों से घिरी होने के कारण सुरक्षित थी। इस प्रकार पहाड़ों तथा नदियों ने तत्कालीन परिवेश में मगध की सुरक्षाभिति का कार्य किया था। समीपवर्ती वन प्रदेश से मगध के शासकों ने हाथियों को प्राप्त कर एक शक्तिशाली गज-सेना का गठन किया। मगध क्षेत्र में कच्चा लोहा तथा तांबा जैसे खनिज पदार्थो की बहुलता थी।
मिहिरभोज प्रतिहार वंश का महानतम् शासक था।” इस कथन का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
लोहे का समृद्ध भण्डार आसानी से उपलब्ध होने के कारण मगध के शासक अपने लिए अच्छे हथियार तैयार करा सके जो उनके विरोधियों को सुलभ नहीं थे। ईसा पूर्व पांचवीं सदी से ही मगध पूर्वी भाग में उत्तरापय के व्यापारिक मार्ग को नियन्त्रित करता था। अजातशत्रु के काल में मगध का गंगा नदी के दोनों तट पर नियन्त्रण हो गया। यहाँ से कई व्यापारिक मार्ग होकर जाते थे। तक्षशिला से प्राप्त आहत सिक्कों (घ्नदबी उतामक बवपदे) से पता चलता है कि सिकन्दर के समय में मगध के सिक्के पश्चिमोत्तर क्षेत्र में काफी प्रचलित थे। ईसा पूर्व पाँचवी सदी के अन्त तक मगध समस्त उत्तरापथ के व्यापार का नियन्ता बन बैठा। मगध की इस आर्थिक समृद्धि ने भी साम्राज्यवाद के विकास में प्रमुख योगदान दिया था।
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