मौलिक अधिकार से क्या अभिप्राय है? मौलिक अधिकारों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

मौलिक अधिकार

वे अधिकार जो व्यक्ति के जीवन के लिए मौलिक अधिकार तथा अनिवार्य होने के कारण संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किये जाते हैं और जिन अधिकारों में राज्य द्वारा भी हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता, मूल अधिकार कहलाते हैं। इन्हीं . विशेषताओं के कारण मूल अधिकारों को नागरिकों का पवित्र अधिकार कहा जाता है। भारत में मूल अधिकारों को भारतीय संविधान में शामिल किया गया है और उनकी गारण्टी दी गयी है। गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने इन अधिकारों को नैसर्गिक और अप्रतिदेय अधिकार माना है।

संविधान में वर्णित मौलिक (मूल) अधिकार मूलत:

भारतीय संविधान में कुल सात मूल अधिकारों का उल्लेख किया गया था जो कि संविधान के भाग 3 में वर्णित थे लेकिन 44वें संविधान संशोधन 1978 द्वारा सम्पत्ति के अधिकारों को विधिक अधिकार मान लिये जाने के पश्चात् मूल अधिकारों की संख्या छः रह गयी। जिनका वर्णन निम्नतः किया जा सकता है

(A) समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14 से 18 तक)

इस अधिकार से तात्पर्य है कि किसी भी भारतीय नागरिक के साथ किसी भी प्रकार का तथा किसी भी आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। संविधान द्वारा निम्नांकित पाँच प्रकार की समानताएँ प्रदान की गई हैं

(1) कानून के समक्ष समानता (अनुच्छेद 14)

भारतीय कानून प्रत्येक नागरिक को समान दृष्टि से देखता है। प्रत्येक नागरिक निष्पक्ष न्याय पाने का अधिकारी है।

(2) सार्वजनिक स्थानों के उपभोग में समानता (अनुच्छेद 15 )

संविधान के अनुच्छेद 15 के अनुसार सार्वजनिक स्थानों, सार्वजनिक भोजनालयों, मनोरंजन के स्थानों, पार्कों, तालाबों, सरकारी कुओं आदि के उपभोग में नागरिकों के मध्य किसी आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा।

(3) सरकारी नियुक्तियों में अवसर की समानता (अनुच्छेद 16)

किसी भी प्रतियोगिता में भाग लेने या उच्च पद प्राप्ति का आधार एकमात्र योग्यता होगी। किसी भी नागरिक के साथ धर्म, लिंग, जाति अथवा वर्ग के आधार पर उच्च पद या नौकरी प्राप्ति के सन्दर्भ में भेदभाव करने का किसी को अधिकार नहीं होगा।

(4) अस्पृश्यता का अन्त (अनुच्छेद 17)

संविधान में अस्पृश्यता समाप्ति का प्रावधान भी किया गया है। अब किसी भी रूप में अस्पृश्यता का प्रचार एवं प्रसार कानून के अनुसार दण्डनीय होगा।

(5) उपाधियों का अन्त (अनुच्छेद 18)

गरीब-अमीर के भेदभाव को समाप्त कर समाज में समानता स्थापित करने के उद्देश्य से संविधान ने राय बहादुर, सर आदि उपाधियों को समाप्त कर दिया है। ये उपाधियाँ ब्रिटिश शासनकाल में राजभक्तों को प्रदान की जाती थी।

(B) स्वतन्त्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19 से 22 तक)

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के अनुसार स्वतन्त्रता के अधिकार के अन्तर्गत नागरिकों को निम्नलिखित छह प्रकार की स्वतन्त्रताएँ प्राप्त हैं

(1) भाषण तथा अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता (अनुच्छेद 19(1-क))

प्रत्येक नागरिक को विचाराभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता है, परन्तु शर्त यह है कि यह समाज में अव्यवस्था उत्पन्न न करे।

(2) सभा करने की स्वतन्त्रता (अनुच्छेद 19(1-ख))

प्रत्येक नागरिक को स्वतन्त्रतापूवर्क बिना अस्त्र-शस्त्रों के सभा करने का अधिकार है।

(3) संघ अथवा संस्था निर्माण की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 19(1-ग))

नागरिकों को अपने सर्वांगीण विकास अथवा मानव कल्याण हेतु किसी भी संघ या संस्था का निर्माण करने की स्वतन्त्रता है, परन्तु समाज की दृष्टि से विघटनकारी होने पर सरकार ऐसी संस्थाओं का अस्तित्व समाप्त भी कर सकती है।

(4) भ्रमण की स्वतन्त्रता (अनुच्छेद 19(1-घ))

प्रत्येक नागरिक को देश की सीमा के अन्दर स्वतन्त्र रूप से विचरण करने, भ्रमण करने एवं आने-जाने का अधिकर संविधान ने दिया है, किन्तु सार्वजनिक अहित होने की आशंका की स्थिति में राज्य को इस पर प्रतिबन्ध लगाने का अधिकार भी प्राप्त है।

(5) आवास की स्वतन्त्रता (अनुच्छेद 19(1-ङ))

प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छा एवं सुविधानुसार किसी भी स्थान पर रहने की स्वतन्त्रता है। विशेष परिस्थितियों में सरकार इस स्वतन्त्रता को भी मर्यादित कर सकती है।

(6) व्यावसायिक स्वतन्त्रता (अनुच्छेद 19(1-छ))

प्रत्येक व्यक्ति को संविधान द्वारा यह अधिकार प्राप्त है कि वह अपनी इच्छानुसार कोई भी व्यवसाय व्यापार, नौकरी, मजदूरी आदि कर सके।

व्यक्ति के जीवन तथा व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की सुरक्षा (अनुच्छेद 20 से 22तक)

व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में संविधान में व्यवस्था की गयी है। अनुच्छेद 20 में कहा गया है कि किसी व्यक्ति को उस समय तक अपराधी नहीं ठहराया जा सकता, जब तक उसने अपराध के समय किसी कानून का उल्लंघन न किया हो। अनुच्छेद 21 के अनुसार किसी व्यक्ति को उसके प्राण तथा शारीरिक स्वतन्त्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया को छोड़कर अन्य किसी भी प्रकार से वंचित नहीं किया जा सकता।

निवारक निरोध-अनुच्छेद 22

के खण्ड 4 में निवारक निरोध का उल्लेख किया गया है। निवारक निरोध का तात्पर्य वास्तव में किसी प्रकार का अपराध किए जाने के पूर्व और बिना किसी प्रकार की न्यायिक प्रक्रिया के ही किसी को नजरबन्द करना है। निवारक निरोध के अन्तर्गत किसी व्यक्ति को दो माह तक नजरबन्द रखा जा सकता है। इससे अधिक यह अवधि परामर्शदात्री परिषद की सिफारिश पर बढ़ाई जा सकती है।

(C) शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23 तथा 24 ) –

भारतीय संविधान में शोषण के विरुद्ध निम्नलिखित व्यवस्थाएँ की गई है

(1) मानव के क्रय-विक्रय पर रोक

संविधान के अनुच्छेद 23 (i) के अनुसार मानव-व्यापार को अवैध घोषित किया गया है।

(2) बेगार एवं बलपूर्वक श्रम का अन्त

संविधान के अनुच्छेद 23 (ii) के अनुसार व्यक्ति से बेगार कराना या बलपूर्वक कराया गया श्रम कानून के विरुद्ध एवं दण्डनीय अपराध समझा जाएगा।

(3) अवयस्कों का श्रम निषेध

संविधान के अनुच्छेद 24 में यह व्यवस्था की गई है। कि 14 वर्ष से कम आयु के बालकों को कारखाने या अन्य किसी जोखिम भरे काम पर नियुक्ति नहीं किया जा सकता।

(D) धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25 से 28 तक)

संविधान ने प्रत्येक नागरिक को धर्म के सन्दर्भ में पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की है। इस सन्दर्भ में संविधान के अन्तर्गत निम्न व्यवस्थाएं की गई है

(1) किसी भी धर्म को स्वीकार करने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतन्त्रता

अनुच्छेद 25 के अनुसार, व्यक्ति को धर्म के क्षेत्र में इस दृष्टि से पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की गई है कि वह अपनी इच्छानुसार किसी भी धर्म को स्वीकार करे तथा अपने ढंग से अपने इष्टदेव की आराधना करे।

(2) धार्मिक संस्थाओं के प्रबन्ध की स्वतन्त्रता

अनुच्छेद 26 के अनुसार, धार्मिक मामलों के प्रबन्ध की स्वतन्त्रता है।

(3) धार्मिक व्यय कर मुक्त

अनुच्छेद 27 के आधार पर, धार्मिक कार्यों के लिए व्यय की जाने वाली धनराशि को कर से मुक्त किया गया है तथा राज्य किसी भी धार्मिक सम्पत्ति का अधिग्रहण नहीं कर सकता है।

(4) राजकीय संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा निषिद्ध

अनुच्छेद 28 के अनुसार, राजकीय निधि से चलने वाली किसी भी सरकारी अथवा सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थान में किसी प्रकार की धार्मिक शिक्षा प्रदान नहीं की जाएगी।

(E) सांस्कृतिक तथा शिक्षा सम्बन्धी अधिकार (अनुच्छेद 29 तथा 30)

इस अधिकार के अनेक रूप है, जो अलिखित है

(1) भाषा, लिपि एवं संस्कृति की सुरक्षा का अधिकार

प्रत्येक नागरिक को अपनी भाषा, लिपि एवं संस्कृति विशेष (रीति-रिवाज) की रक्षा करने तथा उसकी उन्नति करने का अधिकार है, परन्तु शर्त यह है कि ऐसा करने से किसी अन्य वर्ग की भाषा, संस्कृति एवं लिपि आदि को हानि न पहुँचे।

(2) शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश का अधिकार

सरकारी अथवा सरकारी सहायता प्राप्त विद्यालयों में किसी नागरिक को प्रवेश लेने से जाति, भाषा, धर्म के आधार पर रोका नहीं जा सकता है।

(3) शिक्षण संस्थाओं की स्थापना का अधिकार

अनुच्छेद 30 के अनुसार सभी अल्पसंख्यक वर्गों को शिक्षण संस्थाओं की स्थापना तथा उनके प्रशासन का अधिकार होगा।

(4) राज्य की सहायता (अनुदान)

सरकार सब विद्यालयों को, चाहे वे अल्पसंख्यकों द्वारा स्थापित किए गए हों या बहुसंख्यकों द्वारा, समान अनुदान देगी तथा प्रत्येक को समान रूप से प्रोत्साहित करेगी।

(F) संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)

यह अन्तिम और सबसे महत्वपूर्ण अधिकार है, क्योंकि इसके अस्तित्व पर ही समस्त अधिकारों का अस्तित्व आधारित है। इस अधिकार के द्वारा नागरिक उच्चतम न्यायालय से अपने अधिकारों की सुरक्षा करा सकते हैं। नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए उच्च न्यायालयों तथा उच्चतम न्यायालय द्वारा निम्नलिखित पाँच प्रकार के लेख जारी किए जा सकते हैं

(1) बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus)

इसका अर्थ बन्दी को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करना है। यह उस व्यक्ति की प्रार्थना पर जारी किया जाता है, जो यह समझता है कि उसे अवैधानिक रूप से बन्दी बनाया गया है।

(2) परमादेश (Mandamus)

जब कोई संस्था या अधिकारी अपने कर्त्तव्यों का पालन नहीं करता है जिसके फलस्वरूप किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है. तब न्यायपालिका ‘परमादेश’ द्वारा उन्हें कर्त्तव्यों को पूरा करने का आदेश देती है।

(3) प्रतिषेध (Prohibition)

यह किसी व्यक्ति या संस्था को उस कार्य से रोकने के लिए जारी किया जाता है, जो उसके अधिकार-क्षेत्र के अन्तर्गत नहीं है।

(4) उत्प्रेषण (Certiorari) –

यह लेख उच्च न्यायालयों द्वारा उस समय जारी किया जाता है, जबकि अधीनस्थ न्यायालय का न्यायाधीश किसी ऐसे विवाद की सुनवाई कर रहा है, जो वास्तव में उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर है। इस लेख द्वारा उसके फैसले को रद्द कर दिया जाता है और उस मुकदमें से सम्बन्धित कागजात अधीनस्थ न्यायालय को उच्चतम न्यायालय को भेजने की आज्ञा दी जाती है।

(5) अधिकार पृच्छा ( Quo-warranto)

जब कोई व्यक्ति ऐसे पदाधिकारी के रूप में कार्य करने लगता है जिसके रूप में कार्य करने का उसे वैधानिक रूप से अधिकार नहीं है तो न्यायालय अधिकार पृच्छा रिट के आदेश द्वारा उस व्यक्ति से पूछता है कि वह किस आधार पर इस पद पर कार्य कर रहा है।

सामाजिक मूल्य के प्रकार बताइए।

मौलिक अधिकारों की आलोचना

(1) आलोचकों का कहना है कि हमारे संविधान में मौलिक अधिकारों का उल्लेख तो व्यापक रूप में कर दिया है, परन्तु उन पर प्रतिबन्ध लगाकर उनकी वास्तविक उपयोगिता को समाप्त कर दिया है। एक हाथ से संविधान मौलिक अधिकार देता है, परन्तु प्रतिबन्धों के द्वारा उन्हें । सीमित करके दूसरे हाथ से छीन लेता है।

(2) भारत के संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों को स्थगित और सीमित करने की जो व्यवस्था है, उसे प्रजातन्त्रवाद के अनुरूप नहीं माना जा सकता।

(3) कुछ विद्वानों का मत है कि भारत के संविधान में जहाँ मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है, वहाँ कर्तव्यों की व्यवस्था होना भी अनिवार्य था, किन्तु हमारा संविधान कर्तव्यों के बारे में मौन है परन्तु अब यह व्यवस्था है।

(4) मौलिक अधिकारों में समता के अधिकार का उद्देश्य विषमता का निवारण है, परन्तु आलोचकों का कहना है कि आर्थिक समता के अभाव में सारी समता व्यर्थ है।

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