मौलिक अधिकारों की प्रमुख विशेषताएँ निम्न है
(1) व्यावहारिकता पर आधारित
मौलिक अधिकारों की व्यवस्था व्यवहारिक और वास्तविकता पर आधारित है। भारत आर्थिक संसाधनों की दृष्टि से इतना सम्पन्न नहीं है कि काम पाने, शारीरिक आयोग्यता की स्थिति में राजकीय सहायता प्राप्त करने, निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करने तथा न्यूनतम वेतन प्राप्त करने जैसे अधिकारों की मौलिक अधिकारों के रूप में व्यवस्था कर सके।
(2) अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों का कल्याण-
मौलिक अधिकारों द्वारा अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के हितों के संरक्षण को विशेष महत्व प्रदान किया गया है।
(3) अपवादों और प्रतिबन्धों का औचित्य
किसी अधिकार पर अपवाद और प्रतिबन्ध लगाना उचित ही था क्योंकि नागरिकों को असीमित अधिकार नहीं दिए जा सकते अन्यथा प्रत्येक व्यक्ति मनमाने तरीके से उसका उपयोग करने लगेगा।
(4) लोकतन्त्र की सफलता का आधार
मौलिक अधिकारों के अभाव में लोकतन्त्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती। लोकतन्त्रीय व्यवस्था जनता द्वारा निर्वाचित होती है जिसके लिए सभी नागरिकों को समान अधिकार एवं स्वतन्त्रताएँ होनी चाहिए क्योंकि स्वतन्त्रता और समानता और समानता लोकतन्त्रीय व्यवस्था के दो आधारभूत सिद्धान्त होते है इसीलिए हमारे मौलिक अधिकारों में इन दोनों सिद्धान्तों को स्थान दिया गया है।
(5) शासन की निरंकुशता पर अंकुश
लोकतन्त्रतीय शासन व्यवस्था में संसद या प्रान्तीय व्यवस्थापिकाएँ कानून बनाने का कार्य करती हैं जो नागरिकों को मौलिक अधिकारों को सीमित करने का प्रयास भी कर सकती है, परन्तु संविधान के विरुद्ध बनाए गए ऐसे कानून को, जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सीमित करते हैं, उच्चतम न्यायालय अवैध घोषित कर सकता है। इस प्रकार की व्यवस्था का उद्देश्य शासन की निरंकुशता पर अंकुश लगाना ही है।
(6) राष्ट्र-रक्षा की दृष्टि से निवारक निरोध की व्यवस्था भी ठीक है
जहाँ राज्य की सुरक्षा तथा नागरिकों के अधिकारों के बीच टक्कर होगी वहाँ राज्य की सुरक्षा को महत्व दिया जाना समीचीन प्रतीत होता है।
(7) मौलिक अधिकारों की भाषा परिस्थितियों के अनुकूल
मौलिक अधिकारों के पक्ष में तर्क देते हुए कुछ विद्वानों ने सर आइवर जैनिंग्स के इस मत का कि मौलिक अधिकारों की भाषा ठीक नहीं है तथा ये बहुत विस्तृत हैं, खण्डन किया तथा कहा कि यदि संविधान निर्माण की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में देखें तब न्यायोचित लगता है।
(8) सामाजिक बुराइयों का अन्त
मौलिक अधिकारों के द्वारा सामाजिक बुराइयों का अन्त कर दिया गया है। भारतीय समाज में भयंकर बीमारी के रूप में व्याप्त छुआछूत, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, धर्मवाद और भाषायाद आदि सामाजिक बुराइयों से उत्पन्न भेदभाव को समाप्त करके सामाजिक समानता स्थापित की गयी है।
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इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि व्यक्ति के सर्वांगीण विकास हेतु मौलिक अधिकारों की व्यवस्था आवश्यक ही नहीं वरन् अनिवार्य है। अधिकारों के अभाव में लोकतन्त्रात्मक व्यस्था निराधार है। प्रो. लॉस्की के शब्दों में, “प्रत्येक राज्य की पहचान उसके अधिकारों की व्यवस्था से की जाती है। अधिकार राज्य की आधारशिला है। “
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