Ancient History

मगध राज्य के उत्कर्ष पर संक्षिप्त निबन्ध लिखिए।

मगध राज्य के उत्कर्ष – महात्मा गौतम बुद्ध के समय (600 ई.पू.) में चार प्रसिद्ध राजतन्त्रात्मक (वत्स, अवन्ति, मगध एवं कोशल) राज्य थे। इन सभी राज्यों में मगध को छोड़कर साम्राज्यवादिता की दौड़ में सभी पीछे रह गए और मगध ने इन सबको आत्मसात कर लिया। मगध आधुनिक पटना और गया जिले के क्षेत्र में स्थित महाजनपद था। मगध का विस्तार बिहार के दक्षिण स्थित पटना तथा गया जिलों में था। मगध के उत्तर एवं पश्चिम में क्रमशः गंगा तथा सोन नदियां बहती थीं। दक्षिण में विन्ध्य पर्वत श्रेणियां थीं तथा पूर्व में चम्पा नदी थी। मगध की प्रथम राजधानी गिरिव्रज या राजगृह थी, जो राजगीर के निकट थी। परन्तु आरम्भ में मगध का इतना महत्व नहीं था। ऋग्वेद में हमें कीकट नामक एक क्षेत्र का उल्लेख प्राप्त होता है जहां का राजा प्रमगन्द था। कीकट राज्य को मगध का ही नाम समझा जाना चाहिए। यजुर्वेद से भी मगध के भाटों का उल्लेख प्राप्त होता है। अतः वैदिक काल में मगध अपवित्र क्षेत्र माना जाता था। इसके दो कारण हो सकते हैं- प्रथम यहाँ आर्य राज्य न रहा हो, द्वितीय आर्य होते हुए भी यहाँ के लोग वैदिक संस्कृति एवं वैदिक धर्म न स्वीकार करते रहे हो। मगध साम्राज्य पहले सोलह महाजनपदों में एक था लेकिन बाद में इस महाजनपद का काफी उत्कर्ष हुआ और यह एक विशाल साम्राज्य में बदल गया। इस साम्राज्य के उत्कर्ष में मुख्य रूप से तीन वंश का योगदान था।

बृहद्रथ वंश

प्राग्बुद्ध काल में बृहद्रथ एवं उसका पुत्र जरासन्ध मगध के दो प्रमुख शक्तिशाली राजा हुए। मगध में सर्वप्रथम बृहद्रथ ने राजवंश की स्थापना की थी। इसने राजगृह को राजधानी बनाया। महाभारत तथा पुराणों में भी उल्लेख मिलता है कि मगध के प्रारम्भिक राजवंश की स्थापना बृहद्रथ ने की थी। बृहद्रथ जरासन्ध का पिता एवं वसु का पुत्र था। रामायण के अनुसार वसु ने गिरिव्रज या वसुमति की स्थापना की थी। पुराणों में हमें इस वंश के राजाओं की सूची प्राप्त होती है। इतिहासकारों का ऐसा मानना है कि जब पुलीक या पुणीक ने अपने पुत्र प्रद्योत को अवन्ति या उज्जैन का राजा बनाया तब बृहद्रथ वंश समाप्त हो चुका था। इसलिए यह अनुमान लगाया गया है कि इस वंश का पतन ई.पू. छठीं शताब्दी तक हो चुका था। बृहद्रथ वंश के पश्चात् मगध के कई राजवंश हुए।

डॉ. एच.सी. राय चौधरी के अनुसार “मगध का प्राचीन राजवंशीय इतिहास अन्धकार पूर्ण है। कहीं-कहीं योद्धा और राजनीतिज्ञ दिखायी दे जाते हैं, जिनमें से कुछ तो शायद बिल्कुल ही काल्पनिक थे और कुछ वास्तविक नेता प्रतीत होते हैं। वास्तविक इतिहास हर्यक वंशीय विम्बसार से आरम्भ होता है।”

हर्यक वंश (544 ई.पू.-412 ई.पू.द्ध

छठीं शताब्दी ई.पू. से मगध का महत्व बढ़ता हुआ दिखलायी देता है। इस समय मगध में हर्यक कुल का शासन था। मगध साम्राज्य पर शासन करने वाला यह प्रथम राजवंश था। पुराणों का कथन है कि मगध में बृहद्रथ वंश के पश्चात् शिशुनाग वंश का आविर्भाव हुआ, इस वंश का संस्थापक बिम्बिसार था। अतः दोनों का सम्बन्ध नागवंश से ही है। आधुनिक विद्वान विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर यही स्वीकार करते हैं कि बिम्बिसार शिशुनाग से पूर्व हुआ था और यह हर्यक वंश का ही उत्तराधिकारी था।

बिम्बिसार (544 से 492 ई.पू.)

मगध साम्राज्य की महत्ता का वास्तविक संस्थापक इस वंश का शासक बिम्बिसार माना जाता है। बिम्बिसार एक शक्तिशाली शासक था जिसने अपनी विस्तारवादी नीति के कारण इसे विशाल साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया। उसने कई राजवंशों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किए। कोशल नरेश प्रसेनजित की बहन महाकोशला के साथ उसने विवाह किया था। मद्र देश की राजकुमारी खेमा के साथ भी उसने विवाह किया। वैवाहिक सम्बन्धों के साथ साथ उसने अपने विजय अभियान से कई राज्यों को जीतकर मगध में मिला लिया। लगभग 52 वर्षो तक उसने शासन किया बाद में अपने पुत्र अजातशत्रु द्वारा मार डाला गया।

बिम्बिसार के वंश के सम्बन्ध में दो मत है। बौद्ध साहित्य में उसे हर्यक कुल की सन्तान कहा गया है, परन्तु पुराण में इसे शिशुनाग वंश का बतलाया है। परन्तु शिशुनाग वंश बिम्बिसार के बाद आया। अतः बिम्बिसार का शिशुनाग वंश से कुछ सम्बन्ध नहीं है।

बिम्बिसार के पिता का नाम महिय था। महिय एक सामान्य सामन्त था। बिम्बिसार की आरम्भ में विरुद श्रेणित्र या श्रेणिक की थी। 543 ई.पू. बिम्बिसार ने मगध में हर्यक राजवंश की स्थापना की थी। डॉ. भण्डारकर का कथन है कि वह प्रारम्भ में केवल सेनापति था और पन्द्रह वर्ष की आयु में उसने वाणिज्यों को पराजित करके एक स्वतन्त्र एवं नवीन राजवंश की स्थापना किया। परन्तु यह स्वीकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि वह बहुत अल्पायु का था। पुराणों का कथन है कि इसके पूर्व चार अन्य राजा राज्य कर चुके थे। यदि यह सेनापति था तो राज्य कैसे कर रहा था। नाहर का कथन है, “सम्भवतः जिस प्रकार सेनानी पुष्यमित्र शुंग ने मौर्य वंश के अन्तिम शासक वृहद्रथ का (जिसका वह सेनापति था) वध करके राज्य अपने हाथ में ले लिया उसी प्रकार सम्भव है कि बिम्बिसार ने भी अपने सेनापति के पद पर रहकर ही राज्य को अपने अधीन किसी प्रकार बना लिया हो । किन्त स्वयं महावंश का यह कथन है कि बिम्बिसार 15 वर्ष की आयु में सिंहासनारूढ़ हुआ। यह कथन उपरोक्त अनुमान को मानने में बाधा उपस्थित करता है क्योंकि इतने अल्पायु में कोई वंशानुगत राजा ही हो सकता है। नवीन राजवंश का संस्थापक नहीं हो सकता। “

बिम्बिसार के काल के आरम्भ में मगध की राजनैतिक दशा

जिस समय बिम्बिसार सिंहासनारूढ़ हुआ, उत्तरी भारत में कई छोटे-छोटे राज्य स्थापित थे, जिनमें परस्पर संघर्ष चल रहा था। प्रत्येक शासक अपने राज्य का विस्तार करके सम्पूर्ण उत्तरी भारत पर अधिकार प्राप्त करना चाहता था। इसमें सबसे अधिक महत्वाकांक्षी मगध, कोशल, वत्स और अवन्ति थे। मगध प्रतिद्वन्द्वी राज्यों से घिरा था। इसके पश्चिम में कोशल राज्य था, जिसकी राजधानी श्रावस्ती थी। कोशल की शक्ति बढ़ रही थी। एक दीर्घ संघर्ष के पश्चात् कोशल ने काशी जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था। मगध के पूरब में अंग का राज्य था, जिसकी राजधानी चम्पा थी, मगध को कोशल और अंग दो शक्तिशाली राज्यों से संघर्ष करना था।

वैशाली में लिच्छवि गणराज्य था, जो उत्तरी बिहार में था जो बड़ा विस्तृत और शक्तिशाली था। वह अपनी सम्पन्नता के लिए प्रख्यात था। इसमें अनेक महापुरुष रहते थे। बिम्बिसार जैसे ही राजा बना सर्वप्रथम अंग राज्य को अपने में मिला लिया। दूरदर्शिता पूर्ण विवाह में उसे काशी भी प्राप्त हो गया। उस समय मगध की राजधानी गिखिज थी। बौद्ध ग्रन्थ महावग्ग का कथन है कि उस समय बिम्बिसार के अधीन मगध राज्य में 80,000 ग्राम थे। बुद्धचर्या से उसके राज्य विस्तार का भी ज्ञान प्राप्त होता है। इसके अनुसार इसका राज्य 300 योजन दूर तक विस्तृत था।

बिम्बिसार की नीति

बिम्बिसार बड़ा कुशल कूटनीतिज्ञ था। उसने अपनी शक्ति बढ़ाने और साम्राज्य का विस्तार करने के लिए विवाह की नीति अपनायी। सर्वप्रथम उसने कोशला देवी से विवाह किया। कोशला देवी, कोशल नरेश महाकोशल की पुत्री और प्रसेनजित की बहन थी। इस विवाह का यह परिणाम हुआ कि कोशल और मगध में मित्रता हो गई। महाकोशल ने अपनी पुत्री के विवाह में काशी प्रान्त बिम्बिसार को दहेज में दे दिया। दूसरा विवाह उसने लिच्छवि के राजा चेटक की पुत्री खेलना के साथ करके लिच्छवि गणराज्य की भी मित्रता प्राप्त कर ली। तीसरा विवाह उसने मद्र की राजकुमारी खेमा से किया। इस प्रकार वैवाहिक नीति को उसने अपनी कूटनीति का आधार बनाया और अपनी शक्ति एवं प्रभाव क्षेत्र बढ़ाया। कुछ लेखकों के अनुसार उसके अन्तःपुर में 500 रानियाँ थीं।

जो राज्य उसके वैवाहिक परिधि में नहीं आए, उनसे युद्ध छेड़ दिया, अंग पर आक्रमण करके उसे पराजित कर दिया और सम्पूर्ण अंग के राज्य को अपने साम्राज्य में मिला लिया। उसने और भी कुछ राज्य विजित करके उन्हें अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया। इस प्रकार उसका राज्य अंग से काशी तक फैल गया। राज्य का विस्तार 300 योजन था, जिसमें 80,000 ग्राम थे। काशी के पश्चिम में वत्स राज्य था। काशी के मिल जाने से मगध और वत्स की सीमाएँ मिलती थीं। वत्स पर अवन्ति का राजा ‘चण्ड प्रद्योत दांत लगाए था। गान्धार के राजा से बिम्बिसार के मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे और उसने बिम्बिसार के दरबार में राजदूत भेजा था। परन्तु अवन्ति का गान्धार से बराबर संघर्ष चलता रहा था।

बिम्बिसार का शासन

बिम्बिसार एक कुशल शासक था। उसने अपने कुशलता और योग्यता से मगध को एक बहुत शक्तिशाली राज्य में परिवर्तित कर दिया। बिम्बिसार न केवल एक महान विजेता था बल्कि एक कुशल प्राशासक भी था। उसने अपने सम्पूर्ण शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए अनेक उच्च पदाधिकारियों की नियुक्ति की थी। उसके शासन के प्रमुख पदाधिकारी निम्न थे (1) उपराजा (2) माण्डलिक राजा (3) सेनापति (4) सेनापति महामात्र (5) व्यवहारिक महामात्र तथा (6) ग्राम भोज विम्बिसार का दण्ड विधान बहुत कठोर था। इसमें मृत्यु दण्ड, जबान काटना, पसलियां तोड़ना आदि सम्मिलित है।

बिम्बिसार की मृत्यु

बिम्बिसार ने 52 वर्ष तक राज्य किया, परन्तु पुराणों ने 28 वर्ष ही मृत्युः माना है। ऐसा प्रतीत होता है कि सिंहासन प्राप्ति के लिए उसके पुत्र दर्शक और अजातशत्रु में संघर्ष चल रहा था। अन्त में अजातशत्रु ने अपने पिता बिम्बिसार की हत्या कर दी थी और दर्शक को उपराजा के पद से पदच्युत कर दिया तथा स्वयं सिंहासनाधिकारी बन गया।

अजातशत्रु (492-460 ई.पू.)

बिम्बिसार के बाद अजातशत्रु मगध का शासक हुआ अपने पिता की ही भाँति यह भी योग्य एवं महात्वाकांक्षी शासक था। अजातशत्रु का पहले का नाम कुणिक था। वह अंग का शासक नियुक्त किया गया। वहीं उसने शासकीय कार्यों में क्षमता प्राप्त की, और बुद्ध के चचेरे भाई देवदन के उकसाने से उसने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह किया, और पिता की हत्या करके बलात् सिंहासन पर बैठा। उसका दर्शक से युद्ध भी हुआ, परन्तु दर्शक परास्त हुआ। अजातशत्रु लगभग 492 ई.पू. में गद्दी पर बैठा था।

‘प्रसेनजित’ से युद्ध

पिता की हत्या का परिणाम यह हुआ कि प्रसेनजित की बहन कोशल देवी विधवा हो गई और उसके पुत्र को सिंहासन न प्राप्त होकर अजातशत्रु को मिल गया, इससे कोशल का राजा क्रुद्ध हो गया और दहेज में दी हुई काशी प्रान्त को फिर से लेने के लिए तत्पर हो गया। उसके समय में मगध और कोशल के बीच संघर्ष चला था। अजातशत्रु बहुत ही साम्राज्यवादी शासक था। वह काशी छोड़ने के लिए तत्पर न था अतः मगध और कोशल में बुद्ध होना स्वाभाविक हो गया। अजातशत्रु पराजित हुआ और उसे बन्दी बना लिया गया। कहा जाता है कि उसकी यह पराजय भी जय में परिवर्तित हो गई। अजातशत्रु का बन्दीगृह में ही प्रसेनजित की पुत्री वाजिरा से प्रेम सम्बन्ध हो गया। जब यह बात प्रसेनजित को पता चली तो उसने अजातशत्रु के साथ वाजिरा का विवाह कर दिया और पुनः काशी राज्य को दहेज में दे दिया। अतः अजातशत्रु ने अपने समय में काशी के प्रान्त को मगध में मिला लिया।

‘वज्जि संघ’ पर विजय

अजातशत्रु की सबसे बड़ी विजय ‘वज्जि संघ के विरुद्ध थी। कौशल से फैसला करने के पश्चात् अजातशत्रु की निगाहें वज्जि संघ पर पड़ी। अजातशत्रु ने गंगा के उस पार वाणिज्य संघ के ऊपर आक्रमण कर दिया। परन्तु गणराष्ट्र की शक्ति बड़ी प्रबल थी। अजातशत्रु ने मन्त्रियों के मध्य आपसी फूट डालकर उनसे गुप्त बातें जान लीं। अन्त में वज्जिसंघ पर आक्रमण करने के लिए अजातशत्रु ने पाटलिपुत्र के पास एक दुर्ग का निर्माण कराया। एक ओर वज्जिसंघ की नौ शाखा और दूसरी ओर अजाशत्रु था। सोलह वर्ष तक निरन्तर युद्ध होता रहा। अन्त में अजातशत्रु की ही विजय हुई और उसका मगध राज्य हिमालय की तलहटी तक बढ़ गया।

इस युद्ध का कारण यह माना जाता है कि गंगा नदी के किनारे एक खान पर वज्जि और मगध का बराबर का अधिकार था। अजातशत्रु के समय वज्जियों ने इस पर पूर्ण अधिकार चाहा जिसके कारण यह युद्ध हुआ। जबकि जैन ग्रन्थों के अनुसार लिच्छवि राजकुमारी खेलना के दो पुत्रों के अपने नाना के पास भाग जाने के कारण यह संघर्ष हुआ। लेकिन पहला कारण अधिक उपयुक्त प्रतीत होता था। ऐसा प्रतीत होता है कि मल्लों और तिछवियों ने मिलकर अजातशत्रु के विरुद्ध एक मोर्चों बनाया फिर भी वे उसे परास्त नहीं कर सके और अजातशत्रु ने दोनों को पराजित कर दिया। इस युद्ध के निम्नलिखित कारण थे

(1) अजातशत्रु की साम्राज्यवादी नीति और साम्राज्य विस्तार की इच्छा। वह यज्जि रूप उखाड़ फेंकने पर तुला हुआ था।

(2) वज्जि संघ में आठ गणराज्य थे। इनमें लिच्छवि गणराज्य भी था। लिच्छवि राजकुमारी खेलना का विवाह बिम्बिसार से हुआ था। खेलना के दो पुत्र थे- हल्ल और बेहल्ल। इन्हें बिम्बिसार ने उपहार में एक बहुमूल्य हार और हाथी दिया था। अजातशत्रु ने इनसे उपहार मांगे। इन्होंने इन्कार कर दिया और अपने नाना चेटक के पास चले गए। इससे रूष्ट होकर अजातशत्रु ने वैशाली पर आक्रमण कर दिया।

(3) मगध और वज्जि संघ में बीच के गंगा के पाटों और उभयनिष्ट खानों के प्रयोग हेतु भी झगड़ा चला आ रहा था। संघ के लोग मगध को इसका प्रयोग नहीं करने देते थे। अजातशत्रु का मन्त्री वर्षकार था। वह बड़ा कूटनीतिज्ञ था। कहा जाता है कि वर्षकार चाणक्य का अग्रगामी था। अजातशत्रु ने पहले वर्षकार को बुद्ध के पास भेजा, और उनके विचार मालूम किए। बुद्ध ने वज्जि संघ की प्रशंसा की, इसका लाभ वर्षकार ने उठाया। बुद्ध ने कहा था कि वज्जि संघ में पूर्णतः मतैक्य रहता है। अतः वर्षकार ने वहाँ फूट उत्पन्न करने की योजना बनायी। गुप्तचरों को भेजकर उनमें परस्पर तीव्र मतभेद और संघर्ष उत्पन्न कर दिया, फिर आक्रमण कर दिया।

इधर चेटक ने सोलह राज्यों का आवाहन करके संयुक्त मंच बनाया, परन्तु अन्त में विजय अजातशत्रु की रही। आजीवक सम्प्रदाय के प्रधान मंखालीगोम्साल इसी युद्ध में मारे गए। यह युद्ध सोलह वर्ष चलता रहा। अजातशत्रु ने वत्स के साथ अच्छा सम्बन्ध रखा और वहाँ के शासक उदयन के साथ अपनी पुत्री पद्मावती का विवाह कर दिया।

अजातशत्रु ने कुल 32 वर्षों तक शासन किया। अजातशत्रु अपने पिता के समान ही धर्म सहिष्णु राजा था। प्रारम्भ में वह जैन मतावलम्बी था, परन्तु बाद में बौद्ध धर्म से अधिक प्रभावित हुआ अजातशत्रु एक सहिष्णु धार्मिक नीति का शासक था। उसने जैन और बौद्ध धर्मों को समान रूप से संरक्षण प्रदान किया। उसी के जीवनकाल में बुद्ध और महावीर को निर्वाण प्राप्त हुआ। जब भगवान बुद्ध का निर्वाण हुआ तो अजातशत्रु को बुद्ध की भस्म मिली थी, जिस पर उसने राजगृह में एक स्तूप बनाया। अजातशत्रु ने ही बौद्ध वचनों का संग्रह करने के लिए राजगृह में प्रथम बौद्ध संगीति आयोजित की थी। परन्तु दुर्भाग्यवश वह अपने पुत्र उदायिन के षड्यन्त्र से मार डाला गया। अजातशत्रु के समय मगध राज्य उत्तरी भारत में सबसे अधिक विशाल एवं शक्तिशाली राज्य हो गया।

उदायिन (460-444 ई.पू.)

इस वंश का अन्तिम महत्वपूर्ण शासक उदायिन या उदयभद्र था। वह अजातशत्रु के पश्चात् सिंहासनारूढ़ हुआ। जैन ग्रन्थों में उसे अजातशत्रु की पत्नी पद्मावती से उत्पन्न बताया गया है। बौद्ध साहित्य से विदित होता है, कि उदायिन ने धोखे से अपने पिता की हत्या कर दी। कुछ स्थानों पर उदायिन का नाम उदयभद्र अथवा उदायिन मिलता है। उसने अवन्ति पर आक्रमण करके उसे अपने राज्य में मिला लिया। अतः मगध का साम्राज्य पूर्वी समुद्र तट से लेकर पश्चिमी समुद्र तक फैल गया। उसने पाटलिपुत्र राजधानी का निर्माण किया और पाटलिपुत्र नगर को बड़े ही शृंगारिक ढंग से बसाया था। यहीं से उसका व्यापार दूर-दूर तक होता था। उदायिन के बाद इस वंश में कोई महत्वपूर्ण शासक नहीं हुआ। उदायिन के पश्चात् अन्य सम्राटों ने साम्राज्य को अन्तिम दशा पर पहुँचा दिया। उदायिन के तीन पुत्र थे- अनरूद्ध, मुण्ड और नागदासक। तीनों ने क्रमशः उसके राजवंश में शासन किया, परन्तु बाद के सम्राटों को प्रजा प्रेम नहीं प्राप्त था, इस कारण वह दुर्बल हो गए। दिन-प्रतिदिन नए-नए षड्यन्त्र और हत्याएं होने लगीं। जनता पिता के हत्यारे राजा से घृणा करने लगी, जिसके कारण नागवंश की दूसरी शाखा ने मगध पर अपना राज्य स्थापित कर लिया।

शिशुनाग वंश (412 ई०पू०-344 ई.पू.)

शिशुनाग (412-394 ई.पू. तक)- इस वंश के प्रथम शासक शिशुनाग के नाम पर इसे शिशु नाग वंश कहा जाता है। हर्यक वंश में विभिन्न हत्याओं के कारण मगध के मन्त्रियों और प्रजा ने शिशुनाग को बुलाकर मगध का राजा बनाया। शिशुनाग की सबसे महत्वपूर्ण सफलता अवन्ति राज्य पर उसकी विजय थी। शिशुनाग बहुत ही शक्तिशाली राजा था। सर्वप्रथम उसने अवन्ति पर आक्रमण किया और प्रद्योत वंश को समाप्त करके उसे अपने राज्य में मिला लिया। उसने अपनी राजधानी पाटलिपुत्र से राजगृह कर ली। इस विजय के बाद शिशुनाग का वत्सराज के ऊपर भी अधिकार हो गया। राजबली पाण्डेय के अनुसार उसकी राजधानी वैशाली थी और बजि भूमि के

पश्चिमोत्तर का मल्ल राष्ट्र अजातशत्रु के समय में ही मगध साम्राज्य में मिला लिया गया था। शिशुनाग की विजयों के कारण मगध विशाल साम्राज्य में बदल गया। इसके बाद उसने कोशल पर भी अधिकार किया। 18 वर्ष तक शासन करने के पश्चात् उसकी मृत्यु हो गई। कालाशोक या काकवर्ण (लगभग 394-366 ई.पू.) शिशुनाग के पुत्र का नाम कालाशोक अथवा काकवर्ण था जो शिशुनाग का उत्तराधिकारी हुआ। उसने अट्ठाइस वर्ष राज्य किया। उसके

राज्य की दो महत्वपूर्ण घटनाएँ हैं

(1) उसने वैशाली में द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया।

(2) पाटलिपुत्र का सामरिक एवं व्यापारिक महत्व था। उसने फिर राजगृह को छोड़कर पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बना ली। बाणभट्ट के अनुसार राजधानी के समीप घूमते हुए किसी व्यक्ति ने छूरा भोंक कर इसकी हत्या कर दी। महाबोधि वंश के अनुसार कालाशोक के दस पुत्र थे

  1. भद्रसेन
  2. कोरण्ड वर्ण,
  3. मंगुर,
  4. सर्वश,
  5. जालिक,
  6. उमक,
  7. संजय,
  8. कोख्य,
  9. नन्दिवर्धन, और
  10. पंचमक।

पुराणों में केवल नन्दिवर्धन का ही नाम मिलता है, जो बहुत ही व्यभिचारी था। उसने अपना विवाह शूद्र स्त्री से किया और उससे उत्पन्न पुत्र महापद्मनन्द ने शिशुनाग वंश को नष्ट करके, नन्द वंश की स्थापना की। काकवर्ण के पश्चात् 22 वर्ष तक और शिशुनाग वंश के अन्य राजा मगध में। शासन करते रहे।

परमार शासन व्यवस्था के बारे में आप क्या जानते हैं?

निष्कर्ष उपरोक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि मगध का उत्कर्ष वृहद्रथ से लेकर नंदवंशीय शासकों तक क्रमशः होता रहा। मगध के विस्तार में बिम्बिसार और अजातशत्रु का महान योगदान था। इसके योगदान के कारण ही आधुनिक पटना और गया जिले का छोटा सा क्षेत्र विशाल मगध साम्राज्य में परिवर्तित हो गया।

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