मगध के परवर्ती गुप्तों का इतिहास संक्षेप में लिखिए।

मगध के परवर्ती गुप्तों का इतिहास – परवर्ती गुप्त वंश की स्थापना कृष्ण गुप्त ने की थी। उसने 510 ई. से 525 ई. ने तक शासन किया था। अफसढ़ अभिलेख में कृष्ण गुप्त को असंख्य शत्रुओं का विजेता कहा गया है। उसकी सेना में सहस्वों हाथी थे तथा यह विद्वानों द्वारा सय घिरा रहता था किन्तु उसके द्वारा पराजित शत्रुओं के विषय में हमें ज्ञात नहीं है।

चौधरी का विचार है कि उसने यशोधर्मन के विरुद्ध युद्ध किया था, परन्तु यह निष्कर्ष संदिग्ध है। उसका उत्तराधिकारी हर्षगुप्त हुआ। उसे वीर योद्धा कहा गया है जिसने भयंकर युद्धों में भाग लेकर अपने शत्रुओं का संहार किया था। सम्भवतः वह यशोधर्मन का समकालीन था, किन्तु हम यह नहीं कह सकते कि दोनों में कोई युद्ध हुआ अथवा नहीं। उसकी बहन हर्षगुप्ता का विवाह मौखरि नरेश आदित्यवर्मा के साथ हुआ था। हर्षगुप्त का पुत्र तथा उत्तराधिकारी जीवितगुप्त राजाओं में शिरनौर (क्षितीशचूडामणि) कहा गया है जो अपने शत्रुओं के लिए महाज्तर के समान था। उसने समुद्र तट तथा हिमालय के शत्रुओं को जीता था। किन्तु ये विवरण अतिरंजित है। उत्तरगुप्त वंश के प्रारम्भिक तीन राजाओं ने सम्भवतः 554-55 ई. तक शासन किया। वे सभी चक्रवर्ती गुप्तों की अधीनता स्वीकार करते थे। तीन पीढ़ियों तक उनका मौखरि वंश से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रहा जो इसके बाद शत्रुता में परिणत हो गया।

कुमारगुप्त

यह जीवित गुप्त का पुत्र था। इसी के शासनकाल में यह राजवंश सामन्त स्थिति से उठकर स्वतन्त्र राज्य के रूप में स्थापित हुआ। कुमारगुप्त एक शक्तिशाली राजा या जिसने न महाराजाधिराज को उपाधि ग्रहण की। अफसद के लेख में उसकी शक्ति की प्रशंसा करते हुए उसे। वीरों में अग्रगण्य (अख्यातशक्ति- माजिषपुर सर) कहा गया है।

उसका प्रतिद्वन्द्वी मौखरि नरेश ईशानवर्मा समान रूप से महत्वाकांक्षी था। ऐसी स्थिति में दोनों में संघर्ष अवश्यम्भावी हो गया। अफसढ़ लेख दोनों के बीच युद्ध का चित्रण काव्यात्मक ढंग से प्रस्तुत करता है जो इस प्रकार है- ‘ईशानवर्मा’ की ओर सागर के समान विकराल सेना को कुमार गुप्त ने युद्ध क्षेत्र में उसी तरह मय डाला जिस तरह देवासुर संग्राम में मन्दराचल पर्वत द्वारा सागर मया गया था। इससे स्पष्ट है कि युद्ध में कुमारगुप्त विजयी रहा। इस विजय के फलस्वरूप कुमारगुप्त का साम्राज्य गंगा नदी के किनारे पश्चिम में प्रयाग तक विस्तृत हो गया। अफसढ़ लेख से पता चलता है कि उसने प्रयाग में अपना प्राणान्त किया। एन राय तथा आर. के. मुखर्जी का विचार है कि इस युद्ध में कुमारगुप्त की ही पराजय हुई तथा ग्लानिवेश टउने प्रयाग में जाकर आत्महत्या कर लिया। किन्तु इस प्रकार का निष्कर्ष लेख की भावना से मेल नहीं खाता। के.सी. चट्टोपाध्याय ने प्राचीन ग्रन्थों से उदाहरण देते हुए बताया है कि प्रयाग में पुण्यार्जन हेतु प्राणान्त करने की प्रथा प्रचलित थी। धार्मिक दृष्टि से यह कार्य अत्यन्त पवित्र माना जाता था। भंग, गांगेयदेव जैसे शासकों ने इसी विधि से अपना प्राणान्त किया था। हुएनसांग भी इस प्रथा का उल्लेख करता है। अतः यही मानना समीचीन लगता है कि कुमारगुप्त ने प्रयाग में आकर स्वर्ण प्राप्ति की लालसा से ही अपने जीवन का त्याग किया था, न कि आत्मग्लानि के कारण।

दामोदरगुप्त

दामोदर गुप्त अपने पिता कुमार गुप्त के बाद शासक हुआ। उसका प्रबल प्रतिद्वन्द्वी मौखरि नरेश सर्ववर्मा था। अपने पिता की पराजय का बदला लेने के लिए उसने दामोदरगुप्त पर आक्रमण किया तथा युद्ध में उसे मार डाला। अफसद लेख में कहा गया है कि दामोदरगुप्त ने युद्ध क्षेत्र में हूणों को परास्त करने वाली मौखरि नरेश की सेना के मदमस्त चालों वाले हाथियों की घटा को विघटित कर दिया। वह मूर्छित हो उठा तथा फिर सुर-बन्धुओं- जिन्होंने उसे पति के रूप में चुन लिया के पाणिपंकज के सुखद स्पर्श से जाग उठा। यहाँ मौखरि नरेश का नाम नहीं मिलता किन्तु इससे तात्पर्य सर्ववर्मा से ही है जो दामोदरगुप्त का समकालीन था। कुछ विद्वानों का विचार है कि इस लेख के विवरण से दामोदरगुप्त की मृत्यु नहीं सूचित होती वरन् उसका केवल युद्ध क्षेत्र में मूर्च्छित होना ही सूचित होता है। वास्तविकता जो भी हो. दामोदरगुप्त पराजित हुआ तथा इस पराजय के फलस्वरूप मगध उत्तरगुप्तों के अधिकार से निकल कर मौखरियों के हाथ में चला गया। मगध के ऊपर सर्ववर्मा के अधिकार की पुष्टि देववार्क लेख से भी हो जाती है। अब उत्तरगुप्तों का राज्य केवल मालवा तथा उसके आस-पास ही सीमित रहा। यह युद्ध 582 ई. के आस-पास लड़ा गया होगा।

दामोदरगुप्त ब्राह्मण धर्म का पोषक तथा उदार शासक था। अफसढ़ के लेख में कहा गया है। कि उसने अनेक ब्राह्मण कन्याओं का विवाह सम्पन्न करवाया तथा एक सौ ग्राम (अग्रहार) ब्राह्मणों को दान में दिया था।

महासेनगुप्त

दामोदर गुप्त के बाद उसका पुत्र महासेनगुप्त शासक बना। अफसढ़ लेख में उसकी शक्ति की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि वह वीरों में अग्रणी था तथा उनके समाज में सर्वश्रेष्ठ पराक्रमी होने का यश उसने अर्जित किया था (सर्ववीरमामाजेषु लेभे यो धुरि वीरताम)।

लेख से पता चलता है कि उसने असम नरेश सुस्थितवर्मन को लौहित्य नदी (ब्रह्मपुत्र) के तट पर पराजित किया जिससे उसका यश नदी के दोनों तटों पर गाया जाता था। यह पराजित नरेश हर्ष के मित्र भास्करवर्मा का पिता था। सुधाकर चट्टोपाध्याय का विचार है कि इस समय महासेनगुप्त मोखरि नरेश अवन्तिवर्मा की अधीनता स्वीकार करते थे। इसी कारण महासेनगुप्त को महाराजाधिराज नहीं कहा गया है। उसने असम की विजय अपने सम्राट अवन्ति धर्मा की ओर से ही किया था। मधुवन लेख तथा सोनपत मुद्दालेख से पता चलता है कि प्रभाकरवर्धन की माता महासेनगुप्त की बहन थी। रायचौधरी का विचार है कि महासेनगुप्त ने मौखरियों को बढ़ती हुई शक्ति से भयभीत होकर ही पुष्यभूति वंश से सम्बन्ध स्थापित किया होगा।

महासेनगुप्त के अन्तिम दिनों के विषय में हमें ज्ञात नहीं है। बी. पी. सिन्हा अभोना लेख के आधार पर यह निष्कर्ष निकालते हैं कि कलचुरि नरेश शंकरगण के कलचुरि संवत् 347 (595 ई.) में महासेनगुप्त पर आक्रमण कर मालवा पर अधिकार कर लिया। महासेनगुप्त सम्भवतः इस युद्ध में लड़ता हुआ मार डाला गया। किन्तु मालवा के ऊपर कलचुरि शासन स्थायी नहीं रहा। शंकरगण के उत्तराधिकारी बुद्धराज को चालुक्य नरेश मंगलश ने पराजित किया जिससे कलचुरियों की महत्वाकांक्षा पर पानी फिर गया।

देवगुप्त

जिन दिनों कलर, चालुक्यों के साथ संघर्ष में उलझे हुए थे, मालवा में देवगुण ने अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया। मधुबन तथा बासखेड़ा लेखों में देवगुप्त का उल्लेख मिलता है। देवगुप्त सम्भवतः महासेन गुप्त का ज्येष्ठ पुत्र था, जो उसकी पहली पत्नी से उत्पन्न हुआ था। महासेनगुप्त के दो छोटे पुत्र (दूसरी पत्नी से उत्पन्न) कुमारगुप्त तथा माधवगुप्त थे। सौतेला भाई होने के कारण देवगुप्त इन दोनों से ईर्ष्या करता था तथा महासेनगुप्त की वृद्धावस्था का लाभ उठाकर मालवा का राज्य हवियाना चाहए था। ऐसा लगता है कि अपने दोनों पुत्रों की सुरक्षा के लिए, महासेनगुप्त ने उन्हें प्रभाकरवर्द्धन के पास भेज दिया। महासेनगुप्त की मृत्यु होते ही देवगुप्त ने मालवा पर अधिकार कर लिया होगा। इस प्रकार यह वर्धनों का स्वाभाविक रूप से शत्रु बन गया। अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए देवगुप्त ने गौड़ नरेश शशांक के साथ मित्रता कर ली। इसके पूर्व कि प्रभाकरवर्द्धन उसे कोई दण्ड दे सके, स्वयं उसी की मृत्यु हो गई और देवगुप्त का मार्ग निष्कंटक हो गया। उसने शशांक की सहायता पाकर कन्नौज के मौखरि राज्य पर आक्रमण कर दिया। गृहवर्मा की हत्या कर दी गई तथा राज्यश्री को चीरांगना की भाँति कन्नीज के कारागार में डाल दिया गया। इस प्रकार देवगुप्त ने कन्नौज पर अधिकार कर लिया। परन्तु उसकी सफलता क्षणिक रही। प्रभाकरवर्धन के बड़े पुत्र राज्यवर्धन ने एक बड़ी सेना के साथ उस पर आक्रमण किया तथा उसे मार डाला।

माधवगुप्त

माधवगुप्त हर्षवर्धन के शासन काल तक मगध में शासन करता रहा। वह हर्ष का घनिष्ठ मित्र एवं विश्वासपात्र था। अफसढ़ लेख से पता चलता है कि उसने अनेक शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी। यह विजय उसने अपने सम्राट हर्ष की ओर से की थी। हर्षचरित से पता चलता है कि जब हर्ष शशांक को दण्डित करने के लिए गया तो माधवगुप्त भी उसके साथ था। हर्ष की मृत्यु के समय (647 ई.) तक वह मगध में उसके सामन्त के रूप में शासन करता रहा। हर्ष की मृत्यु के बाद उत्तर भारत में पुनः अराजकता फैली तथा उसने भी अपनी स्वतन्त्र सत्ता घोषित कर दी। उसने मगध में शान्तिपूर्वक शासन किया तथा अपने समकालीन शक्तियों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाए रखा। उसने 650 ई. तक राज्य किया।

आदित्य सेन

माधवगुप्त की मृत्योपरान्त उसका पुत्र आदित्य सेन मगध का शासक बना। यह एक वीर, पराक्रमी एवं कुशल प्रशासक था। अफसढ़ तथा शाहपुर के लेखों से मगध पर उसका आधिपत्य प्रमाणित होता है। मन्दरपर्वत का लेख अंग क्षेत्र पर उसके अधिकार की सूचना देता है। अपनी विजयों के फलस्वरूप उसने ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज’ की उपाधि ग्रहण की। अफस लेख में कहा गया है कि वह इस जगत की रक्षा करता है तथा उसके श्वेतक्षत्र द्वारा सम्पूर्ण पृथ्वी सदा ढंकी रहती है।” मन्दरलेख से पता चलता है कि उसने तीन अश्वमेध यज्ञ किए। मन्दर पर्वत पर आदित्यसेन का एक और शिलालेख था जिसे कालान्तर में वहाँ से हटा दिया गया तथा संप्रति वह पाषाणखण्ड, जिस पर लेख उत्कीर्ण है, वैद्यनाथ के प्रसिद्ध मन्दिर की ड्योढ़ी में लगाया गया है। यह आदित्यसेन की विजयों का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत करता है। इससे पता चलता है कि आदित्यसेन ने चोल राज्य की विजय की थी। किन्तु यह संदिग्ध है। सम्भव है वह चोल राज्य में तीर्थयात्रा पर गया हो जहाँ उसने दक्षिण के राजाओं से उपहार प्राप्त किए हों। पूर्व की ओर बंगाल की खाड़ी तथा ब्रह्मपुत्र नदी तक उसका अधिकार क्षेत्र विस्तृत था।

जिगूरत क्या है?

पश्चिम की ओर आदित्यसेन के राज्य में उत्तर प्रदेश के आगरा और अवध का विस्तृत भू-भाग सम्मिलित था। इस प्रकार हर्ष की मृत्यु के बाद मगध के अन्तर्गत एक विस्तृत साम्राज्य स्थापित करने वाला शासक आदित्यसेन प्रथम था। उसने अपने पूर्वगामी गुप्त सम्राटों की परम्परा को पुनर्जीवित किया। उसके शासन काल (लगभग 655-675 ई.) में चीनी राजदूत वांग हुएन-त्से ने दो बार भारत की यात्रा की तथा आदित्यसेन ने उसकी हर सम्भव सहायता की। कोरिया के बौद्ध यात्री हुई-लुन के अनुसार उसने बोधगया में एक बौद्ध-मन्दिर बनवाया था। देववनांक लेख में आदित्यसेन को परमभागवत कहा गया है जो उसके वैष्णव होने का प्रमाण है। यही उपाधि चक्रवर्ती गुप्त शासकों ने भी ग्रहण की थी। अफसढ़ लेख के अनुसार उसने विष्णुमन्दिर का निर्माण करवाया था किन्तु स्वयं वैष्णव होते हुए भी वह राजा के रूप में अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु था। आदित्यसेन ने 675 ई. के लगभग तक शासन किया।

परवर्ती गुप्तों का पतन

आदित्यसेन परवर्ती गुप्तों का अन्तिम महान शासक था। उसके पश्चात् उसके उत्तराधिकारी इतने योग्य नहीं हुए कि वे अपने राज्य की बागडोर सम्भाल सकें। उसका पुत्र अवश्य वीर एवं पराक्रमी था। उसने भी ‘परम भट्टारक महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की थी । चालुक्य लेखों में उसे सकलोत्तरपथनाय कहा गया है। उसके शासन काल का कोई लेख नहीं मिलता। इसके बाद विष्णुगुप्त तथा फिर जीवितगुप्त द्वितीय राजा बने इन दोनों के लिए भी परमभट्टारक महाराजाधिराज’ की उपाधियों का प्रयोग मिलता है। किन्तु उनके काल की राजनैतिक घटनाओं के विषय में हमें ज्ञात नहीं है। फिर भी हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि जीवितगुप्त द्वितीय के काल तक (लगभग 725 ई.) आदित्यसेन द्वारा निर्मित साम्राज्य सुरक्षित बना रहा। देवबनांक से जीवितगुप्त का ही लेख मिलता है। वह इस वंश का अन्तिम महान शासक था। बी. पी. सिन्हा के मतानुसार जीवितगुप्त द्वित्तीय का • अन्त कन्नौज नरेश यशोवर्मन ने किया। वाक्यपतिराजकृत गौडवहाँ से पता चलता है कि यशोवर्मन ने पूर्वी भारत पर आक्रमण कर मगध के शासक की हत्या की थी। इस मगध नरेश की पहचान जीवितगुप्त द्वितीय के साथ की जानी चाहिए। जीवितगुप्त के साथ ही उत्तरगुप्तों के मगध साम्राज्य का अन्त हुआ तथा गंगा घाटी में पुनः अराजकता और अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो गई।

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