मध्ययुगीन चर्च राज्य संघर्ष पर टिप्पणी लिखिए।

मध्ययुगीन चर्च राज्य संघर्ष – मध्यकाल में हमें जो भी राजनीतिक चिन्तन दिखाई देता है वह चर्च और राज्य के मध्य संघर्षो के परिणाम स्वरूप ही दिखाई देता है। इसीलिए डेनिंग ने इस काल को अराजनीतिक युग कहा है। इस कालावधि में धर्म समाज एवं राज्य के लिए एक आवश्यक तत्व था। धर्म का समस्त दायित्व चर्च एवं पोप के पास संरक्षित था, जिसके अधीन राजा को भी रहना पड़ता था। फलत: सत्ता का केन्द्रीयकरण चर्च और राजा में से किसके पास होनी चाहिए इस बात को लेकर अक्सर दोनों में संघर्ष होता रहता था।

इस युग के कुछ विचारक यह मानते थे कि सत्ता का केन्द्रीयकरण पोप के हाथों में होनी चाहिए तो कुछ विचारकों ने सत्ता का केन्द्रीयकरण राजा के हाथों में होने की बात कही। वस्तुतः मध्य युग में चर्च सत्ता का एक सर्वोच्च केन्द्र था। राज्य की सत्ता भी उसके अधीन और नियन्त्रण में थी। परन्तु इस युग के राजदर्शन की एक प्रमुख विशेषता राजा के दैवीय अधिकार का सिद्धान्त था जिसके अनुसार राजाओं का राज्य करने का अधिकार पैत्रिक तथा दैवीय माना जाता था। “ईश्वर के प्रतिनिधि” के रूप में होने के कारण राज्य में राजा ही सर्वप्रमुख है, चर्च नहीं, क्योंकि उसे राज्य करने का अधिकार ईश्वर से प्राप्त हुआ है।

केन्द्र राज्य विधायी सम्बन्ध ।

इसीलिए पृथ्वी पर रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति का धर्म है कि वह राजा की आज्ञा का पालन करे। इस विषय में मैक्लिवेन का कहना है कि “मध्य युगीन राजा मद्यपि पूर्ण सत्ता का स्वामी और अधिकारी था और उसके प्रयोग के लिए किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं था फिर भी उसके अधिकार सीमित थे। वह एक निश्चित क्षेत्र में पूर्ण अधिकार रखता था, किन्तु उसका अतिक्रमण करते ही अत्याचारी शासक बन जाता था और प्रजा को उसके विरुद्ध विद्रोह का पूर्ण अधिकार प्राप्त हो जाता था। ”

इस प्रकार सम्पूर्ण मध्य युग में सत्ता के केन्द्रीयकरण के नाम पर चर्च और राज्य / राजा में संघर्ष होता रहा।

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