मध्य क्षेत्रीय सिद्धान्त (मर्टन) – मध्य अभिसीमा के सिद्धान्त न तो छोटे-मोटे अध्ययनों या शोध कार्यों के आधार पर निकाले गये सादे व सरल निष्कर्ष है और न ही बहुत विस्तृत पैमाने में समस्त व्यवस्थित प्रवासों द्वारा प्रतिपादित समन्वित व पारित सिद्धान्त ही है, अपितु इन दोनों के बीच की स्थिति है।
इस सिद्धान्त के प्रतिपादन का श्रेय श्री राबर्ट के० मर्टन को है। वे इस सिद्धान्त के जनक माने जाते हैं। मर्टन के अनुसार मध्य अभिसीमा के सिद्धांत का अभिप्राय उस अध्ययन प्रणाली से है जो न बहुत विस्तृत होती है और न लघु वरन् इन दोनों अध्ययन पद्धतियों के बीच की स्थिति है। इसको और स्पष्ट करते हुए मर्टन ने इसकी परिभाषा इन शब्दों में की है-“मध्य अभिसीमा के सिद्धान्त ये सिद्धान्त हैं, जो कि एक ओर दिन-प्रतिदिन के शोध में प्रचूर मात्रा में प्रकट होने वाले लघु किन्तु आवश्यक कार्य निर्वाही प्राकल्पनाओं एवं दूसरी ओर सामाजिक व्यवहार, सामाजिक संगठन व सामाजिक परिवर्तन में समस्त निरीक्षण समानताओं की व्याख्या करने वाले एक समन्वित सिद्धान्त को विकसित करने हेतु सब को सम्मिलित करते हुए किये गये व्यवस्थित प्रयत्नों के बीच में स्थित होते हैं।
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इससे स्पष्ट होता है कि मध्य अभिसीमा के सिद्धान्त मध्य में स्थित सिद्धान्त हैं। ये न वृहत् सिद्धान्त हैं न लघु वरन् मध्य स्थिति वाले सिद्धान्त हैं। इन सिद्धान्तों को प्रतिपादित करने वाले विद्वान् मध्य मार्ग को अपनाते हैं। मर्टन अधिकांश समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों को सामान्य श्रेणी में रखतें है इन्हें भी वह मध्य क्षेत्रीय सिद्धान्त कहते है।
मर्टन ने लिखा है कि समाजशास्त्र में मध्य अभिसीमा के सिद्धान्तों का मुख्यतः उपयोग प्रयोगसिद्ध अनुसंधानों के मार्गदर्शन के लिए किया जाता है। इस प्रकार ये सिद्धान्त एक ओर सामाजिक व्यवहार, संगठन व परिवर्तन की विशिष्ट श्रेणियों से काफी दूर जो कुछ निरीक्षण किया गया है, उसे बतलाने के लिए सामाजिक व्यवस्थाओं से सम्बन्धित सामान्य सिद्धान्तों एवं दूसरी ओर जिनका सामान्यीकरण नहीं दिया गया है। ऐसे विवरणों का विस्तृत व क्रमवद्ध वर्णन व इन दोनों का बीच का मध्यवर्ती होता है।
मध्य अभिसीमा के सिद्धान्त में सारतत्त्व निकाले जाते हैं, फिर भी वे उन निरीक्षित तथ्यों के बहुत निकट होते हैं जिनका प्रयोगसिद्ध परीक्षण सम्भव है।