मार्क्स की वर्ग की अवधारणा – वर्ग शब्द का आशय आर्थिक वर्ग से है। मार्क्स के अनुसार, “समाज में आर्थिक क्रिया में संलग्न उन लोगों का समूह, जो कि एक से कार्य सम्पन्न करते हैं, जिनका दूसरे लोगों के साथ एक-सा सम्बन्ध होता है तथा जिनके हित एक समान होते हैं, एक वर्ग कहलाता है।”
प्रारम्भ से ही मानव समाज स्पष्टतः दो वर्गों में विभक्त रहा है- प्रथम वर्ग जो उत्पादन के सम्पूर्ण साधनों का स्वामी होता है एवं द्वितीयक वर्ग जो अपने शारीरिक श्रम के द्वारा उत्पादन कार्य में सहयोगी होता है। प्रथम प्रकार का वर्ग आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से सर्व सम्पन्न तथा द्वितीय प्रकार का वर्ग आर्थिक दृष्टि से विपन्न या निर्धन, राजनीतिक दृष्टि से शासित तथा सामाजिक दृष्टि से शोषित होता है।
नगर पंचायत के गठन एवं कार्यों का वर्णन कीजिए।
मार्क्स के मतानुसार इन दोनों वर्गों का अस्तित्व क्रमशः दासत्व युग के स्वामी तथा सेवक के रूप में, सामन्त युग में जमींदार या सामन्त तथा कृषक के रूप में और आधुनिक पूँजीवादी युग में पूँजीवादी तथा श्रमिक के रूप में सर्वत्र परिलक्षित होता है। इस प्रकार हम यह देखते हैं कि मार्क्स के मतानुसार, उत्पादन प्रणाली तथा धन या वस्तुओं के वितरण के आधार पर विशुद्ध आर्थिक वर्गों को ही वास्तविक सामाजिक वर्ग की संज्ञा प्रदान की जा सकती है।