मार्क्स का वर्ग विहीन समाज – कार्ल मार्क्स के सभी लेखों और सिद्धान्तों में केवल एक ही संकेत मिलता है कि वह पूँजीवादी व्यवस्था के कट्टर विरोधी थे क्योंकि उस समय पूँजीपति वर्ग श्रमिक एवं सर्वहारा वर्गों का पूर्ण रूप से शोषण करते थे। मार्क्स की यह आस्था थी कि सर्वहारा वर्ग इस शोषण के कारण अपने आपको संगठित करके पूंजीपतियों के विरुद्ध खूनी क्रान्ति कर देगा जिससे पूँजीपतियों का अस्तित्व मिट जाएगा और सर्वहारा वर्ग का सारी सम्पत्ति पर अधिकार हो जाएगा।
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ऐसे समाज मैं न कोई वर्ग भेद रह जाएगा और न राज्य की किसी प्रकार आवश्यकता रह जाएगी। इस प्रकार समाज को मार्क्स वर्ग विहीन समाज की संज्ञा देते हैं, जिसमें सर्वहारा वर्ग की तानाशाही होगी। इस प्रकार समाज मार्क्स की वर्ग विहीन समाज की कल्पना पूँजीपति समाज के अन्त से जुड़ी हुई है। उत्पादन शक्तियों में वृद्धि एवं जनहित की बढ़ती मांगों से सामाजिक सम्बन्धों के क्षेत्र में अनेक परिवर्तन आ जाते हैं।
इन परिवर्तनों की दिशा मार्क्स के अनुसार सामाजिक वर्ग एवं अन्य असमानताओं की समाप्ति की ओर है। इस प्रक्रिया का अन्तिम चरण स्वतन्त्र एवं समान रूप में कार्य करने वाला एक वर्ग विहीन ‘साम्यवादी समाज होगा, जिसमें किसी भी प्रकार का भेदभाव तथा ऊंच- नीच नहीं होगा।