माण्टेसरी शिक्षा-पद्धति
डॉ. मारिया माण्टेसरी शिक्षा-पद्धति को हम तीन निम्नलिखित भागों में विभक्त कर सकते हैं
1. भाषा की शिक्षा-
यहाँ माण्टेसरी का सिद्धांत कहता है कि बालक को पहले सीखना चाहिए, उसके बाद पड़ना। लिखते-लिखते बालक पढ़ना तो अपने आप सीख जाता है। लिखना सिखाने से पहले बालक की मांसपेशियों को साधना आवश्यक है। अतः शैक्षिक उपकरणों की सहायता से पहले बालक हाथ और आँख में समन्वय करना और अंगों का उचित संचालन करना सीखता है। इस प्रकार वह कलम या पेंसिल पकड़ना सीख जाता है। लिखना सीखने के लिए बालक लकड़ी अथवा गत्ते पर बने हुए अक्षरों पर उंगली फेरता है। अध्यापिका उंगली फेरने के समय अक्षर का उच्चारण करती रहती है। इस प्रकार बालक उस अक्षर का उच्चारण करना भी सीख जाता है।
2. कर्मेन्द्रियों की शिक्षा
सर्वप्रथम बाल गृह में बालक की कर्मेन्द्रियों को प्रशिक्षित किया जाता है। तीन से सात वर्ष की आयु के बालकों को अपना कार्य अपने आप करने के लिए प्रोत्साहन दिया जाता है। बाल गृह का वातावरण ऐसा बना दिया जाता है कि बालक सभी काम अपने आप करता है। हाथ-मुँह धोना, चलना-फिरना, उठना, कपड़े पहनना व उतारना, मेज कुर्सी ठीक स्थान पर रखना, कमरा साफ करना व सजाना, वस्तुओं को संभाल कर ठीक से -रखना, भोजन बनाना, भोजन परोसना, बर्तन मांजना आदि कार्य छात्र स्वयं करते हैं। बालक इन कार्यों में आनंद लेता है और इस प्रकार उसकी कर्मेन्द्रियों का विकास हो जाता है। वह सभ्य बनता चलता है और बातचीत करना सीख जाता है। बालकों के स्वास्थ्य एवं आयु के अनुसार व्यायाम भी कराया जाता है।
शिक्षा के डाल्टन योजना की विवेचना कीजिए।
3. ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा
जैसा कि पूर्व में वर्णन किया जा चुका है कि माण्टेसरी शिक्षा ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा पर बड़ा बल देती थीं। उन्होंने ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा के लिए शैक्षिक उपकरणों का सहारा लिया है। बालक की चक्षु-इन्द्रिय को प्रशिक्षित करने के लिए उसे भिन्न-भिन्न रंगों की टिकियाँ दी जाती हैं और उससे एक बार में एक रंग की टिकियों को निकालने के लिए कहा जाता है। इस प्रकार उसको रंगों की पहचान हो जाती है। ठीक इसी रूप में श्रवण-इन्द्रिय को प्रशिक्षित करने के लिए विभिन्न प्रकार की घंटियाँ बजाई जाती है। इसके अतिरिक्त सन्द्रिय के विकास के लिए रूमालों से भरा एक डिब्बा दिया जाता है। रूमाल चिकने, खुरदरे, मखमली, ऊनी होते हैं। इस प्रकार प्राणेन्द्रियों के विकास के लिए बोतलें दी जाती हैं, जिनमें गन्धयुक्त द्रव होता है। स्वादिन्द्रिय को प्रशिक्षित करने के लिए नमक, चीनी, चाय आदि की शीशियों दी जाती है।
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