माण्टेसरी पद्धति
पिछड़े हुए बालकों की शिक्षा के लिए माण्टेसरी ने एक विशिष्ट पद्धति को जन्म दिया, जिसे ‘माण्टेसरी पद्धति’ कहा जाता है। माण्टेसरी ने अनुभव किया कि नई पद्धति से पिछड़े हुए बालकों का आश्चर्यजनक विकास होता है। उनकी इस सफलता से प्रभावित होकर इटली की सरकार ने उन्हें बाल गृह का अध्यक्ष बना दिया। माण्टेसरी अनेक बाल गृहों की अधीक्षक बनीं और अपनी पद्धति के व्यावहारिक रूप का विकास करने लगी। अपनी पद्धति को श्रेष्ठ बनाने के लिए उन्होंने प्रयोगात्मक मनोविज्ञान का अध्ययन किया। उन्होंने लोम्बोसा और सर्गी द्वारा प्रयुक्त शिक्षण विधियों का भी गम्भीर अध्ययन किया। बाल गृह में रहकर उन्होंने अपनी शिक्षण पद्धति को अधिकाधिक वैज्ञानिक बनाया। उन्होंने अपनी पद्धति की सफलता से प्रभावित होकर सोचा कि यदि इस पद्धति को साधारण बुद्धि वाले शिशुओं पर भी प्रयोग किया जाये तो अच्छा है। माण्टेसरी ने साधारण बुद्धि के बालकों पर जब अपनी पद्धति का प्रयोग किया तो उन्हें इसमें भी सफलता मिली। उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि जो पद्धति 6 वर्ष के मंदबुद्धि बालक के लिए उपर्युक्त है, वहीं पद्धति 3 वर्ष के सामान्य बुद्धि के बालक के लिए उपयोगी है। मारिया माण्टेसरी ने इस प्रकार अपनी पद्धति के सहारे सामान्य एवं मंद बुद्धि- दोनों प्रकार की बुद्धि के बालकों को शिक्षित करना प्रारम्भ किया।
अपना सम्पूर्ण जीवन मारिया माण्टेसरी ने शिशुओं की शिक्षा में बिता दिया। ये अपनी पद्धति को अधिकाधिक वैज्ञानिक बनाने में संलग्न रहीं। 3 से 6 वर्ष के बच्चों की शिक्षा की ओर उनका सबसे अधिक ध्यान था। उन्होंने ‘माण्टेसरी पद्धति’ नाम से एक पुस्तक भी प्रकाशित कराई। माण्टेसरी पद्धति धीरे-धीरे लोकप्रिय होती गई और यूरोप के अनेक देशों ने इस पद्धति को अपना लिया। माण्टेसरी ने इस पद्धति का प्रचार करने के लिए यूरोप के कई देशों का भ्रमण किया। माण्टेसरी 1939ई. में भारतवर्ष भी आई और थियोसोफिकल सोसाइटी के तत्वाधान में उन्होंने अपनी पद्धति पर भाषण दिये। उन्होंने मद्रास में माण्टेसरी संघ की एक शाखा भी स्थापित की। इण्डियन ट्रेनिंग कोचर्स इन्स्टीट्यूट, अदियार (मद्रास) की निर्देशिका का पद भी उन्होंने सुशोभित किया।
शिक्षा-सिद्धांत
डॉ. मारिया मान्टेसरी से पहले शिक्षा के मनोवैज्ञानिक आधार का महत्व शिक्षाशास्त्रियों ने भी स्वीकार किया है। इस बात पर रूसो ने बल दिया था कि शिक्षक को बालक का अध्ययन अवश्य करना चाहिए। किन्तु उसके सिद्धांत में हम अतिवाद का दर्शन करते हैं। इसके अतिरिक्त पेस्टलॉजी ने भी शिक्षा को मनोविज्ञानानुकूल बनाना चाहा था और उसने आनशांग का सिद्धांत प्रतिपादित किया था। हरबर्ट ने पूर्व-प्रत्यय तथा प्रत्यय के सिद्धांतों को देकर शिक्षा जगत पर बड़ा उपकार किया था। रूसों के प्रकृतिवाद से माण्टेसरी प्रभावित थीं और पेस्टालॉजी के मनोविज्ञान के प्रति भी उनका आकर्षण था। माण्टेसरी ने पेस्टालॉजी के काम को आगे बढ़ाया और शिक्षण-पद्धति को नवीन मनोविज्ञान पर आधारित किया। यहाँ माण्टेसरी का शिक्षा सिद्धांतों को संक्षेप में वर्णन किया जा रहा है।
1.वैयक्तिकता का विकास
उनका मानना है कि शिक्षा विकास की एक प्रक्रिया है, किन्तु यह विकास अन्तरिक होता है। माण्टेसरी के अनुसार, शिक्षा का उद्देश्य बालक की ‘वैयक्तिकता का विकास’ करना है। बालक के प्राकृतिक विकास पर उन्होंने बल दिया। उनके अनुसार बालक जो कुछ आगे बनेगा, वह उनमें जन्म के समय ही बीज-रूप में निहित है। अतः शिक्षक का कार्य जन्म के समय उपस्थित शक्तियों के विकास का वातावरण प्रदान करना है।
2. आत्म शिक्षा
उनका मानना है कि सच्ची शिक्षा वह है जिसमें बालक अपनी आवश्यकता के अनुसार स्वयं सीखता है। अपने आप ज्ञान की खोज करने से ज्ञान का सच्चा रूप सामने आता है। इस सिद्धांत द्वारा स्वानुभाव के सिद्धांत के महत्त्व को स्वीकार किया गया है। शिक्षक को अपनी ओर से कोई आज्ञा या निर्देश नहीं देना चाहिए। बालक जब अपने आप कुछ सीखता है और अपनी उन्नति देखता है तो वह बहुत प्रसन्न होता है। माण्टेसरी ने आत्म शिक्षा के लिए कुछ शैक्षिक यंत्रों का निर्माण किया है। बालक को ये शैक्षिक यंत्र दे दिये जाते हैं और वह उनसे खेलने लगता है। इन यंत्रों को प्रबोधक यंत्र कहा जा सकता है। बालक जब एक प्रकार के यंत्रों से खेलते-खेलते थक जाता है तो उसे छोड़ देता है। फिर वह दूसरे यंत्र की ओर प्रेरित होता है। यह प्रेरणा उसकी आत्मा से ही मिलती है। अतः बालक बड़ी रुचि के साथ खेल खेलता है और आनंदमग्न हो जाता है।
3. स्वतंत्रता –
माण्टेसरी पद्धति भी रूसो की भाँति बालकों की पूर्ण स्वतंत्रता के पक्ष में है। बालक के व्यक्तित्व का विकास करने के लिए उसे अत्यधिक नियंत्रण में नहीं रखा जा सकता। उनके अनुसार बालक को अपनी रुचि के अनुसार विकास करने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए। यही शिक्षा प्राकृतिक एवं स्वतंत्र वातावरण में होती है। बालक की रुचि में अवरोध उत्पन्न करने से उसके विकास में बाधा पड़ती है। बालक की मूल प्रवृत्तियों एवं रुचियों को ही माण्टेसरी शिक्षा का आधार माना है। माण्टेसरी के अनुसार स्वतंत्र वातावरण में शिक्षा देने का उद्देश्य बालक में स्वावलम्बन, आत्मसम्मान, आत्मविश्वास आदि गुणों को उत्पन्न करना है।
4. खेल द्वारा शिक्षा
ऐसा पूर्व में वर्णन किया जा चुका है कि माण्टेसरी के अनुसार शिक्षा बालक की प्रकृति के अनुकूल होनी चाहिए। बालक की रुचि खेल में स्वभाव से ही होती है। बालक की सबसे प्रिय वस्तु खेल है, अतएव प्रारम्भ में खेल द्वारा ही शिक्षा देना ठीक है। बालक को शैक्षिक यंत्र दे दिये जाएँ और वह उनसे खेलने लगेगा। बालक के खेल में किसी प्रकार का हस्तक्षेप करना ठीक नहीं है। बालक शिक्षा-यंत्रों से खेलता रहता है और खेल में ही वह वर्णमाला, गणित आदि विषय सीख जाता है। इन उपकरणों की सहायता से उसकी ज्ञानेन्द्रियाँ भी विकसित होती चलती हैं।
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5. ज्ञानेन्द्रिय प्रशिक्षण द्वारा शिक्षा
उनके अनुसार ज्ञानेन्द्रिय की शिक्षा का अत्यधिक महत्व है। ज्ञान वस्तुतः ज्ञानेन्द्रियों पर ही आधारित होता है। यदि ज्ञानेन्द्रियाँ निर्बल हुई तो उस इन्द्रिय से प्राप्त ज्ञान भी सदोष होगा। इसलिए वे ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा पर बल देती हैं। उनके अनुसार तीन से सात वर्ष की अवस्था के बीच बालक की ज्ञानेन्द्रियों विशेष रूप से क्रियाशील रहती हैं। अतः इस अवस्था में ज्ञानेन्द्रियों के विकास पर अवश्य ध्यान देना चाहिए। वह कहती हैं कि यदि इस अवस्था में ज्ञानेन्द्रियों के विकास पर ध्यान न दिया गया तो साधारण बुद्धि का बालक भी मन्दबुद्धि बालक बन जायेगा।”
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