व्यक्ति के सर्वांगीण विकास हेतु बहुत से विचारकों ने उसे कुछ जीने के अधिकार प्रदान करना जरूरी माना है। ये मूल अधिकार ऐसे हैं जिनसे वंचित कर दिये जाने पर व्यक्ति न तो अपना विकास कर सकता है तथा न समाज के कल्याण में कोई योगदान कर सकता है।
जीने का अधिकार
प्रत्येक व्यक्ति का यह मूल अधिकार है कि उसे उसके जीवन से वंचित न किया जाये। यदि ऐसे यह मूल अधिकार नहीं दिया जाता तो उसके अपने विकास और सामाजिक कल्याण में उसके योगदान का प्रश्न ही नहीं उठता। इसी कारण सामान्य परिस्थितियों में सभ्य समाज द्वारा मानव के इस मूल अधिकार को स्वीकार किया जाता है। कुछ विशेष परिस्थितियों में व्यक्ति से यह आशा की जा सकती है कि वह समाज के व्यापक हित हेतु अपने इस मूल अधिकार का भी परित्याग कर दे, परन्तु ये परिस्थितियाँ अपवाद ही हैं। सामान्यतः सभ्य समाज में यह स्वीकार किया जाता है कि किसी व्यक्ति को जीवन के अधिकर से तब तक वंचित नहीं किया जाना चाहिए जब तक ऐसा करना समाज के व्यापक हित या न्याय की दृष्टि से जरूरी न हो। जीवन के इस अधिकार के साथ खुद अपने अथवा किसी दूसरे व्यक्ति के जीवन को खत्म न करने का कर्त्तव्य भी अनिवार्यतः सम्बद्ध है। जो व्यक्ति स्वार्थसिद्धि के लिए जानबूझ कर किसी की हत्या करके इस कर्तव्य का उल्लंघन करता है उसे जीवन के अधिकार से वंचित करना न्याय-नैतिकता की दृष्टि से उचित माना जा सकता है। अतः जीवन का अधिकार किसी व्यक्ति के जीवन को हानि न पहुँचाने के कर्तव्य से अलग नहीं माना जा सकता।
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