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मानवाधिकार की प्रकृति अर्थ एवं संकल्पना बताइए।

मानवाधिकार का प्रकृति अर्थ जानने के पहले यह जानना उचित होगा कि अधिकार से क्या अभिप्रेत है। हैरोल्ड लास्की के अनुसार, “अधिकार मानव जीवन की ऐसी परिस्थितियाँ है जिनके • बिना सामान्यतया कोई व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं कर सकता।” हम मानवधिकार को वे अधिकार कह सकते हैं जो मानव को मानव होने के नाते मिलने चाहिए, वे अधिकार जो मानव में मानव होने के नाते अन्तर्निहित हैं ऐसे अधिकार हैं जो एक मानव के व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिए आवश्यक हैं।

मानवाधिकार को परम्परगत रूप से प्राकृतिक अधिकार, अन्य-संक्राम्य अधिकार, अहस्तान्तरणीय अधिकार या मानव का अधिकार (Right of Man) है। जो पद फ्रांसीसी क्रांति से लिया गया है। कहा जाता था। लेकिन मानवाधिकार जैसा कि इसका प्रयोग मानव अधिकार की सर्वाभौम घोषणा, 1948 में किया गया है, अठारहवीं शताब्दी के “मानव का अधिकार” का पुन: प्रवर्तन (revival) है।

मानवाधिकार की प्रकृति और अर्थ की व्याख्या से सम्बन्धित दो दृष्टिकोण है

(1) दार्शनिक या सैद्धांतिक दृष्टिकोण मानव अधिकार की व्याख्या की दृष्टि से छ सिद्धान्त है। ये है

  • (क) प्राकृतिक अधिकार सिद्धान्त,
  • (ख) विधिक अधिकार सिद्धान्त,
  • (ग) अधिकार का ऐतिहासिक सिद्धान्त,
  • (घ) अधिकार का सामाजिक सिद्धान्त,
  • (ङ) अधिकार का आदर्शवादी सिद्धान्त, और
  • (च) व्यवहारवादी या उपयोगितावादी दृष्टिकोण

(1) दार्शनिक दृष्टिकोण

(क) प्राकृतिक अधिकार का सिद्धान्त

‘मानव अधिकार’ की संकल्पना घनिष्ट रूप से परम्परागत प्राकृतिक विधि के सिद्धान्तों से सम्बद्ध है। 17वीं सदी की वैज्ञानिक और बौद्धिक उपलब्धियों, थामस हाथ्स के भौतिकवाद, रेने डिस्काउंस के बुद्धिवाद एवं फ्रांसिस बेकन और जॉन लॉक के अनुभववाद तथा स्पिनोजा के विचारों आदि के प्राकृतिक विधि और विश्वव्यापी व्यवस्था में आस्था को प्रोत्साहन दिया। इस सम्बन्ध में 17वीं सदी के अंग्रेज दार्शनिक जॉन लॉक, जिनको आधुनिक युग का महत्वपूर्ण प्राकृतिक विधि विचारक कहा जा सकता है, के दर्शन तथा 18वीं सदी के दर्शनिक माण्टेस्कू, वाल्टेयर और जीन जैक्स रूसो के कृत्य (work) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। 1688 की क्रांति से सम्बद्ध अपने विचारों से जॉन लॉक ने इस बात को सिद्ध कर दिया कि कतिपय अधिकार प्रकट रूप से व्यक्ति को मानव मात्र होने के नाते उपलब्ध है। यह इस कारण है कि प्राकृतिक स्थिति में वे विद्यमान थे और उनमें से प्रमुख हैं जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार और सम्पत्ति का अधिकार। जब मानवता ने सिविल समाज में सामाजिक समझौते के अनुपालन में प्रवेश किया तो उसने राज्य के पक्ष में इन अधिकारों के प्रवर्तन मात्र को अभ्यर्पित किया न कि स्वयं अधिकारों को वह राज्य जो इन आरक्षित अधिकारों को सुनिनिचत न कर सके क्योंकि यह स्वयं उस समझौते के अधीन कि वह अपने सदस्यों के हितों की रक्षा करें, तो वह एक जिम्मेदार और लोकप्रिय क्रांति को जन्म देता है। इस प्रकार प्रारंभ में ‘मानव का अधिकार प्राकृतिक अधिकार के रूप में प्रकट हुआ।

एलेन पैलेस के अनुसार मानव अधिकार यह विचार है कि “व्यक्ति के पास अधिकार है, समाज पर या समाज के विरुद्ध दावे हैं, यह कि समाज इन अधिकारों को अवश्य मान्यता प्रदान करे, जिस पर वह कार्य करने के लिए बाध्य है, मानव के अन्तरस्य है।” इस परिभाषा के अनुसार मानव अधिकार के लक्षण हैं-

  • (i) मानवाधिकार को मान्यता दी जानी है,
  • (ii) मानवाधिकार प्राकृतिक, अन्य असंक्राम्य और अन्तर्निहित हैं, और
  • (iii) सभी मानव मर्मभूत रूप से समान हैं।

(ख) विधिक अधिकार सिद्धान्त

जेमीं बेन्थम ने प्राकृतिक अधिकार सिद्धान्त की कटु आलोचना किया है और कहा है कि यह

विवेकहीन है। विधिक अधिकार सिद्धान्त के समर्थकों का कहना है कि अधिकार राज्य की रचना है। इस प्रकार न तो ये आत्यंतिक (absolute) है न मनुष्य की प्रकृति में अन्तर्निहित।

(ग) अधिकार का ऐतिहासिक सिद्धान्त

ऐतिहासिक सिद्धान के अनुसार अधिकार ऐतिहासिक प्रक्रिया की रचना है। चिरकालीन रुदि समयानुक्रम में अधिकार का रूप धारण कर देती है। चिरकालिक अधिकार इसके उदाहरण हैं। जैसे मार्ग का अधिकार या प्रकाश का अधिकार या हवा का अधिकार।

(घ) अधिकार का सामाजिक कल्याण सिद्धान्त

सामाजिक कल्याण सिद्धान्त को सामाजिक समीचीनता का सिद्धान्त भी कहा जाता है। इस सिद्धान्त के समर्थकों का मानना है कि विधि, रुदि और प्राकृतिक अधिकार, सभी सामाजिक समीचीनता पर निर्भर होते है। उदाहरणार्थ, वाक् स्वतंत्रता का अधिकार आत्यंतिक (absolute) नहीं है बल्कि सामाजिक समीचीनता (Social expediency) की अपेक्षाओं के अनुसार विनियमित (regulated) है। सामाजिक विधिशास्त्र के प्रणेता रस्को पाउण्ड इस सिद्धान्त का समर्थन करते हैं।

सामाजिक कल्याण सिद्धान्त ने काफी संख्या में मानव अधिकारों का विकास किया है। भारी भरकम संख्या में आर्थिक और सामाजिक अधिकारों को मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा और तदन्तर आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदा में अन्तर्विष्ट किया गया है।

(ड.) अधिकार का आदर्शवादी सिद्धान्त

‘अधिकार का आदर्शवादी सिद्धान्त को अधिकार का व्यक्तित्व सिद्धान्त भी कह जाता है। इस सिद्धान्त का जोर मनुष्य के आन्तरिक विकास, पूर्ण अन्तः शक्ति के विकास पर है। यह व्यक्तित्व अधिकार को सर्वोच्च और आत्यंतिक मानता है जैसे कि प्राण का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार या सम्पत्ति का अधिकार, इस एक मूल अधिकार के व्युत्पन्न होते हैं। ये विभिन्न अधिकार व्यक्तित्व अधिकार से सम्बन्धित है। उदाहरणस्वरूप मुझे प्राण का अधिकार उसी सीमा तक है जहाँ तक वह मेरी अन्तःशक्ति के विकास के लिए आवश्यक है। इस दृष्टि से समाज मुझे अपना जीवन समाप्त करने या आत्महत्या करने के लिए अनुमति नहीं दे सकता।

(2) उपयोगितावादी दृष्टिकोण

यह सिद्धान्त मानव अधिकार की परिभाषा पर जोर देने के बजाय मानवाधिकारों की एक सम्मत सूची पर देता है। इसके अनुसार मानव अधिकार का अर्थ मानवाधिकारों की सम्मत सूची से निकालना चाहिए। उदाहरण के लिए भारतीय संविधान के भाग 3 में मूल अधिकार की कोई परिभाषा नहीं दी गई है, बल्कि मूल अधिकारों की एक सूची ही दी गई है। इस सूची से यह अर्थ निकाल लिया जाता है कि मूल अधिकार राज्य की शक्ती पर निबंधन है और राज्य उनके विषय में दिए गए मार्गदर्शन को मानने के लिए आबद्ध है।

इसी प्रकार संयुक्त राष्ट्र चार्टर में निर्दिष्ट मानव अधिकार और मूल स्वतंत्रता’ का अर्थ मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा, सिविल और राजनैतिक अधिकारों की अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदा तथा आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों की अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदा में दी गई मानव अधिकारों की सूची से निकालना चाहिए।

थामस बर्जेन्थाल का मत है कि अन्तरंग रूप से मानव अधिकारों की सम्मत सूची है। यह सूची हमारा न्यूनतम परिभाषात्मक मार्गदर्शक होना चाहिए कि अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय “मानव अधिकारों और मूल स्वतंत्रताओं” से क्या समझता है।

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एक मत यह है कि संयुक्त राष्ट्र चार्टर ने मानव अधिकार प्राकृतिक विधि संकल्पना को अंगीकार किया है अर्थात “अधिकार जिसकी मानव जाति अतिप्राचीन काल से हकदार है और हकदार बनी रहेगी जब तक मानवता रहती है।” उदाहरण के लिए मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा, सिक्ति और राजनैतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा तथा आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा, इन तीनों दस्तावेजों की उद्देशिकाओं में कहा गया है कि “मानव परिवार के सभी सदस्यों की अन्तर्निहित गरिमा और समान अभेद्य अधिकार विश्व में स्वतंत्रता, न्याय और शांति के आधार है।” महासभा ने अपने हाल के मार्गदर्शन में दोहराया है “मानव व्यक्ति और लोगों के सभी अधिकार और मूल स्वतंत्रताएँ अन्य असंक्राम्य हैं।”

अन्त में यह उल्लेखनीय है कि मानव अधिकार से संबंधित उपर्युक्त सभी सिद्धान्तों की अपनी-अपनी परिसीमाएं हैं। कोई भी सिद्धान्त अपने में पूर्ण नहीं है। सबकी अपनी उपयोगिता है।

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