लोकाचार की अवधारणा
रूढ़ियाँ भी जनरीतियों की भांति ही अनौपचारिक – सामाजिक मानदण्ड हैं, अर्थात रूढ़ियों के पीछे भी समाज की स्वीकृति होती है। जनरीतियों से ही रूढ़ियों का निर्माण होता है। जब कोई जनरीति बहुत अधिक व्यवहार में आने पर समूह के लिए आवश्यक समझ ली जाती है तब वह रूढ़ि का रूप ले लेती है। समनर के अनुसार “जब जनरीतियों में जीवन को उचित रूप से व्यतीत करने का दर्शन और उनमें समूह के कल्याण की भावना जुड़ जाती है, तब जनरीतियाँ ही रूढ़ियों का रूप ले लेती हैं।” ग्रीन (Green) ने रूढ़ियों को समझते हुए उनके पालन न करने पर दण्ड दिये जाने की बात को महत्वपूर्ण माना है। ग्रीन के शब्दों में ही “कार्य करने के वे सामान्य तरीके जो जनरीतियों की अपेक्षा अधिक निश्चित व उचित समझे जाते हैं तथा जिनका उल्लंघन करने पर गम्भीर व निर्धारित दण्ड दिया जाता है, रूढ़ियाँ कहलाती हैं।
रूढ़ियाँ भी दो प्रकार के सामाजिक मानदण्ड प्रस्तुत करती हैं- एक तो सकारातमक रूढ़ियों के रूप में दूसरे निषेधात्मक रूढ़ियों के रूप में। सकारात्मक रूढ़ियाँ हमसे विशेष प्रकार की व्यवहार चाहती हैं, जैसे माता-पिता का आदर करो, जीवन में ईमानदारी रखो, आदि। इसके विपरीत निषेधात्मक रूढ़ियाँ ‘वर्जना’ (Taboo) के रूप में हमें कुछ विशिष्ट व्यवहार करने से रोकती हैं, जैसे- चोरी नहीं करना चाहिये, वेश्यावृत्ति से दूर रहना चाहिये या जुआं नही खेलना चाहिए, आदि। रूढ़ियों में नैतिकता पर्याप्त प्रभाव रहता है और उनका पालन सामाजिक दृष्टिकोण से अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। मेहमान का आदर करना, स्त्रियों से शिष्टाचारपूर्वक व्यवहार करना, परिवार के सदस्यों के भरण-पोषण के दायित्व का निर्वाह करना, इत्यादि रूढ़ियों के वे उदाहरण हैं, जिनका पालन सांस्कृतिक मान्यताओं के अनुरूप हमारे लिए महत्वपूर्ण माना गया है। कानून हमारे जीवन के व्यवहार के प्रत्येक पक्ष की व्याख्या नहीं करता है, अतः रूढ़ियाँ हमारे व्यवहार को विशेष एवं मान्य रूप में संचालित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं।
इसी दृष्टिकोण से वे सामाजिक संरचना के दायित्व में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं रूढ़ियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे प्रायः गतिहीन होती हैं और समाजीकरण की प्रक्रिया में व्यक्ति उनको आत्मसात् करके उनके अनुरूप व्यवहार करते हैं। रूढ़ियों की निरन्तरता की विशेषता कभी-कभी उनको इतना स्थायित्व प्रदान कर देती हैं कि सामाजिक परिवर्तन के संदर्भ में भी कतिपय रूढ़ियां समाज में बनी रहती हैं। ऐसे समय में ये रूढ़ियाँ परिवर्तित संदर्भ में नये लक्ष्यों की प्राप्ति में बाधक सिद्ध हो सकती है। किन्तु नैतिक- सामाजिक प्रभाव के कारण व्यक्ति उनको मान्यता प्रदान करते हुए जीवन के कार्यकलापों को रूढ़ियों के अनुसार संचालित करते हैं। ग्रामीण, आदिम एवं सरल समाज में रूढ़ियों का आधुनिक समाज की अपेक्षा अधिक महत्व रहा है। औपचारिकता, अपरिचय-बोध, समाज की जटिलता शहरों, वृहत् समाज (Mass Society) के फलस्वरूप विकसित हुई है। इन समाज में कानून ने शनैः-शनैः अधिकांश रूढ़ियों का स्थान ले लिया है। यह तथ्य इस बात का द्योतक है कि समाज में व्यवहार के प्रतिमानों के प्रकार का निष् रण समाज की प्रकृति, आकार एवं संरचना पर निर्भर करता है।
रूढ़ियों के पीछे यद्यपि कानून की सहमति नहीं होती है, फिर भी उनका प्रभाव व्यवहार में कानून से अधिक होता है। कानून का उल्लंघन करने वाला व्यक्ति सिर्फ उन संस्थाओं से बचने की कोशिश करता है, जो कानून की रक्षा करती है, जैसे- पुलिस, न्यायालय, आदि। किन्तु रूढ़ियों की अवहेलना करने वाला व्यक्ति समाज की दृष्टि से नहीं बच सकता, क्योकि समाज का प्रत्येक व्यक्ति एक सतर्क सिपाही है, जो रूढ़ियों की डटकर सतत् रक्षा करता है।
रूढ़ियों में नैतिकता का पर्याप्त अंश होता है, इसलिए उनका पालन धार्मिक कर्तव्य के रूप में भी होता है। गरीबों की सहायता करना, अपंगों की रक्षा करना, स्त्रियों से न लडना, मेहमानों का आदर करना, कुछ ऐसी ही रूढ़ियाँ है, जिनका पालन हम समाज के भय से नहीं, बल्कि अपनी स्वयं की प्रेरणा से करते हैं। वे हमारे जीवन की महत्वपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। इसीलिए समनर ने लिखा है कि “रूढ़ियों जीवन की समस्याओं के लिए प्रश्न न रखकर उत्तर प्रस्तुत करती हैं”, अर्थात रूढ़ियाँ इतनी बलशाली होती हैं कि वे किसी भी व्यवहार को उचित अथवा उनुचित घोषित कर सकती हैं।
आदिम समाज में रूढ़ियों का आधुनिक समाज की अपेक्षा अधिक महत्व है। वहाँ रूढ़ियाँ सामान्य व्यवहार के मानदण्ड निर्धारित करती हैं तथा सामाजिक एकता बनाये रखती हैं। इसके विपरीत, आधुनिक समाज में व्यक्तिवाद के कारण रूढ़ियाँ की अपेक्षा कानून अधिक महत्वपूर्ण है, यद्यपि यहाँ भी रूढ़ियाँ किसी सीमा तक व्यवहार की एकरूपता बनाये रखती हैं।
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