लॉक के दर्शन में शक्ति पृथक्करण – लॉक का कथन है कि तीन कार्यों-विधायी, कार्यपालिका तथा न्यायिक, इनके सम्पादन के लिए पृथक-पृथक गुणों और शक्तियों की आवश्यकता होती है, इसलिए इन शक्तियों तथा कार्यों का पृथक्करण होना चाहिए। उसने विधायिका तथा कार्यपालिका में स्पष्ट और निश्चित पृथक्कता स्वीकार की और कार्यपालिका को विधायिका के अधीन रखा।
लॉक ने यह भी कहा कि कार्यपालिका का सत्र निरन्तर चलना चाहिए, लेकिन विधायिका के लिए ऐसी व्यवस्था का होना आवश्यक नहीं है। यद्यपि न्यायिक तथा कार्यपालिकीय कार्यों में स्पष्ट भेद है तथापि लॉक वे दोनों ही कार्य एक ही अंग को सौंपने को तैयार है, क्योंकि ये दोनों अंग समाज की सशक्त शक्ति के आधार पर ही अपना कार्य कर सकते हैं।
राष्ट्रपति के अध्यादेश जारी करने सम्बन्धी शक्तियों का वर्णन कीजिए।
हारमोन ने लिखा है, “लॉक के युग में न्याय का कार्य भी कार्यपालिका के अधीन माना जाता था, अतः लॉक इसके लिए पृथक न्यायपालिका की व्यवस्था नहीं बताता। निस्संदेह वह पृथक तथा निष्पक्ष न्याय व्यवस्था का समर्थन करता है, परन्तु न्यायपालिका के पृथक्करण तथा स्वतंत्रता के सिद्धान्त को नहीं मानता।”