लैंगिक समानता के विकास में परिवार की भूमिका
सामान्यतः व्यक्ति की प्रारम्भिक अवधारणाओं का विकास परिवार में होता है। परिवार में रहकर ही बालक जीने का ढंग, रीति-रिवाज, संस्कृति एवं परम्परा को सीखता है। परिवार में जिस प्रकार का वातावरण होगा बालक-बालिकाओं का व्यक्तित्व विकास भी उसी दिशा में होगा। यदि किसी परिवार में लिंग के आधार पर भेदभाव किया जाता है, बालिकाओं के साथ समानता का व्यवहार नहीं किया जाता, उन्हें विभिन्न साधन एवं सुविधाएँ उपलब्ध नहीं करायी जातीं तो उस परिवार के बालकों में भी इसी प्रकार की सोच विकसित होगी और आगे चलकर वह भी इसी प्रकार का व्यवहार करेंगे। इसके ठीक विपरीत यदि किसी परिवार में बालक बालिकाओं में भेदभाव नहीं किया जाता और समान रूप से उनके विकास पर ध्यान दिया जाता है तो उस १ परिवार के बालक बड़े होकर लैंगिक समानता को प्रोत्साहित करेंगे जिससे समाज से लैंगिक भेदभाव को दूर करने में सहायता मिलेगी। इस प्रकार स्पष्ट है कि जेण्डर के सन्दर्भ में परिवार की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। परिवार ही वह प्रथम इकाई है जहाँ से समाज, राष्ट्र और विश्व को नये स्वरूप में ढालने के लिये नागरिकों का निर्माण होता है। अतः लैंगिक समानता के विकास में परिवार की भूमिका को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है
(1) परिवार के सदस्यों द्वारा घर की बालिकाओं का समुचित ध्यान रखना चाहिये। बालिकाओं के साथ इस प्रकार का व्यवहार नहीं करना चाहिये कि वे अपने को कमजोर समझ कर हीनभावना से ग्रस्त हो जायें। माता-पिता एवं परिवार के अन्य सदस्यों को सदैव बालिकाओं को यह समझाना चाहिये कि किसी भी क्षेत्र में वह बालकों से कम नहीं है और उनके विकास के लिये उन्हें सारी स
(2) अभिभावकों को अपनी बहन-बेटियों को अनिवार्य रूप से शिक्षा दिलवानी चाहिये। जिस प्रकार बालकों की शिक्षा के लिये प्रत्येक सम्भव प्रयास किया जाता है उसी प्रकार बालिकाओं की शिक्षा के लिये भी प्रयासरत रहना चाहिये और उनकी शिक्षा के लिये उचित प्रबन्ध करने चाहिये। जब बालिका शिक्षित होगी तो निश्चित रूप से लैंगिक समानता के विकास में सहायता मिलेगी।
(3) अभिभावकों को केन्द्र एवं राज्य सरकारों द्वारा चलायी जा रही बालिका विकास सम्बन्धी विभिन्न योजनाओं की जानकारी करते रहना चाहिये। इन योजनाओं के माध्यम से बहन बेटियों के भविष्य को सही दिशा में निर्धारित किया जा सकता है क्योंकि इन योजनाओं में आर्थिक सहायता का प्रावधान रहता है; जैसे सुकन्या समृद्धि योजना, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओं योजना, कन्या विद्या धन आदि।
(4) अभिभावकों को लैंगिक समानता को हतोत्साहित करने वाली गतिविधियों, प्रवृत्तियों या कुरीतियों से दूर रहना चाहिये और समाज में भी इन्हें हतोत्साहित करने के प्रयत्न करने चाहिये। दहेज प्रथा एक ऐसी ही कुरीति है। इसका अभिभावकों को विरोध करना चाहिये जिससे समाज में लैंगिक समानता की स्थिति को विकसित किया जा सके।
(5) परिवार की बालिकाओं के साथ अभिभावकों का व्यवहार मित्रवत होना चाहिये जिससे बालिकाएं अपनी समस्याओं को उनके समक्ष प्रस्तुत कर सकें, विशेष रूप से माता को बालिका के साथ सखी रूप में व्यवहार करते हुए उनकी समस्याओं का समुचित समाधान करना चाहिये।
(6) लैंगिक समानता के विकास के लिये अभिभावकों को अपनी रूढ़िवादी परम्पराओं एवं मान्यताओं को परिवर्तित कर लेना चाहिये और बालिकाओं के शैक्षिक एवं सामाजिक विकास के लिये विभिन्न उपाय करने चाहिये।
मौलिक अधिकार का अर्थ तथा उद्देश्य
उपरोक्त बिन्दुओं को यदि अभिभावक अपने व्यवहार में समावेशित करें तो समाज में संगिक विषमता को पर्याप्त सीमा तक कम किया जा सकता है जिससे लैंगिक समानता के विकास की स्थिति दृष्टिगोचर होने लगेगी। बालिकाओं के बाहर खेलने-कूदने, पढ़ने-लिखने और अन्य रचनात्मक कार्यों में उनकी संलग्नता को माता-पिता द्वारा प्रतिबन्धित नहीं किया जाना चाहिये बल्कि बालकों के समान उन्हें पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करनी चाहिये।
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