कुमार गुप्त प्रथम का जीवन – चन्द्रगुप्त द्वितीय के पश्चात् उसका पुत्र कुमार गुप्त प्रथम गुप्त वंश का शासक हुआ। उसने 475-455 ई. तक लगभग 40 वर्ष शासन किया। उसके शासनकाल का महत्व इसलिए है कि उसने अपने पिता से जिस विशाल साम्राज्य को उत्तराधिकार में प्राप्त किया था, उसे अक्षुण्ण बनाए रखा तथा अपने विशाल साम्राज्य में शान्ति और व्यवस्था स्थापित करने में सफल रहा। उसके सुव्यवस्थित शासन का वर्णन मन्दसौर अभिलेख में इस प्रकार मिलता है- “कुमारगुप्त एक ऐसी पृथ्वी पर शासन करता था जो चारों समुद्रों से घिरी हुई थी, सुमेरु तथा कैलाश पर्वत जिसके वृहत पयोधर के समान थे, सुन्दर वाटिकाओं में खिले फूल जिसकी हँसी के समान थे।”
जानकारी के साधन
कुमार गुप्त प्रथम के शासन काल के 18 अभिलेख प्राप्त हुए हैं, जिनसे उसके विषय में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
बिलसद अभिलेख
यह कुमारगुप्त के शासनकाल का प्रथम अभिलेख है जिस पर गुप्त संवत् 96-415 ई. की तिथि अंकित है। बिलसद उत्तर प्रदेश के एटा जिले में स्थित है। इसमें कुमारगुप्त प्रथम तक गुप्तों की वंशावली प्राप्त होती है। इस लेख में ध्रुवशर्मा नामक एक ब्राह्मण के द्वारा स्वामी महासेन (कार्तिकेय) के मन्दिर तथा धर्म संघ बनवाए जाने का उल्लेख मिलता है।
गढ़वा के दो शिलालेख- इलाहाबाद जिले में स्थित गढ़वा से कुमारगुप्त के दो शिलालेख मिले हैं। इन पर गुप्त संवत् 98417 ई. की तिथि उत्कीर्ण है। इनमें किसी दानगृह को 10 और 12 दीनारे दिए जाने का वर्णन है।
मन्दसौर अभिलेख
मन्दसौर प्राचीन मालवा में स्थित था जिसका एक नाम दशपुर भी मिलता है। यहाँ से प्राप्त कुमारगुप्त के लेख में विक्रम संवत् 529 (473 ई.) की तिथि दी गई है।
यह लेख प्रशस्ति के रूप में है जिसकी रचना वत्समट्टि ने की थी वह संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान था। इस लेख में कुमारगुप्त के राज्यपाल बन्धुवर्मा का उल्लेख मिलता है जो वहाँ शासन करता था। इसमें सूर्यमन्दिर के निर्माण का भी उल्लेख है।
करमदण्डा अभिलेख
करमदण्डा उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में स्थित है। इस लेख में गुप्त संवत 117-436 ई. की तिथि अंकित है। यह शिव प्रतिमा के अधोभाग में उत्कीर्ण है। इस प्रतिमा की स्थापना कुमारगुप्त के मन्त्री (कुमारामात्य) पृथ्वीसेन ने की थी।
मनकुँवर अभिलेख मनकुंवर इलाहाबाद जिले में स्थित है। इस लेख में गुप्त संवत् 129- 448 ई. की तिथि अंकित है। यह बुद्ध प्रतिमा के निचले भाग में उत्कीर्ण है। इस मूर्ति की स्थापना बुद्धमित्र नामक बौद्ध भिक्षु द्वारा करवायी गई थी।
मथुरा का लेख
यह एक मूर्ति के अधोभाग में उत्कीर्ण है जिस पर गुप्त संवत 135-454 ई. की तिथि अंकित है। मूर्ति का ऊपरी हिस्सा टूट गया है परन्तु लेख के पास धर्म चक्र उत्कीर्ण होने से ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि यह कोई बौद्ध प्रतिमा रही होगी। साँची अभिलेख- साँधी से प्राप्त कुमारगुप्त का लेख गुप्त संवत् 131-450 ई. का है। इसमें हरिस्वामिनी द्वारा साँची के आर्यसंघ को धन दान में दिए जाने का उल्लेख है।
उदयगिरि गुहालेख
उदयगिरि में गुप्त संवत् 106-425 ई. का एक जैन अभिलेख मिला है। इसमें शंकर नामक व्यक्ति द्वारा इस स्थान में पार्श्वनाथ की मूर्ति स्थापित किए जाने का विवरण सुरक्षित है।
तुमैन अभिलेख
तुमैन मध्यप्रदेश के ग्वालियर जिले में स्थित है। यहाँ से गुप्त संवत 116- 435 ई. का लेख मिलता है जो कुमारगुप्त के समय का है। इसमें कुमारगुप्त को शरद-कालीन सूर्य की भाँति बताया गया है।
बंगाल से प्राप्त अभिलेख
बंगाल के तीन स्थानों से कुमारगुप्तकालीन ताम्रपत्र प्राप्त होते हैं-
- धनदेह ताम्रपत्र
- दामोदरपुर ताम्रपत्र
- वैग्राम ताम्रपत्र
धनदेह आधुनिक बांग्लादेश के राजशाही जिले में स्थित है। यहाँ से गुप्त संवत् 113-432- ई. का ताम्रपत्र मिला है जो कुमारगुप्त के समय का है। इसमें कुमारगुप्त को परमभट्टारक, महाराजाधिराज, परमदैवत कहा गया है तथा वाराहस्वामिन नामक एक ब्राह्मण को भूमि दान में दिए जाने का वर्णन मिलता है।
दामोदरपुर भी बांग्लादेश के दीनाजपुर जिले में स्थित है। यहाँ से गुप्त संवत् 124 तथी 129-443 तथा 448 ई. के कुमारगुप्त के दो लेख मिलते हैं। इनसे उसकी शासन व्यवस्था पर प्रकाश पड़ता है। इस प्रदेश को पुण्डवर्धन कहा गया है जहाँ का शासक चिरादत्त था। इन लेखों में के अनेक पदाधिकारियों के नाम भी दिए गए हैं।
वैग्राम बांग्लादेश के बोगरा जिले में स्थित है जहाँ से गुप्त संवत् 128-447 ई. का कुमारगुप्त का लेख मिला है। यह गोविन्दस्वामिन के मन्दिर के निर्वाह के लिए भूमिदान में दिए जाने का वर्णन करता है।
कुमारगुप्त की मुद्राएं
अभिलेखों के अतिरिक्त पश्चिमी भारत के विशाल भूभाग से कुमारगुप्त की स्वर्ण, रजत तथा ताम्र मुद्राएँ प्राप्त होती है। उसने कई नवीन प्रकार की स्वर्ण मुद्राएँ प्रचलित करवायी थीं। एक प्रकार की मुद्रा के मुख पर मयूर को खिलाते हुए राजा की आकृति तथा पृष्ठ भाग पर मयूर पर आसीन कार्तिकेय की आकृति उत्कीर्ण है। मध्य भारत में रजत सिक्कों का प्रचलन उसी के काल में हुआ। इन मुद्राओं पर गरुड़ के स्थान पर मयूर की आकृति उत्कीर्ण की गई है। ये मुद्राएँ विविध प्रकार की है। अश्वमेध प्रकार, व्याघ्रनिहन्ता प्रकार, अश्वारोही प्रकार, धनुर्धारी प्रकार, गजारोही प्रकार, कार्तिकेय प्रकार आदि। मुद्राओं पर उसकी उपाधियाँ महेन्द्रादित्य, श्रीमहेन्द्र, महेन्द्रसिंह, अश्वमेधमहेन्द्र आदि उत्कीर्ण मिलती है।
शासनकाल
कुमारगुप्त प्रथम की तिथि का निर्धारण करने में उसके शासनकाल में जारी किए गए अभिलेखों एवं मुद्राओं पर अंकित तिथियाँ महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। कुमार गुप्तप्रथम के शासनकाल की प्रथम गुप्त संवत् 96-415 ई. है जो हमें बिलसद अभिलेख से ज्ञात होती है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि यह 415 ई. में गद्दी पर बैठा था। उसकी अन्तिम तिथि संवत् 136-455 ई. है जो हमें चाँदी के सिक्कों से ज्ञात होती है। उसके उत्तराधिकारी स्कन्दगुप्त के शासनकाल की प्रथम तिथि भी यही है जो उसके जूनागढ़ अभिलेख में अंकित है। अतः इस तिथि तक कुमारगुप्त का शासन अवश्य ही समाप्त हो गया होगा। इस प्रकार ऐसा निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कुमारगुप्त प्रथम ने 415 से 455 ई. अर्थात् कुल 40 वर्षों तक शासन किया। गुप्त
विजय (उपलब्धियाँ)
कुमारगुप्त प्रथम के किसी सैन्य उपलब्धि की जानकारी हमें उसके अभिलेखों एवं सिक्कों से नहीं प्राप्त होती है। उसके कतिपय सिक्कों के ऊपर ‘व्याघ्रबलपराक्रम’ अर्थात् ‘व्याघ्र के समान बल एवं पराक्रम वाला’ की उपाधि अंकित मिलती है। रायचौधरी ने इस आधार पर यह प्रतिपादित किया है कि कुमारगुप्त प्रथम अपने पितामह (समुद्रगुप्त ) के समान दक्षिणी अभियान पर गया तथा नर्मदा नदी को पार कर व्याघ्र वाले जंगली क्षेत्रों को अपने अधीन करने का प्रयास किया। महाराष्ट्र के सतारा जिले से उसकी 1395 मुद्राएँ मिलती है। उसकी तेरह मु एलिचपुर (बरार) से मिलती है। किन्तु मात्र सिक्कों के आधार पर ही हम उसकी विजय का निष्कर्ष नहीं निकाल सकते। राधामुकुन्द मुकर्जी ने इसी प्रकार खंग-निहन्ता प्रकार के सिक्कों (नि कुमारगुप्त को गंडा मारते हुए दिखाया गया है) के आधार पर उसकी असम विजय का निःकर्ष निकाला है क्योंकि गेंडा असम में ही पाए जाते हैं। किन्तु यह मत भी काल्पनिक प्रतीत होता है।
पुष्यमित्र जाति का आक्रमण
अभिलेखों से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त प्रथम के शासन के अन्तिम समय में पुष्यमित्र नामक जाति ने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। कुमारगुप्त के पुत्र स्कन्दगुप्त के भितरी लेख में इस आक्रमण का उल्लेख मिलता है। पुष्यमित्रों की सैनिक शक्ति और सम्पत्ति बहुत अधिक थी। इस आक्रमण से गुप्तवंश की राजलक्ष्मी विचलित हो उठी तथा स्कन्दगुप्त को पूरी रात पृथ्वी पर ही जागकर बितानी पड़ी थी। दुर्भाग्यवश हमें इस आक्रमण का स्पष्ट विवरण अन्य नहीं मिलता दिवेकर महोदय ने मिनरी लेख में पुष्यमित्राश्च के स्थान पर ठ पढ़ा है तथा यह प्रतिपादित किया है कि यहाँ किसी जाति के आक्रमण का उल्लेख न होकर साधा म शत्रुओं का ही वर्णन हुआ है। परन्तु इस मत से सहमत होना कठिन है। विभिन्न स्रोतों से पर चलता है कि प्राचीन भारत में पुष्यमित्र नामक जाति थी। वायुपुराण तथा जैन कल्पसूत्र में इस जाति का उल्लेख मिलता है। वे नर्मदा नदी के मुहाने के समीप मेकल में शासन करते थे। वस्तुस्थिति कुछ भी हो, इतना स्पष्ट है कि आक्रमणकारी बुरी तरह परास्त हुए और उन्हें सफलता नहीं प्राप्त हो सकी। परन्तु इस विजय की सूचना मिलने के पहले ही वृद्ध सम्राट कुमारगुप्त दिवंगत हो चुका था।
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अश्वमेध यज्ञ
कुमारगुप्त के सिक्कों से पता चलता है कि उसने अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया था। अश्वमेध प्रकार के सिक्कों के मुख भाग पर यज्ञयूप में बँधे हुए घोड़े की आकृति तथा पृष्ठ भाग पर ‘श्रीअश्वमेधमहेन्द्र मुद्रालेख अंकित है। परन्तु अपनी किस महत्वपूर्ण उपलब्धि के उपलक्ष्य में कुमारगुप्त प्रथम ने इस यज्ञ का अनुष्ठान किया, यह हमें ज्ञात नहीं है।
धार्मिक नीति
अपने पूर्ववर्ती गुप्त शासकों की भांति कुमारगुप्त भी वैष्णव था। उसने परमभागवत की उपाधि धारण की थी। गढ़वा अभिलेख इस बात के साक्षी है कि उसने अपने शासन काल में बुद्ध, शिव, सूर्य आदि देवताओं की उपासना में किसी का विघ्न नहीं पड़ने दिया, बल्कि इसके लिए पर्याप्त सहायता एवं प्रोत्साहन दिया था। मनकुँवर अभिलेख से पता चलता है कि बुद्धमित्र नामक एक बौद्ध ने महात्मा बुद्ध की मूर्ति की स्थापना की थी। करमदण्डा लेख से पता चलता है कि उसका राज्यपाल पृथिवीषेण शैव मतानुयायी था। मन्दसौर लेख के अनुसार पश्चिमी मालवा में उसके राज्यपाल बन्धुवर्मा ने सूर्य मन्दिर का निर्माण करवाया था। इन उल्लेखों से कुमारगुप्त की धार्मिक सहिष्णुता प्रकट होती है। उसी के शासन में नालन्दा के बौद्ध महाविहार का निर्माण किया गया है। हुएनसांग के विवरण से पता चलता है कि इसका संस्थापक ‘शक्रादित्य’ था। इससे तात्पर्य कुमारगुप्त प्रथम से ही है जिसकी एक उपाधि महेन्द्रदित्य थी। दोनों शब्द समानार्थी है। वह एक उदार शासक था जिसने अनेक संस्थाओं को दान दिया।