कृषक समाज का अर्थ एवं परिभाषा लिखते हुए भारत में कृषक समाज की विशेषताओं बताइये।

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कृषक समाज का अर्थ

कृषक समाज का अर्थ – कृषक समाज का अभिप्राय ग्रामीण समाज से है जिसमें अधिकांश जनसंख्या कृषि पर निर्भर करती है। यह एक ऐसा समाज है जो सामान्य वृहद समाज का ही अंग होता है और राज्य व राष्ट्र के रूप में वृहद समाज की राजनैतिक इकाइयों से सम्बद्ध रहता है। भौतिक संस्कृति तकनीकी स्तर सामाजिक संगठन मूल्य और व्यक्तित्व प्रणाली की दृष्टिकोण से कृषक समाज सामान्य वृहद समाज से भिन्न होता है। इस प्रकार “कृषक समाज ऐसे ग्रामीण समाज का प्रतिनिधित्व करता है जो लोक समाज और सभ्यता के बीच की स्थिति में है।

नगरों के साथ आर्थिक और राजनैतिक सम्बन्ध बनाये रखने के कारण यह लोक समाज से भिन्न है, लेकिन अन्य गांवों के साथ सम्बन्धों की दृष्टि से, इससे उतनी ही प्राथमिकता पायी जाती है जितना की ‘लोक समाज’ में वास्तव में भारतीय ग्रामीण समाज को कृषक समाज के नाम से पुकारा जा सकता है क्योंकि इसमें हम स्थाई जनसंख्या कृषि पर निर्भरता और वृहद राजनीतिक इकाइयां जैसे राज्य व राष्ट्र के साथ सम्बद्धता देखते हैं। इस प्रकार कृषक समाज पूर्णतया कृषि पर आधारित है।” ग्रामीण समुदाय इसका समानार्थक शब्द है।

कृषक समाज की परिभाषा

विभिन्न विद्वानों ने कृषक समाज की निम्नलिखित परिभाषायें दी हैं

(1) रेमण्डफर्थ के अनुसार- “लघु उत्पादकों का समाज जो कि अपने निर्वाह के लिए कृषि (खेती) करता है, उसे कृषक समाज या ग्रामीण समाज कहा जा सकता है।”

(2) रेडफील्ड के अनुसार- “कृषक समाज में उन लोगों को शामिल किया जाना चाहिए, जिनमें दो लक्षण विद्यमान होते हैं-पहला यह कि कृषि उसकी आजीविका का साधन तथा जीवन निधि हो और दूसरा यह कि लाभ के लिए व्यापार उनकी वृत्ति न हो।”

(3) हेरेल्ड एफ.ई.पीके. के अनुसार, “ग्रामीण समाज परस्पर सम्बन्धित व्यक्तियों का वह समूह है जो एक कुटुम्ब से अधिक विस्तृत है और जो कभी नियमित, कभी अनियमित रूप से निकटवर्ती घरों में अथवा निकटवर्ती गली में रहते हैं। ये व्यक्ति कृषि योग्य भूमि में सामान्य रूप से खेती करते हैं और समतल भूमि को आपस में बांटकर बंजर भूमि को चराने में प्रयोग करते हैं तथा निकटवर्ती सीमाओं तक अपने समुदाय के अधिकार का दावा करते हैं।” करते हैं तो

इस प्रकार जब हम ‘ग्रामीण समाज’ अथवा ‘किसान समाज’ की बात इसका आशय एक ऐसे समाज से होता है, जिसके सदस्य कृषि द्वारा अपनी जीविका चलाते हैं।

कृषक समाज एक समुदाय के रूप में

कृषक समाज एक समुदाय है क्योंकि इसमें समुदाय में पाये जाने वाले निम्न तत्व पाये जाते हैं

  1. सामान्य भू-भाग- कृषक समाज के सभी सदस्य सामान्य भू-भाग के अन्तर्गत निवास करते है और सामान्यतया कृषि के माध्यम से अपनी जीविका अर्जित करते हैं।
  2. सामान्य जीवन-सभी सदस्य सामान्य जीवन में भाग लेते हैं। लगभग सामान्य तौर-तरीकों, प्रयासों व विश्वासों का अनुकरण करते हैं। सभी की जीवन पद्धति एक-दूसरे के समान होती है।
  3. मानव समूह का अस्तित्व कृषक समाज में कृषकों का समूह देखने को मिलता है। इस प्रकार मानव समुदाय की रचना का आवश्यक तत्व मानव समूह का अस्तित्व मौजूद रहता है। 4. सामुदायिक भावना – एक सा व्यवसाय सामान्य जीवन में भाग लेने के कारण सदस्यों से ‘हम भावना’ अर्थात् सामुदायिक भावना देखने को मिलती है जो समुदाय का आवश्य तत्व है।
  4. ग्रामीणत्व- कृषक ग्राम के जनजीवन में ग्रामीण मान्यताओं का अत्यधिक प्रभाव देखने को मिलता है। ली नेल्स एण्डरसन के अनुसार ग्रामीणत्व की धारणा में मानव तथा भूमि के सम्बन्ध का समावेश होता है। यह सम्बन्ध भूमि से पारिवारिक स्वामित्व अथवा परिवार के आधार पर मेहनत द्वारा जीवन यापन करने के रूप में प्रकट होता है।

योगासनों के चार उद्देश्य बताइए

भारत में कृषक समाज की विशेषतायें

कृषक समाज की महत्वपूर्ण विशेषताओं का उल्लेख निम्न प्रकार किया जा सकता है

  1. प्रकृति से निकटता-कृषक समाज के दैनिक कार्य प्रकृति द्वारा प्रभावित होते हैं। भूमि, जल, वनस्पति, पशु, पक्षी, कृषक समुदाय के लिए एक विशेष भौगोलिक पर्यावरण तैयार करते हैं।
  2. व्यवसाय कृषि – जीवन-यापन का प्रमुख साधन कृषि होता है। इस प्रकार भूमि के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध कृषक समाज की विशेषतायें हैं।
  3. विशेषीकरण का अभाव-प्रायः आवश्यकता की सभी वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है, उत्पादन की विधियों पीढ़ियों से एक जैसी चली जाती हैं और उनमें नवीन परीक्षणों की ओर सामान्यतया ध्यान नहीं दिया जाता है।
  4. सीमित आकार – कृषक समाज का आकार सीमित होता है। आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अन्य समुदायों पर कम निर्भर रहना पड़ता है।
  5. जनसंख्या का कम घनत्व-नगरों की तुलना में कृषक में जनसंख्या का घनत्व कहीं कम होता है। जनसंख्या की कमी के कारण जीवन में रीति-रिवाज तथा संख्याओं के स्वरूप का निर्धारण होता है।
  1. जनसंख्या की समरूपता-कृषक समाज के सभी व्यक्ति व्यवसाय आर्थिक स्थिति, विचार, रहन-सहन आदि की दृष्टि से एक समान होते हैं।
  2. गतिशीलता की कमी – कृषि से बंध रहने के कारण कृषक समाज में गतिशीलता। बहुत कम रहती है।
  3. सामाजिक स्तरीकरण-सामाजिक स्तरीकरण की दृष्टि से कृषक समाज परम्परागत है। अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति की स्थिति परम्पराओं द्वारा निर्धारित होती है।
  4. वैयक्तिक सम्बन्ध-कृषक समाज में पाये जाने वाले सम्बन्ध वैयक्तिक होते हैं। उनमें आत्मीयता या घनिष्टता देखने को मिलती है। यही कारण है कि कृषक समाज के सम्बन्धों में औपचारिकता तथा बनावट नहीं होती है।
  5. प्राथमिक समूहों द्वारा नियंत्रण-कृषक समाज में नियंत्रण के तौर पर परिवार जातीय पंचायत आदि प्राथमिक समूह महत्वपूर्ण कार्य करते हैं।
  6. सहयोग – कृषक समाज में पारस्परिक सहयोग के आधार पर सदस्य अपना कार्य करते हैं।

उपरोक्त विशेषताओं के अतिरिक्त भारतीय कृषक समाज में कृषि पर निर्भरता, भूमि पर जनसंख्या का अधिक दबाव, नातेदारी की व्यवस्था की जकड़न संयुक्त परिवार, जाति प्रथा, गुटों का बोलबाला, वैवाहिक प्रतिबंध, आर्थिक स्थिरता आदि तत्वों को विशेष तौर पर देखा जा सकता है।

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