केन्द्रीय / संघ मंत्रिपरिषद् की रचना, कार्यों एवं शक्तियों की विवेचना कीजिए।

0
23

केन्द्रीय / संघ मंत्रिपरिषद् की रचना – भारतीय संविधान के प्रावधानों के अनुसार संघ कार्यपालिका का अध्यक्ष भारत का राष्ट्रपति होता है और राज्यों में राज्यपाल कार्यपालक होता है। यद्यपि केन्द्र की कार्यपालक शक्ति राष्ट्रपति में निहित होती है तथापि व्यवहार में उसकी सहायता एवं सलाह देने के लिए मंत्रिपरिषद् होती है जिनका अध्यक्ष प्रधानमंत्री होता है। केन्द्रीय विधानसभा को संसद कहा जाता है। इसमें राष्ट्रपति तथा दो सदन शामिल होते हैं। निम्न सदन को हाउस ऑफ पीपल या लोकसभा कहा जाता है। कानून बनाने की सम्पूर्ण जिम्मेदारी प्रधानमंत्री पर होती है जो पिरिषद का अध्यक्ष होता है।

संविधान के अनुच्छेद 74 में बताया गया है कि राष्ट्रपति को उसके कृत्यों को पूरा करने में सहायता तथा परामर्श देने के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक मंत्रिपरिषद होगी। प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करेगा और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति प्रधानमंत्री के परामर्श से होगी जो राष्ट्रपति के प्रसाद-पर्यन्त पदासीन रहेंगे और मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी रहेगी।

संविधान के अनुसार राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है, लेकिन व्यवहार में राष्ट्रपति की शक्ति अत्यन्त सीमित है। राष्ट्रपति अनिवार्यतः बहुमत दल के नेता को ही प्रधानमंत्री पद ग्रहण करने के लिए आमन्त्रित करता है। कतिपय परिस्थितियों में राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री की नियुक्ति में स्वविवेक से कार्य करने का अवसर मिल सकता है। प्रथम, उस समय जबकि लोकसभा में किसी भी दल का बहुमत अस्पष्ट हो। द्वितीय उस समय जबकि बहुमत वाले दल में कोई निर्मित नेता नहीं रहे या प्रधानमंत्री पद के दो समान रूप से प्रभावशाली दावेदार हों। तृतीय, राष्ट्रीय संकट के समय राष्ट्रपति लोकसभा को भंग करके कुछ समय के लिए स्वेच्छा से कामचलाऊ सरकार का नेता मनोनीत कर सकता है।

सिद्धांतता अन्य मंत्रियों की नियुक्ति प्रधानमंत्री की इच्छा तथा परामर्श पर राष्ट्रपति करता है, लेकिन प्रधानमंत्री को भी मन्त्रियों की नियुक्ति में कई बातों का ध्यान देना होता है- यह अपने दल के प्रमुख और प्रभावशाली सदस्यों को नहीं भूल सकता, क्योंकि उनकी अप्रसन्नता से दल में असन्तोष और फूट पैदा होने का भय रहेगा। व्यवहार में मन्त्रियों की नियुक्ति के समय उसे दल के सदस्यों की स्थिति, समुदायों एवं भौगोलिक क्षेत्रों तथा दोनों सदनों को उचित प्रतिनिधित्व प्रदान करने पर गम्भीर विचार करना होता है। विज्ञान और तकनीकी विकास के इस युग में कतिपय विशेषज्ञों को भी मंत्रिमण्डल में स्थान प्रदान करना अपरिहार्य हो गया।

मन्त्री संसद का साधारण सदस्य होता है, किन्तु संसद का सदस्य न होते हुए भी वह मंत्री पद पर नियुक्त किया जा सकता है, किन्तु केवल 6 माह के लिए। उसके बाद उसे किसी भी सदन का सदस्य होना आवश्यक होता है। मन्त्री पद के लिए कोई शैक्षिक योग्यता आवश्यक नहीं है, लेकिन उसमें लोकसभा सदस्य की सभी योग्यताएं होना आवश्यक हैं।

वास्तव में मंत्रिपरिषद का अस्तित्व लोकसभा के विश्वास पर निर्भर करता है अर्थात् जब लोकसभा का विश्वास प्राप्त नहीं रहता, तो उसे अपना त्यागपत्र देना पड़ता है। व्यक्तिगत रूप से किसी मन्त्री का कार्यकाल प्रधानमन्त्री के विश्वास पर निर्भर करता है, क्योंकि मन्त्री की नियुक्ति एवं पद मुक्ति प्रधानमंत्री की सिफारिश पर ही होती है।

यद्यपि मंत्रिपरिषद तथा मंत्रिमण्डल दोनों ही संसदीय एवं लोकतात्रिक व्यवस्था से सम्बन्धित है लेकिन दोनों में अन्तर है मन्त्रिपरिषद में वे सब सदस्य होते हैं जो महत्वपूर्ण शासकीय पदों पर हो, जबकि मन्त्रिमण्डल में कुछ सीमित सदस्य रहते हैं। मन्त्रिमण्डल मन्त्रिपरिषद् की अन्तःपरिषद् होता है। प्रधानमन्त्री शासन के संचालन के लिए संसद के तीस-चालीस या इसके अधिक सदस्यों को नियुक्ति करता है। वे संसद के प्रति उत्तरदायी रहते हैं। इन्हें सामूहिक मन्त्रिमण्डल का प्रत्येक सदस्य मन्त्रिपरिषद् का भी सदस्य रहता है मन्त्रिमण्डल मन्त्रिपरिषद् की कार्यकारिणी समिति के रूप में कार्य करता है।

मन्त्रिपरिषद में पाँच स्तर के सदस्य होते हैं, जिनमें से केवल प्रथम स्तर के सदस्यों को सामूहिक रूप से ‘मन्त्रिमण्डल’ वा ‘कैबिनेट’ कहा जाता है मन्त्रिपरिषद् में निम्न पाँच स्तर के सदस्य होते हैं- (1) मन्त्रिमण्डल के सदस्य, (2) मन्त्रिमण्डल स्तर के मन्त्री होते हुए भी मन्त्रिमण्डल के सदस्य नहीं होते, (3) राज्यमन्त्री, (4) उपमन्त्री और (5) संसदय सचिव कैबिनेट मन्त्री अपने विभागों के अध्यक्ष होते हैं। शासन के प्रमुख विभागों, वित्त, गृह, वाणिज्य, उद्योग, कृषि, विदेश, विधि व न्याय के मन्त्रियों को आमतौर पर कैबिनेट मन्त्री का दर्जा दिया जाता है। कैबिनेट की बैठकों के लिए केवल कैबिनेट मन्त्रियों स्तर के मन्त्रियों को ही आमंत्रित किया जाता है। राज्य

मन्त्रियों का दर्जा कैबिनेट मन्त्रियों से कुछ नीचा है। कभी-कभी इन्हें भी विभागों का कार्य स्वतन्त्र रूप से दे दिया जाता है। वेतन तो उन्हें भी कैबिनेट स्तर के मन्त्रियों के बराबर ही मिलता है, पर वे कैबिनेट का अंग नहीं होते। मन्त्रिपरिषद की बैठकों में वे तभी भाग ले सकते है जब उनके विभाग के विषय में विचार हो रहा हो और उन्हें बैठक के लिए आमन्त्रित किया जाए। उपमन्त्री तीसरे दर्जे के मन्त्री होते हैं। वे कैबिनेट मन्त्रियों और राज्य मन्त्रियों के सहायक के रूप में कार्य करते हैं। ये किसी विभाग के स्वतन्त्र अध्यक्ष नहीं होते। संसदीय सचिव उपमन्त्री से निम्न स्तर पर होते हैं और संसदीय कार्यों में उन्हें सहायता करते हैं। प्रधानमन्त्री और उपर्युक्त चारों प्रकार के मन्त्रियों से मिलकर ‘मन्त्रिपरिषद् बनती है जबकि ‘मन्त्रिमण्डल’ केवल प्रधानमन्त्री और कैबिनेट स्तर के मुन्दियों से मिलकर बनती है।

मन्त्रिपरिषद् एक विशाल संस्था है, जबकि मन्त्रिमण्डल मन्त्रिपरिषद् के अन्तर्गत एक छोटा सा समूह होता है मन्त्रिमण्डल के सदस्य विभागों के अध्यक्ष होते हैं तथा प्रशासनिक नीति निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। रैम्जे म्योर के शब्दों में, “मन्त्रिमण्डल मन्त्रिपरिषद का हृदय है।”

मन्त्रिमण्डल के कार्य एवं शक्तियाँ

ब्रिटिश शासन पद्धति की तरह भारतीय शासन में भी मंत्रिमण्डल का अत्यन्त महत्व है। इसे भारतीय प्रशासन का हृदय कहा जा सकता है। ब्रिटिश मन्त्रिमण्डल के सम्बन्ध में कथित विविध उक्तियाँ भारतीय मन्त्रिमण्डल के सम्बन्ध में भी लागू होती है। भारत में मन्त्रिमण्डल के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-

(1) मन्त्रिमण्डल का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य राष्ट्रीय नीति निर्धारित करना है मन्त्रिमण्डल यह निश्चय करता है कि आन्तरिक क्षेत्र में प्रशासन के विभिन्न विभागों के द्वारा और वैदेशिक क्षेत्र में दूसरे देशों के साथ सम्बन्ध के विषय में किस प्रकार की नीति अपनायी जाएगी। मन्त्रिमण्डल के द्वारा नीति निर्धारित कर चुकने के बाद सम्बद्ध विभागों के द्वारा इस नीति के आधार पर विभिन्न विधेयक संसद में प्रस्तुत किए जाते हैं। इस प्रकार कानून निर्माण का कार्य बहुत कुछ सीमा तक मन्त्रिमण्डल की इच्छानुसार ही होता है। प्रशासनिक नियमों का निर्माण भी कैबिनेट ही करती है।

(2) संसद के दोनों सदनों में अधिकांश विधेयक मन्त्रियों द्वारा ही प्रस्तावित किए जाते हैं और जब तक मन्त्रिमण्डल को बहुमत का समर्थन प्राप्त रहता है तब तक उसके द्वारा प्रस्तुत विधेयक अवश्य ही स्वीकृत हो जाते हैं राष्ट्रपति यदि जरूरी समझे तो अध्यादेश जारी कर सकता है। अध्यादेश उतना ही प्रभावी होता है जितना संसद का कोई कानून राष्ट्रपति वास्तव में अध्यादेश जारी करने की शक्ति का उपयोग मन्त्रिमण्डल के परामर्श से ही करता है।

(3) सैद्धान्तिक दृष्टि से संघ सरकार की समस्त कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति के हाथों में हैं, लेकिन व्यवहार में इस प्रकार की समस्त कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग मन्त्रिमण्डल के द्वारा ही किया जाता है । मन्त्रिमण्डल में विभिन्न विभागों के अध्यक्ष होते हैं। वे अपने विभागों का संचालन करते और उनके कार्यों की देखभाल करते हैं।

सरकार की नीतियों को अमल में लाने के लिए मंत्रिमण्डल ही विभिन्न विभागों के बीच समन्वय स्थापित करता है तथा उन्हें एकता के सूत्र में बाँधता है। व्यवहारतः राष्ट्रपति के अधिकारों का प्रयोग मन्त्रिमण्डल ही करता है, इसलिए युद्ध, शान्ति या वैदेशिक नीति से सम्बन्धित प्रश्नों के निर्णय वही करता है।

(4) प्रशासनिक सुविधा के लिए सरकार को विभिन्न विभागों में विभाजित कर दिया जाता है, लेकिन इन विभिन्न विभागों में विभाजित होने पर भी सरकार में एक प्रकार की आंगिक एकता पायी जाती है और सुशासन के लिए प्रशासन के विभिन्न विभागों में समन्वय नितान्त आवश्यक होता है। विभिन्न विभागों में इस प्रकार का समन्वय स्थापित करने का कार्य मन्त्रिमण्डल के द्वारा ही किया जाता है।

(5) देश के आर्थिक नीति निर्धारित करने का उत्तरदायित्व भी मन्त्रिपरिषद् का ही होता है।इस हेतु उसके द्वारा प्रत्येक वर्ष संसद के सामने देश के सम्भावित आय-व्यय का ब्यौरा ‘बजट’ प्रस्तुत किया जाता है। बजट का निर्माण, करों का आरोपण और सरकार के सभी विभागों के लिए अनुमान तैयार करना मन्त्रिमण्डल का ही कार्य है मन्त्रिगण अपने-अपने विभागों की वित्तीय आवश्यकताओं के अनुमान वित्तमन्त्री के पास भेज देते हैं। बजट मन्त्रिमण्डल द्वारा निर्धारित नीति के आधार पर वित्तमन्त्री तैयार करता है। वित्तमन्त्री बजट प्रारूप को मन्त्रिमण्डल की स्वीकृति के लिए उसके समक्ष पेश करता है और मन्त्रिमण्डी की स्वीकृति के बाद ही राजकीय बजट लोकसभा में रखा जाता है। अन्य वित्त विधेयकों को भी मन्त्रिमण्डल ही लोकसभा में प्रस्तुत करता है।

भारतीय लोकसभा के गठन की विवेचना कीजिए।

(6) मंत्रिमण्डल के द्वारा ही देश के वैदेशिक सम्बन्धों पर नियन्त्रण रखा जाता है। विदेशी राज्यों के अध्यक्षों या सरकारों के साथ समस्त वार्ताओं का संचालन प्रधानमन्त्री या विदेश मन्त्री या प्रधानमन्त्री के किसी अन्य प्रतिनिधि द्वारा किया जाता है और जब इस वार्ता के परिणामस्वरूप कोई सन्धि या समझौता हो जाता है और संसद को उनके सम्बन्ध में सूचना दे दी जाती है और यदि आवश्यकता हुई तो संसद से उसकी स्वीकृति प्राप्त कर ली जाती है।

(7) सैद्धान्तिक रूप से राष्ट्रपति को जिन पदाधिकारियों को नियुक्त करने की शक्ति प्रदान की गयी है, व्यवहार में इन पदाधिकारियों की नियुक्ति मन्त्रिमण्डल के द्वारा ही की जाती है। मन्त्रिमण्डल के परामर्श से ही संसद के दोनों सदनों के मनोनीत सदस्य नियुक्त किए जाते हैं। राज्यों के राज्यपाल, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश, उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, महाधिवक्त्र, नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक और सेना के सेनापतियों की नियुक्ति परामर्श से ही की जाती है।

वास्तव में मन्त्रिमण्डल बहुत अधिक शक्तिशाली होता है और देश की समस्त राजनीतिक तथा प्रशासनिक व्यवस्था पर उसका अधिकार होता है।

मन्त्रिमण्डल की बैठकें

मन्त्रिमण्डल की बैठकें प्रधानमन्त्री की इच्छानुसार होती है और प्रधानमन्त्री के द्वारा ही इन बैठकों का कार्यक्रम निश्चित किया जाता है। साधारणतः मन्त्रिमण्डल की बैठक सप्ताह में एक बार होती है, लेकिन विशेष परिस्थिति में सप्ताह में एक बार से भी अधिक इसकी बैठकें हो सकती हैं। इन बैठकों में सभापति का स्थान प्रधानमन्त्री द्वारा ग्रहण किया जाता है। बैठकों की समस्त कार्यवाली गुप्त रखी जाती है । मन्त्रिमण्डल की बैठकों में जो कुछ भी निर्णय लिए जाते हैं, वे मन्त्रिमण्डल के सभी सदस्यों के लिए अनिवार्य रूप से मान्य होते हैं और मन्त्रिमण्डत का कोई सदस्य त्याग पत्र देकर ही इन निर्णयों का विरोध कर सकता है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here