कर्म एवं पुनर्जन्म सिद्धान्त
(1) हिन्दू जीवन-दर्शन में कर्म एवं पुनर्जन्म सिद्धान्त एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं। कर्म कारण है तथा पुनर्जन्म उसका परिणाम
(2) कर्म का तात्पर्य केवल शरीर द्वारा की गयी बाह्य क्रियाओं से ही नहीं है, बल्कि इसके अन्तर्गत शरीर, मन और वाणी द्वारा किये गये सभी कर्मों को सम्मिलित किया जाता है।
(3) कर्म का सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि व्यक्ति के कर्मों का प्रभावकभी समाप्त नहीं होता। व्यक्ति ने जैसे कर्म किये हैं उसका फल उसे अवश्य ही मिलेगा।।
(4) कर्म का फल केवल एक ही जीवन में समाप्त नहीं हो जाता, बल्कि कर्म का चक्र इतना अनन्त है कि जब तक व्यक्ति ‘ब्रह्म’ की प्राप्ति में असफल रहता है तब तक उसे निरन्तर किसी न किसी योनि में पुनर्जन्म लेना पड़ता है। यह क्रम सृष्टि के अन्त तक चलता रहता है और सृष्टि के पुनः आरम्भ होने के बाद भी उसके कर्म बीज के रूप में पुनः उसके पुनर्जन्म को प्रभावित करने लगते हैं। कर्म का प्रभाव इतना व्यापक है कि यह व्यक्ति को ही नहीं बल्कि उसके वंशजों तक को प्रभावित करता है।
(5) पुनर्जन्म का वास्तविक कारण व्यक्ति द्वारा किये गये कर्म ही हैं। व्यक्ति के कर्मों का प्रभाव क्योंकि एक जन्म में ही समाप्त नहीं होता, इसलिए उसे अपने कर्मों का फल भोगने के लिए बार-बार जन्म लेना पड़ता है। जातक अन्यों में तो यहां तक कहा गया है कि व्यक्ति जैसे कर्म करता है उसके अनुसार मृत्यु के समय ही उसके आगामी जन्म की कुण्डली तैयार हो जाती है।
(6) व्यक्ति को वर्तमान जीवन में प्राप्त होने वाले दुःख अथवा सुख उसके पूर्वजन्म के संचित कर्मों से प्रभावित होते हैं, जिसे ‘प्रारब्ध’ कहा जाता है। पूर्वजन्म के संचित कर्मों से बचे हुए फल तथा इस जीवन में किये गये कर्मों के फल के संयोग से ही व्यक्ति के आगामी जीवन का रूप निर्धारित होता है। इस प्रकार कर्मफल का प्रभाव भविष्य से सम्बन्धित है, वर्तमान से नहीं।
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(7) कर्म का तात्पर्य भाग्य से नहीं है। पूर्वजन्म के कर्मों के आधार पर ही वर्तमान ‘जीवन के रूप को ‘भाग्य’ समझकर सन्तोष कर लेने से तो आगामी जीवन भी दुःखमय हो जायेगा। इस प्रकार कर्म का सिद्धान्त इस आधार पर वैज्ञानिक हैं कि यह वर्तमान जीवन के प्रति सन्तोष और आगामी जीवन में सुधार लाने के लिए सकमों की प्रेरणा देता है।
.(8) व्यक्ति अपने कर्मों के अनुसार जन्म और मृत्यु के बन्धन से तब तक बंधा रहता है जब तक वह मोक्ष अथवा ब्रह्म को प्राप्त न कर ले। ऐसा केवल ज्ञान अथवा भक्ति से ही सम्भव है। भक्ति के द्वारा मोक्ष सामान्य प्राणियों के लिए सरल है जबकि ज्ञान-मार्ग कुछ कठिन होते हुए भी मोक्ष का निश्चित उपाय है। ज्ञान का तात्पर्य सभी प्राणियों और सभी परिस्थितियों में समता का भाव रखते हुए निष्काम रूप से कर्म करना है। इससे एक ओर व्यक्ति में अहम भाव दूर हो जाता है और दूसरी ओर वह सद्गुणों की ओर प्रवृत्त होता है। इस प्रकार कर्म के द्वारा मोक्ष प्राप्त करना ही इस सिद्धान्त का आधार है।
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