कनिष्क का जीवन – कुषाण सूची जाति की एक शाखा थी, जो मूलतः उत्तरी पश्चिमी चीन के कानस नामक प्रान्त में निवास करती थी। लगभग दूसरी शताब्दी ई.पू. के मध्य में सम्भवतः 165 ई.पू. में हियंगन नामक एक दूसरी जाति ने यूचियों की परास्त कर उन्हें उनकी जन्मभूमि से भगा दिया। घूमते घूमते ये लोग बैक्ट्रिया पहुँचे जहाँ पर उन्होंने अपना अधिकार जमाकर स्थायी रूप से निवास करने लगे। अब यूची पाँच शाखाओं में विभक्त हो गए। इन्हीं शाखाओं में से एक शाखा का नाम कुई आग अथवा कुषाण था, जिन्होंने कालान्तर में अन्य चार शाखाओं पर विजय प्राप्त कर अपने राज्य की वृद्धि प्रारम्भ की। सम्भवतः इसी समय से सूची कुषाण कहलाने लगे।
कनिष्क प्रथम- कनिष्क प्रथम कुषाण वंश का सबसे महान शासक था। यह सम्भवतः शिम केडफिसेस के पूर्वी भारतीय प्रान्त का प्रशासक था। विम केडफिसेस की मृत्योपरान्त इसने अपनी शक्ति को बढ़ाकर सत्ता पर काबिज हो गया। इसके राज्यारोहण की तिथि को लेकर विद्वानों में बर मतभेद है। सामान्यतया इसकी शासन अवधि 78 ई. से 101 या 102 ई. मानी जाती है।
कनिष्क की उपलब्धियाँ
कनिष्क का साम्राज्य विस्तार
कनिष्क पराक्रमी एवं महान विजेता था। उसने अपने जीवन का अधिकांश समय युद्धों में ही व्यतीत किया। कनिष्क ने भारत एवं मध्य एशिया में अनेक महत्वपूर्ण विजय प्राप्त कर कुषाण साम्राज्य की सीमा का विस्तार किया। राजतरंगिणी से ज्ञात होता है। कि कनिष्क ने कश्मीर पर अधिकार कर यहाँ कनिष्कपुर नामक नगर (आधुनिक कांजीपुर श्रीनगर के पास) की स्थापना की तिब्बती साहित्य से पता चलता है कि कनिष्क एक सेना के साथ सोकड (साकेत, अयोध्या) तक चला आया एवं साकेत के राजा को उसने युद्ध में पराजित कर दिया। कुमारलताकृत कल्पनामंडितिका के चीनी अनुवाद से पता चलता है कि कनिष्क ने पूर्वी भारत पर विजय प्राप्त की। अश्वघोष के चीनी जीवन वृत्तान्त से भी पता लगता है कि कुषाणों ने मगध पर आक्रमण कर यहाँ से गौतम बुद्ध का भिक्षापात्र तथा प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान एवं यर्शनिक अश्वघोष को पेशावर ले जाना चाहा। इस वृतान्त में दुर्भाग्यवश आक्रमणकारी का नाम नहीं दिया गया है, परन्तु सम्भवतः यह कनिष्क ही था। इसकी पुष्टि दूसरे ग्रन्थ से भी होती है। श्रीधर्मपिटकसम्प्रदायनिदान के अनुसार यू-ची राजा चियेन कि-नि-चा अपनी सेना के साथ मगध तक आया। यहाँ के राजा को उसने युद्ध में पराजित किया तथा अश्वघोष एक रसोइया एवं बुद्ध के भिक्षा पात्र के साथ वह अपनी राजधानी पुरुषपुर (पेशावर) वापस लौट गया। इन्हें वह युद्ध के हर्जाने के तौर पर अपने साथ ले गया। इन प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है कि कनिष्क ने मगध (पाटलिपुत्र) पर आक्रमण कर उसे जीत लिया था। इस क्षेत्र से प्राप्त कनिष्क के सिक्के भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं।
कनिष्क की सबसे महत्वपूर्ण विजयों में खोतान, काशगर और यारकंद की विजय थी। ये सभी स्थल मध्य एशिया के प्रमुख राज्य थे। ईसा के प्रथम शताब्दी में चीन का मध्य एशिया के राज्यों से सम्पर्क टूट गया था, परन्तु बाद में पान – चाऊ ने इन जगहों पर अधिकार कर चीनी साम्राज्य का विस्तार किया। पान चाऊ के इस अभियान से कनिष्क बड़ा क्रोधित हुआ। चीनी सम्राट होकी और कनिष्क दोनों ही महत्वकांक्षी व्यक्ति थे और अपना प्रभाव मध्य एशिया में अधिक-से-अधिक बढ़ाना चाहते थे। कनिष्क ने चीन के सम्राट के पास अपनी समकक्षता प्रकट करते हुए एक राजदूत को भेजा तथा यह भी मांग की कि चीनी राजकुमारी का विवाह उसके साथ कर दिया जाए। चीनी सेनापति ने इसे अपना एवं सम्राट का अपमान समझा तथा कनिष्क के राजदूत को कैद कर लिया। इस घटना की सूचना ने कनिष्क को क्रुद्ध कर दिया। उसने अपने सेनापति के अधीन एक विशाल सेना चीन के विरुद्ध भेजी, परन्तु इस युद्ध में कनिष्क की सेना को हार का मुँह देखना पड़ा तथा उसे चीनी सम्राट को कर देना पड़ा।
कनिष्क इस अपमान को बहुत दिनों तक बर्दाश्त नहीं कर सका। पान चाऊ की मृत्यु के पश्चात् उसने पुनः चीन पर आक्रमण कर दिया। इस बार कनिष्क की विजय हुई। उसने काशनगर, यारकंद एवं खोतान पर अपना आधिपत्य जमा लिया। कहा जाता है कि कनिष्क ने कुछ चीनियों को बन्धक भी बना लिया तथा उन्हें अपने दरबार में रहने को बाध्य किया। इन बन्धकों में दो चीनी राजकुमार भी थे। युवान च्वांग भी इस घटना का उल्लेख करता है। युवानच्वांग यह भी कहता है कि जाड़े में जहाँ राजकुमार रखे जाते थे वह जगह चीन-भुक्ति के नाम से प्रसिद्ध हुई। इन्हीं राजकुमारों ने भारत में सर्वप्रथम नाशपाती तथा आडू से लोगों को परिचित कराया। इन लोगों ने बौद्ध विहारों एवं दैत्यों के लिए दान भी दिया।
ऐसा प्रतीत होता है कि कनिष्क ने पर्शिया के शासक को भी परास्त किया था। परन्तु कनिष्क के इस विषय का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं प्राप्त होता है जिसके कारण इसकी प्रामाणिकता संदिग्ध है। मध्य एशिया की इस विजय ने कनिष्क के साम्राज्य की सीमा को काफी बढ़ा दिया था। उसका साम्राज्य अब मध्य एशिया के अगल समुद्र से लेकर गंगा की घाटी तक फैल गया। अभिलेखों एवं सिक्कों के प्राप्ति स्थान से कनिष्क के साम्राज्य की सीमा के विषय में जानकारी मिलती है। उसके अभिलेख अग्रलिखित स्थानों से प्राप्त हुए हैं। पेशावर (राज्यकाल का पहला वर्ष) काशम (दूसरा वर्ष), सारनाथ (तीसरा, मथुरा (चौया से तेइसव), सुईविहार (बहावलपुर) और जेदा (ग्यारहवाँ वर्ष) तथा मनिक्याला (रावलपिंडी, अट्ठारहवाँ इन अभिलेखों से ज्ञात होता है कि कनिष्क का साम्राज्य पूर्व में बनारस से लेकर दक्षिण-पश्चिम में बहावलपुर तक फैला हुआ था। उसके राज्य के अन्तर्गत उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रान्त तथा सिन्ध के क्षेत्र सम्मिलित थे। साँची अभिलेख (बाइसवाँ वर्ष) से यह भी पता लगता है कि सम्भवतः माला पर भी कनिष्क का अधिकार था जहाँ वशिष्क कनिष्क के प्रान्तपति के रूप में शासन करता था। सिल्वां लेवी और प्रो. बीदृएनद् मुखर्जी का विचार है कि कनिष्क का प्रभुत्व दक्षिण भारत पर भी था, यद्यपि इसके लिए काफी स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं है। पुरातात्विक खुदाइयों से भी कनिष्क के राज्य विस्तार की जानकारी मिलती है। बिहार में पाटलिपुर, बक्सर, चिरांद वैशाली एवं अन्य जगहों से कनिष्क के सिक्के काफी मात्रा में पाए गए हैं। इनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि बिहार पर भी कनिष्क का अधिकार था कुछ विद्वानों की यह भी
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कनिष्क का प्रशासन
एक विजेता के साथ-साथ कनिष्क एक कुशल प्रशासक भी था। उसने अपने साम्राज्य की शासन व्यवस्था को सुदृढ़ करने पर विशेष ध्यान दिया था। कनिष्क ने चीनी सम्राट के ही समान देवत्व एवं राजत्व में सम्बन्ध स्थापित करने की कोशिश की तथा देवपुत्र की उपाधि ग्रहण की। रोमन सम्राट के समान उसने कैसर की उपाधि भी धारण की। उसके साम्राज्य के अन्तर्गत दो राजधानियाँ थीं पुरुषपुर से मध्य एशिया एवं उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों पर नियन्त्रण रखा जाता था तथा मथुरा से पूर्वी भागों पर शकों की तरह कनिष्क ने भी क्षत्रपीय शासन व्यवस्था लागू की। सारनाथ अभिलेख से पता लगता है कि वहाँ पर खरपत्लन एवं वनस्पर उसके महाक्षत्रप एवं क्षत्रप थे। साम्राज्य के उत्तरी भागों में हम सेनानायक लल, बेसपति एवं लियाक नामक क्षत्रपों के नाम पाते हैं। वी.ए. स्मिय का विचार है कि सम्भवतः नहपान (महाराष्ट्र का क्षहरातवंशी) एवं चष्टन (उज्जयिनी का क्षत्रप) कनिष्क के सामन्त थे।
कनिष्क की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
कनिष्क यद्यपि बौद्ध धर्म को प्रश्रय देता था, तथापि यह धार्मिक दृष्टिकोण से उदार शासक था इसका प्रमाण हमें उसके सिक्को से मिलता है। उसके सिक्कों पर बुद्ध के अतिरिक्त यूनानी, ईरानी एवं हिन्दू देवताओं के चित्र भी मिलते हैं। इन देवताओं में हेराक्लीज, सूर्य, शिव, अग्नि इत्यादि प्रमुख है। कुछ ताम्र सिक्कों में उसे वेदी पर बलि चढ़ते हुए भी दिखाया गया है।”
स्थापत्य एवं मूर्तिकला को इस समय काफी प्रोतसाहन मिला। स्थापत्य के क्षेत्र में पुरुषपुर का स्तूप एवं मथुरा का मन्दिर एवं देवकुल कनिष्क के समय की बहुमूल्य उपलब्धियाँ है। महायान धर्म के प्रचार के चलते बुद्ध की प्रतिमाएं काफी संख्या में बनने लगी। गान्धार शैली एवं मथुरा शैली दोनों का ही इस समय काफी विकास हुआ। कनिष्क के सिक्के भी कला के अनूठे नमूने हैं।
कनिष्क विद्वानों को समुचित आदर एवं प्रश्रय देता था। अश्वघोष ने संस्कृत में बुद्धचरित एवं सौन्दरानन्द नामक काव्यों की रचना की। संघरक्षक एवं माथ या मातश्चेट जैसे विद्वान भी कनिष्क का प्रश्रय प्राप्त करते थे। प्रसिद्ध आयुर्वेदशास्त्र का विद्वान चरक एवं प्रसिद्ध यूनानी इंजीनियर एगिसिलेबस को भी कनिष्क ने प्रोत्साहन दिया। संस्कृत भाषा का इस समय काफी विकास हुआ।
कनिष्क प्रथम के शासन काल में भारत का मध्य एशिया के साथ घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित हुआ जिसके कारण व्यापार वाणिज्य एवं नगरों के निर्माण में बड़ी मदद मिली। कनिष्क के ही शासन काल में सिरकप एवं कनिष्कपुर नगर की स्थापना हुई।
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व्यापार वाणिज्य का विकास
कनिष्क के काल में भारत का मध्य एशिया के साथ घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित हुआ जिसके कारण व्यापार वाणिज्य एवं नगरों के निर्माण में बड़ी मदद मिली। कनिष्क के ही शासन काल में सिरकप एवं कनिष्कपुर नगर की स्थापना हुई।
इस प्रकार कनिष्क का शासन काल उन्नति एवं समृद्धि का काल था। उसने लगभग 23 वर्षे (78 से 101 या 102 ई.) तक शासन किया। कनिष्क की मृत्यु के विषय में अनुश्रुतियों में वर्णन प्राप्त होता है। अनुभूतियों के अनुसार, कनिष्क के मंत्रियों एवं सम्बन्धियों ने युद्ध से तंग आकर निद्रावस्था में उसकी हत्या कर दी। परन्तु इसमें कितनी सच्चाई है, यह कहना कठिन है।