कलिंगराज’ खारवेल चेदिवंश का सर्वाधिक महान शासक था। भुवनेश्वर के पास उदयगिरि की पहाड़ियों की गुफा से प्राप्त हाथीगुम्फा अभिलेख’ से खारवेल के जीवन एवं कार्य-कलापों पर प्रकाश पड़ता है। खारवेल के विषय में जानकारी प्राप्त करने के अन्य साधन नगण्य है। हाथीगुम्फा अभिलेख से कलिंग नरेश के आरम्भिक जीवन से लेकर उसके 134 राजर्ष तक की महत्वपूर्ण घटनाओं की सूचना मिलती है। अभिलेख में उसे यदि वंश के सूर्यवंशी राजर्षि वसु का वंशज बताया गया है। खारवेल के जीवन के आरम्भिक वर्ष खेल-कूद तथा राजोचित शिक्षा प्राप्त करने में व्यतीत हुए राजा बनने के पूर्व उसे अनेक प्रकार की शिक्षा दी गई थी। वह मुद्रा, गणना, व्यवहार एवं विधि में निपुण था। सम्भवतः चेदिवंश के दूसरे शासक, महामेघवाहन के राज्यकाल के दौरान, 16 वर्ष की आयु में खारवेल को युवराज (राजा का उत्तराधिकारी) बनाया गया। युवराज के रूप में उसने पर्याप्त प्रशासनिक प्रशिक्षण हासिल किया। वह 9 वर्षों तक युवराज बना रहा। महामेघवाहन की मृत्यु के पश्चात् अपने 24वें वर्ष में खारवेल कलिंग का शासक बना। खारवेल के राज्यारोहण की तिथि विवादास्पद है, परन्तु सम्भवतः 28 ई.पू. में उसका अभिलेख हुआ उसने कलिंगाधिपति और कलिंगचक्रवर्ती की उपाधियाँ धारण की। उसने हत्थिसिंह या हत्यकसिंह के पौत्र तलाक की पुत्री से अपना विवाह किया। उसके शासनकाल की प्रमुख घटनाओं का वर्णन इस प्रकार है
पहला वर्ष – खारवेल ने अपने शासन का प्रथम वर्ष अपनी स्थिति सुदृढ़ करने में व्यतीत किया कलिंगनगर में अनेक निर्माण कार्य किए गए। उसने अपनी राजधानी कलिंगनगर में अनेक निर्माण कार्य किए। राजधानी का प्राचीर और द्वार टूट चुके थे, जिनकी मरम्मत उसने करवायी। दुर्गे का भी जीर्णोद्धार किया। उसने शीतल जल से युक्त और सीढ़ियों से अलंकृत तड़ागों का निर्माण कराया और 35 लाख मुद्रा से जनता के मनोविनोद का प्रबन्ध करवाया। इसके बाद उसने युद्ध की दुन्दुभी बजायी।
दूसरा वर्ष – खारवेल ने अपने शासनकाल के दूसरे वर्ष से विजयाभियान प्रारम्भ किया। सातवाहन शासक शातकर्णि को तुच्छ समझते हुए उसने एक विशाल सेना पश्चिम की ओर भेजी। यह सेना कण्णवेना नदी तक पहुँच गई और इसने मुमिकनगर (ऋषिकनगर) को आतंकित कर दिया। कुछ विद्वानों की धारणा है कि वस्तुतः उसने यह सेना शातकर्णि की सहायता के लिए भेजी थी। ऐसा सम्भव भी है क्योंकि खारवेल और शातकर्णि में संपर्व का कोई प्रमाण नहीं मिलता। सेना के राजधानी वापस आने पर उसने विजयोत्सव मनाया।
तीसरा वर्ष – तीसरे वर्ष उसने नगर को संगीत-नृत्य आदि से उल्लसित कर दिया।
चौथा वर्ष – खारवेल ने भोजिकों और राष्ट्रकों पर आक्रमण किया। ये लोग पराजित हुए और उन्हें उसकी अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। इस युद्ध के सम्बन्ध में विद्याधरों का उल्लेख किया गया है। (विद्याधरी जैनियों की एक शाख
पाँचवाँ वर्ष- उसने तनसुलि से अपनी राजधानी में एक नहर का विस्तार करवाया, जिसका निर्माण 300 वर्ष पूर्व मगधराज नन्दराज ने किया था।
छठा वर्ष- अपनी समृद्धि का प्रदर्शन करते हुए खारवेल ने प्रजा के अनेक कर माफ गर दिए। इस प्रकार दक्षिण और पश्चिम में अपना विस्तार कर लेने के बाद उसने उत्तर भारत की ओर ध्यान दिया।
सातवाँ वर्ष – इस वर्ष के सम्बन्ध में पाठभेद है और विद्वानों में मतभेद है। सप्तम वर्ष में उसने सैकड़ों घोड़ों का संगठन किया और नए-नए खीचित घर बनवाए, जिनको उठाकर ले जाया जा सकता था। जायसवाल के अनुसार उसकी पत्नी वजिरघरवती ने शुभलग्न में माता बनने की प्रतिष्ठा प्राप्त की।
आठवाँ वर्ष – उसने उत्तरी भारत पर आक्रमण किया। उसकी सेनाएँ बरार की पहाड़ियों को (गया जिला) पार करती हुई आगे बढ़ीं। मार्ग में उन्होंने कई दुर्ग नष्ट कर दिए और अन्त में राजगृह को घेर लिया। उसके आक्रमण से यवनराज (दमित) की सेना में आतंक छा गया और वह भय होकर मथुरा भाग गया।
नव वर्ष – उसने प्राची नदी के दोनों ओर एक महाविजयप्रासाद बनवाया।
दसवाँ वर्ष- उसने पुनः उत्तर भारत पर आक्रमण किया। इनमें उसने साम, दाम, दण्ड, भेद आदि का भी प्रयोग किया।
ग्यारहवाँ वर्ष- उसने फिर दक्षिण भारत पर आक्रमण किया और पिवुड नगर को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। पिशुंड नगर को गदों के हल से जुतवा दिया और 113 वर्ष पुराने तमिलदेश में कठोर शासन को भंग कर जनता को मुक्त किया।
बारहवाँ वर्ष – खारवेल ने फिर उत्तर भारत पर आक्रमण किया और अपने हाथी घोड़ों को गंगा में स्नान करवाया। मगध नरेश बृहस्पतिमित्र ने उसके समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। खारवेल प्रचुर धनराशि लेकर कलिंग लौटा। लूट की सामग्री के साथ वह कलिंग के जिन शीतलनाथ की मूर्ति भी वापस ले गया था, जिसे नन्दराज कलिंग से उठा ले आया था। अंग और मगध से वह कार्य सम्पत्ति लेकर लौटा।
तेरहवाँ वर्ष – कलिंगराज खारवेल ने अपने शासन का तेरहवां वर्ष निर्माण कार्यों में व्यतीत किया। इसने भक्तों के लिए मन्दिर एवं गुफाओं का निर्माण करवाया। खारवेल ने अपने राज्य में एक शिखर गोपुर एवं एक मन्दिर तथा हस्तिशाला का निर्माण करवाया था।
प्रो. राधाकृष्ण चौधरी ब्रह्माण्डपुराण की एक उहिया प्रतिलिपि के आधार पर यह दावा करते हैं कि खारवेल ने भुवनेश्वर में एक मन्दिर का निर्माण कराया। उस पुराण में खारवेल के नेपाल पर आक्रमण की चर्चा है, परन्तु उसके अभिलेख में इसका कोई वर्णन नहीं मिलता है। जैनधर्मावलम्बी होने के कारण उसने उदयगिरि में जैन संन्यासियों के लिए गुफागृह बनवाया। उसने जैनियों के लिए एक विशाल सभाभवन का भी निर्माण करवाया था। इस भवन में विशाल स्तम्भ थे और स्थापत्य कृतिसमूह से इसे अलंकृत किया गया था। वह अन्य धर्मों के प्रति भी सहिष्णु था, क्योंकि हाथीगुम्फा अभिलेख में कहा गया है कि उसने समस्त देवालयों का जीर्णो(र करवाया था।
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हाथीगुम्फा अभिलेख में खारवेल के व्यक्तिगत चरित्र की भी प्रशंसा की गई है। यह एक दीर सोद्धा एवं कुशल सेनापति था। वह विद्वानों की इज्जत करता था तथा उन्हें प्रश्रय भी देता था। अपनी प्रजा की सुख-सुविधा के लिए उसने अनेक कदम उठाए। जैन धर्मावलम्बी होते हुए भी उसने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनायी। वस्तुतः, उसके शासन में कलिंग ने फिर से अपना पुराना गौरव प्राप्त कर लिया।
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