कलचुरि – चन्देल राज्य के दीक्षिण में चेदि के कलचुरियों का राज्य स्थित था। उसकी राजधानी त्रिपुरी में थी जिसकी पहचान मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले में स्थित तेवर नाम के ग्राम से की जाती है। चेदि पर शासन करने के कारण उन्हें चेदिवंश का भी कहा जाता है। लेखों में वे अपने को हैहयवंशी सहस्त्रार्जुन कीर्तिवीर्य का वंशज कहते हैं जिससे लगता है कि वे चन्द्रवंशी क्षत्रिय थे।
पूर्व मध्यकालीन भारत में कलचुरि वंश की कई शाखाओं के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है। कलचुरियों की प्राचीनतम शाखा छठीं शती में माहिष्मती में शासन करती थी। इसका संस्थापक कृष्णराज था। उसका पौत्र बुद्धराज कन्नौज नरेश हर्ष एवं बादामी के चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय का समकालीन था। उसके पूर्वजों कृष्णराज एवं शंकरगण का महाराष्ट्र, गुजरात, राजपूताना कोंकण आदि पर अधिकार था। पुलकेशिन के सैनिक अभियान ने उन्हें उत्तर भारत की ओर विस्थापित कर दिया। इसके बाद कुछ समय तक कलचुरियों का इतिहास अन्धकारपूर्ण हो गया। चालुक्यों तथा प्रतिहारों के दबाव के कारण कलचुरि बुन्देलखण्ड तथा बघेलखण्ड की ओर बढ़े तथा कालिंजर के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। किन्तु शीघ्र ही प्रतिहारों ने उन्हें वहाँ से भी हटा दिया।
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तत्पश्चात् कलचुरि गोरखपुर तथा देवरिया जिलों की भूमि पर पूर्वी उत्तर प्रदेश में फैल गये। यहाँ उनकी सत्ता का संस्थापक राजा राजपुत्र था। कहला तथा कसिया लेखों से पता चलता है कि यहाँ दो कलचुरि वंश शासन कर रहे थे। गोरखपुर क्षेत्र में इस वंश के शासन का प्रारम्भ नवीं शती में प्रारम्भ हुआ। राजपुत्र की दसवीं पीढ़ी में सोढ़देव राजा हुआ। राजपुत्र के बाद शिवराज तथा शंकरगण प्रथम राजा बने। इनकी किसी भी उपलब्धि के विषय में पता नहीं चलता। शंकरगण को ही सम्भवतः त्रिपुरी के कलचुरि नरेश कोक्कल प्रथम ने अभयदान दिया था। उसका उत्तराधिकारी गुणाम्बोधि हुआ’ गुणाम्बोधि तथा उसके उत्तराधिकारी गुर्जर प्रतिहारों के अधीन सामन्त थे। अगला राजा भामान ने प्रतिहारों के सामन्त के रूप में धारा के परमार राजा से युद्ध कर ख्याति प्राप्त किया। इस वंश का दसवाँ राजा सोढ़देव हुआ। उसने घाघरा तथा गण्डक के किनारे एक स्वाधीन राज्य कायम कर लिया। ‘परममाहेश्वर’ की उपाधि से उसका शैव होना सूचित होता है। सोढ़देव के उत्तराधिकारियों के विषय में हमें पता नहीं है। सम्भवतः वह इस वंश का अन्तिम स्वतन्त्र राजा रहा हो। ग्यारहवीं शती में कन्नौज के गाहड़वालों के उत्कर्ष के साथ ही कलचुरि सत्ता का अन्त हो गया तथा बनारस एवं कन्नौज से लेकर अयोध्या तक का क्षेत्र गाहड़वालों के अधीन आ गया।
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