कैथोलिक धर्म सुधार आन्दोलन क्या था? इसकी सफलता के कारणों पर प्रकाश डालिए।

कैथोलिक धर्म सुधार आन्दोलन यूरोप में 1560 ई. तक प्रोटेस्टेन्ट मत का प्रसार जर्मनी, इंग्लैण्ड, पोलैण्ड, स्विट्जरलैण्ड, नीदरलैण्ड, स्कैंडिनेविया, हंगरी, स्पेन, फ्रांस, इटली आदि देशों में चुका था। अतः इस समय कैथोलिक चर्च के समक्ष सबसे बड़ी समस्या यह थी कि खोयी हुई प्रतिष्ठा और महत्व को किस प्रकार से पुनःस्थापित किया जाये। कैथोलिक चर्च की महत्ता और प्रतिष्ठा की पुनर्स्थापना करने तथा प्रोटेस्टेन्टवाद के प्रसार से रोक लगाने के लिए कैथोलिकों ने चर्च के शुद्धीकरण हेतु कार्य और प्रयास किए, उसे ही ‘प्रति धर्म-सुधार आन्दोलन’ अथवा ‘कैथोलिक धर्म-सुधार आन्दोलन’ कहा जाता है।

सोलहवीं शताब्दी में प्रोटेस्टेन्ट आन्दोलन का जर्मनी, स्कॉटलैण्ड, इंग्लैण्ड, स्विट्जरलैंड, पोलैण्ड आदि में व्यापक प्रसार हो गया था। नीदरलैण्ड जैसे कैथोलिक देश में काल्विनवाद का उदय हो रहा था, जो रोमन कैथोलिकों के लिए सीधे चुनौती थी। बोहीमिया हंगरी में भी प्रोटेस्टेन्ट आन्दोलन का उदय होने लगा था। रोमन कैथोलिकों के मुख्य केन्द्र इटली में भी प्रोटेस्टेन्ट आन्दोलन के चिन्ह पाये जाने लगे थे। इस प्रकार यूरोप में प्रोटेस्टेन्ट आन्दोलन तीन मुख्य रूपों में फैला था- लूथरवाद, काल्विनवाद, एंगलिकनवाद ।

सुधारात्मक प्रयास

प्रोटेस्टेन्ट चर्च का इस प्रकार फैलना कैथोलिकों के लिए पराजय थी और इस आन्दोलन ने कैथोलिकों के धार्मिकों तथा राजनीतिक महत्त्व को लगभग समाप्त कर दिया था। कैथोलिक चर्च अस्तित्वहीन हो गया था। इन परिस्थितियों से कैथोलिक धर्मावलम्बियों में अपने धर्म की समीक्षा करने तथा सुधार करने की प्ररेणा जागृत हुई। सुधारों के प्रश्न पर कैथोलिकों के समक्ष दो विचारणीय तथ्य थे। प्रथम, कैथोलिक चर्च अपनी प्राचीन मान मार्यादा पाने के लिए प्रोटेस्टेन्ट आन्दोलन को समाप्त करना चाहता था और द्वितीय, कैथोलिक विचार कैथोलिक चर्च में उत्पन्न बुराइयों को समाप्त करना चाहते थे। ये लोग कैथोलिक धर्म के सिद्धान्तों, रीति-रिवाजों में सुधार करके रोमन कैथोलिक एकता को स्थायी रखना चाहते थे। इनका विचार था कि सुधारों के माध्यम से कैथोलिक चर्च में विकसित दोषों को दूर करके उसमें एक नीवन आध्यात्मिक प्रेरणा उत्पन्न की जाये।

सर्वप्रथम कैथोलिक चर्च में सुधार आन्दोलन स्पेन में आरम्भ हुआ। स्पेन की जनता को दीर्घकाल तक मुसलमानों में संघर्ष करना पड़ा था, अतः वहाँ पर यूरोप के किसी भी देश से अधिक धर्मिक ऐकता पाई जाती थी नवीन युग के धार्मिक आन्दोलनों का स्पेन में कोई अधिक प्रभाव नहीं था। स्पेन की जनता कहर कैथोलिक थी। स्पेनिश राजतंत्र एवं चर्च का गहन सम्बन्ध था। कैथोलिक सुधारों का दूसरा केन्द्र इंटली था, जिसे कैथोलिकवाद का केन्द्र स्वीकार किया जाता था। 1526 ई. में यहाँ चर्च में एक सुधारित व्यवस्था को जन्म दिया। गया था, जिसका उद्देश्य सन्त फ्रांसिस को प्रमुखता प्रदन करना था। 1534 ई. में पाल तृतीय पोप बना और कैथोलिक धर्म सुधार की प्रक्रिया ती हुई कैथोलिक धर्म सुधार के क्षेत्र में इटली की राजनीति एवं धर्म का निर्धारण स्पेन की राजनीति तथा धर्म पर निर्धारित रहा था। कैथोलिक धर्म सुधार को सफल बनाने हेतु चार साधनों का उपयोग किया गया था

  1. ट्रेन्ट की कौंसिल,
  2. इमेशियम लायोला एवं जेसुइट संघ,
  3. धार्मिक न्यायालय
  4. राजनैतिक परिस्थितियाँ।

1.ट्रेन्ट की कौंसिल

सुधारवादी धर्माधिकारियों के सुधारात्मक कार्यों को धर्मा सामाओं में बड़ी प्रेरणा मिली थी। इन धर्म सामाओं का आयोजन ट्रेन्ट नगर में तीन बार हुआ था 1. प्रथम सभा (1545-47 ई.), द्वितीय सभा (1551-52), 3. तृतीय सभा (1562-63 )1 आरम्भ में पोप ने इस धार्मिक सभा पर नियंत्रण स्थापित किया था परन्तु यह नियंत्रण

स्थाई नहीं रहा। धर्म सभा का मुख्य उद्देश्य था- (1) कैथोलिक एवं प्रोटेस्टेन्ट के मतभेदों को दूर करना, तथा (2) राजनैतिक एकता तथा चर्च की धार्मिक एकता को पुनः स्थापित करना । इस सभा के अन्तिम सम्मेलन में पोप पाल चतुर्थ ने कैथोलिक शासकों से समझौता करके कैथोलिक सिद्धान्तों को सुदृढ़ कर लिया था। इस सभा के निर्णयों के अनुसार चर्च के अधिकारियों को पवित्र सदाचारी एवं अनुशासन युक्त जीवन व्यतीत करने के लिए कहा गया। धार्मिक पदों का क्रय-विक्रयं बन्द कर दिया। पादरियों की नियुक्ति योग्यता के आधार पर की जाने लगी। बाइबिल का लेटिन संस्करण ही मान्य घोषित किया गया, अन्य सभी पुस्तकें अमान्य घोषित कर दी गई थीं।

2. इग्नेशियस लायोला एवं जेसुइट संघ

कैयोलिक धर्म सुधार में जेसुइट संघ से अधिक प्रभावशाली सुधारक अन्य किसी संस्था के, नहीं थे। इस संघ से व्यक्ति अत्यधिक शक्तिशाली थे एवं एवं ये लोग पुर्णरूपेण पोष पर निर्भर थे। जब मार्टिन लूथर को सम्राट चार्ल्स ने अपने विचारों को स्पष्ट करने के लिए बुलाया था, तो इग्रशियस लायोला बचाव कैथोलिक सुधारों की योजना बना रहा था। यह एक सैनिक था तथा चार्ल्स की सेना का वीर था। फ्रांस के साथ युद्ध में यह घायल हो गया था अपने इलाज के मध्य ईसामसीह के जीवन चरित्र का अध्ययन किया तथा विभिन्न सन्तों के चरित्रों का अध्ययन किया, तदुपरान्त इसका हृदय परिवर्तन हो गया। अब वह चर्ल्स के सैनिक के स्थान पर पोप का भक्त बन गया एवं ईश्वर भक्ति की ओर उन्मुख हो गया था। लाखोला का विचार था कि उसकी धार्मिक शिक्षा पर्याप्त नहीं है,

अतः उसने 1528 ई. में 33 वर्ष की आयु में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की और अगले सात वर्ष तक वह फ्रांस के विश्वविद्यालय में अध्ययन करता रहा। यहाँ पर उसके बहुत से समर्थक बन गए थे, जिन्हें वह कैथोलिक धर्म सुधार में लगाना चाहता था। लायोला के पास सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पूँजी मानव मस्तिष्क की गति को अध्ययन करने की अन्तर्दृष्टि थी। लायोला ने अपने विशिष्ट साथियों जिनकी संख्या छः थी, एक समिति की स्थापना की (1534 ई.) 1540 ई. में इन्हें अपने कार्य, योजना में पोप पाल तृतीय का पूर्ण समर्थन प्राप्त हो गया था। इस संस्था का नाम अब ‘जेसुइट संघ’ रखा गया। इस संघ के सदस्यों की संख्या बढ़ती चली गई। इस संघ का उद्देश्य पवित्र रोमन कैथोलिक धर्म की सुरक्षा करना था।

3. धार्मिक न्यायालय

स्पेन तथा इटली में धार्मिक न्यायालय की स्थापना की गई थी, जिसका उद्देश्य धर्म विरोधी तत्वों को दण्डित करना था। इस धार्मिक न्यायालय ने इटली तथा स्पेन से कैथोलिक विरोध को लगभग समाप्त कर दिया था। चर्च की आलोचना करने वालों को इन न्यायालयों में प्रस्तुत करके उन पर मुकदमा चलाया जाता था। यह न्यायालय किसी भी व्यक्ति को बन्दी बनाये जाने, उसकी सम्पत्ति को जब्त करने और उसें मृत्यु-दण्ड तक देने का अधिकार रखता था। धार्मिक न्यायालयों के निर्णयों के सम्बन्ध में अन्तिम अपील सुनने का अधिकार केवल पोप को ही थी। स्पेन में इस न्यायालय का इतनी कठोरता से प्रयोग किया गया कि वहाँ प्रोटेस्टेन्ट सम्प्रदाय की छाप ही मिट गयी। इसके कारण नीदरलैण्ड्स में व्यापक असन्तोष फैला, जिससे भीषण विद्रोह का विस्फोट हुआ। इटली में भी इन न्यायालायों के माध्यम से प्रोटेस्टेन्ट सम्प्रदास का समूल दमन किया गया।

4. राजनैतिक परिस्थितियाँ

प्रोटेस्टेन्ट धर्म की सफलता का कारण राजकीय संरक्षण था। ठीक इसी प्रकार कैथोलिक धर्म को भी राजकीय संरक्षण प्राप्त करने हेतु, फ्रांस एवं पोप के मध्य सन्धि हुई जिसके आधार पर फ्रांस में कैथोलिक धर्म सृदृढ़ हो गया था फ्रांस के राजतंत्र को भी कैथोलिक जनता का समर्थन प्राप्त हो गया। इसी प्रकार की सन्धियाँ स्पेन, पुर्तगाल तथा आस्ट्रिया के साथ पोप के सम्पन्न की थीं। इन सभी देशों में कैथोलिक धर्म सदृढ़ता के साथ स्थापित हो गया था।

कैथोलिक धर्म सुधार की सफलता के कारण

रोमन कैथोलिक चर्च के पुनरुत्थान के कारण राजनैतिक तथा आर्थिक थे। कैथोलिक धर्म में पुनः सुधार के कारण यह धर्म सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी में यूरोप में फिर सुदृढ़ता के साथ स्थापित हो गया था। यद्यपि कैथोलिक धर्म सुधार यह था कि धार्मिक सम्प्रदायों की स्थापना के पश्चात् भी अधिकांश जनता कैथोलिक ही बनी रही थी। शक्तिशाली सम्राट चार्ल्स पंचम तथा फिलिप कैथोलिक धर्म के ही अनुयायी थे। पोप धार्मिक शक्तियों का प्रयोग करके राजाओं पर नियंत्रण रखता था। फ्रांस में पूर्ण राजतंत्र ही कैथोलिक स्थापना का मुख्य कारण था। फ्रांस के साथ ही स्पेन तथा पुर्तगाल ने भी पोप के प्रभुत्व को स्थापित करने का प्रयास किया था। इस्लाम का प्रसार भी कैथोलिक धर्म के उत्थान का प्रमुख कारण था, क्योंकि पोप इस्लाम के विरुद्ध राजाओं को धर्म-युद्ध की प्रेरणा देता था। मार्टिन लूथर के पश्चात् प्रोटेस्टेन्ट धर्म में कोई प्रभावशाली व्यक्तित्व नहीं था, अतः कैथोलिक धर्म को पुनरूत्थान हो गया। प्रोटेस्टेन्ट धर्म में भी कालान्तर में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गई थी, अतः कैथोलिक धर्म में पुनः जनता के आस्था उत्पन्न हो गई और यह धर्म लोकप्रिय होता चला गया।

पुनर्धार्मिक उत्थान का प्रभाव

धर्म सुधार आन्दोलन के बड़े व्यापक प्रभाव दृष्टिगत हुए। सबसे महत्वपूर्ण परिणाम ईसाई जगत् का तीन भागों में विभक्त होना था। कैथोलिक का प्रभाव क्षेत्र इटली, स्पेन, पुर्तगाल, फ्रांस, नीदरलैण्ड, आयरलैण्ड, पोलैण्ड, लिथुआनिया, स्विट्जरलैंड, मैक्सिको, फिलीपीन तथा दक्षिणी एवं मध्य अमेरिका आदि पर था। रूढ़िवादी चर्च (आरथोडक्स चर्च) का विस्तार यूनान, बाल्कन क्षेत्र रूमानिया एवं रूस आदि में था। प्रोटेस्टेन्ट चर्च उत्तरी एवं मध्य जर्मनी, फिनलैण्ड, इस्टोनिया, स्कॉटलैण्ड, इंग्लैण्ड में स्थापित हो गया था।

इन आन्दोलनों के परिणामस्वरूप यूरोप में सुदृढ़, राजतन्त्रों का विकास हुआ। अपने स्वार्थी की सिद्धि के लिए यूरोपके राजाओं ने धर्म का सभी का उद्देश्य राजनीतिक एकता स्थापित करना स्थापित करना था। 1517 ई. से 1648 ई. तक यूरोप की राजनीति पूर्णरूपेण से धर्म से प्रभावित थी। सोलहवीं शताब्दी में फ्रांस में गृह युद्ध भी इसी धार्मिक तनाव के कारण हुआ।

धार्मिक आन्दोलनों का परिणाम चर्च के दोषों को दूर करना था, परन्तु कुछ अन्य दोष भी उत्पन्न हो गए थे। कैथोलिक देशों में कला का प्रसार होता रहा, परन्तु प्रोटेस्टेन्ट देशों में कला प्रसार नहीं हो सका। मूर्ति निर्माण में प्रोटेस्टेन्ट विश्वास नहीं करते थे, जबकि कैथोलिक इसमें आस्था रखते थे।

एक सबसे बड़ा दोष प्रोटेस्टेन्ट धर्म में अन्धविश्वास का उत्पन्न होना था। प्रोटेस्टेन्ट अनुयायियों का मध्य विद्या (Wich Craft) का उत्थान हुआ था।

इन आन्दोलनों के परिणामस्वरूप यूरोप में शिक्षा का व्यापक प्रसार हुआ था। जैसुइट संघ का मुख्य उद्देश्य ही जनता को साक्षर बनाना था। धार्मिक आन्दोलनों से राष्ट्रीयता की भावना का उदय हुआ एवं व्यापार तथा वाणिज्य का विकास हुआ। इसी आन्दोलन के प्रतिपादकों ने व्यक्तिवाद की भावना को भी जन्म दिया था। जो कि आधुनिक लोकतंत्र का आधार है।

मुन्ज की उपलब्धियों पर प्रकाश डालिये।

धर्म-सुधार आन्दोलन के कारण जगत कैथोलिक व प्रोटेस्टेन्ट दो परस्पर विरोधी गुटों में विभक्त हो गया, जिसके कारण कालान्तर में धर्म के नाम पर विभिन्न राज्यों के मध्य युद्ध होने लगे। यूरोप में इन धार्मिक युद्धों के द्वारा बड़ा खून-खराबा हुआ। तीस वर्षीय युग (1618-1648 ई.) इसका उदाहरण माना जा सकता है। धर्म सुधार आन्दोलन पूँजीवाद की विकास में भी सहायक रहा। कैल्विनवाद ने श्रम की महत्ता और धन संचय को मान्यता देकर पूँजीवाद की प्रगति का मार्ग प्रशस्त किया। भूमि और कृषि क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण सुधार किए गए।

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