जनजातियों में विवाह के स्वरूप की विवेचना कीजिए।

जनजातियों में विवाह के स्वरूप पति व पत्नी की संख्या के आधार पर मानवशास्त्रियों ने विवाह के तीन रूपों का उल्लेख किया है एक विवाह (monogamy), बहुपत्नी विवाह (polygamy) तथा बहुपत्नी विवाह (polyandry)। ‘एक विवाह’ की प्रथा सभी समाजों का एक नैतिक मापदण्ड बना हुआ है, जबकि ‘बहुपत्नी विवाह’ औद्योगिक युग में पहले तक संसार के सभी समाजों में किसी रूप में अवश्य पाये जाते थे। जनजातीय समाज की यह विशेषता है कि इन दोनों स्वरूपों के अतिरिक्त यहां ‘बहुपति विवाह का भी प्रचलन पाया जाता है, जिसकी साधारणतया सभ्य समाज में कल्पना नहीं की जा सकती। कुछ मानवशास्त्रियों ने विवाह के एक अन्य रूप में ‘समूह विवाह’ (group marriage) का भी उल्लेख किया है, लेकिन व्यवहार में विवाह का यह रूप अब सम्भवतः प्राप्य नहीं है।

एक विवाह (Monogamy)

एक विवाह पारिवारिक जीवन का सर्वोत्तम आधार है। वेस्टरमार्क का तो यहां तक मत है कि परिवार की उत्पत्ति एकविवाह के नियम से ही आरम्भ हुई। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक The Hostory of Human Marriage में आपने यह स्पष्ट किया है कि विवाह के अन्य सभी स्वरूप सामाजिक नियमों का एक अस्थायी उल्लंघन मात्र है। यदि सर्वव्यापी नियम के रूप में सभी सभ्य और जनजातीय समाजों में विवाह की कोई प्रथा स्थायी रही है, तब वह एक विवाह की ही प्रथा है। एकविवाह वह नियम है जिसके अन्तर्गत एक जीवन साथी के जीवित रहते हुए कोई स्त्री अथवा पुरुष दूसरा विवाह नहीं कर सकता। भारत की अधिकांश जनजातियों में विवाह का यही नियम पाया जाता है। एक विवाह के कारण के पीछे जो परिस्थितियां हैं, वे निम्नांकित हैं-

(1) प्रत्येक समाज में स्त्री और पुरुषों का अनुपात लगभग बराबर ही होता है। यदि प्रत्येक स्त्री और पुरुष को एक से अधिक विवाह करने की अनुमति दे दी जाये तब इसका अर्थ यह होगा कि कुछ व्यक्तियों को एक जीवन साथी भी उपलब्ध नहीं हो सकेगा।

(2) एक विवाह के अतिरिक्त विवाह के अन्य सभी स्वरूपों के अन्तर्गत व्यक्तियों के मानसिक और संवेगात्मक तनाव (emotional tensions) इतने अधिक बढ़ सकते हैं कि जनजातीय समाज को अपना संगठन बनाये रखना कठिन हो जायेगा।

(3) कुछ जनजातियों में कन्या मूल्य (bride-price) का आधिक्य होने के कारण भी एकविवाह का प्रचलन पाया जाता है, क्योंकि एक व्यक्ति अनेक पत्नियां रखकर सभी की कीमत कठिनता से ही चुका सकता है।

(4) प्रत्येक परिवार में संघर्षों की मात्रा को कम से कम करने का प्रयत्न करता है। इस इच्छा की पूर्ति भी एकविवाह द्वारा ही हो सकती है।

(5) जनजातीय समाज में बहुत समय तक बहुपति और बहुपत्नी विवाह का प्रचलन बने रहने के कारण उनकी पारिवारिक समस्याओं में इतनी वृद्धि हो गयी कि उनके निराकरण के लिए एक विवाह को उपयोगी नियम के रूप में देखा जाने लगा।

(6) सभ्य समाजों के सम्पर्क में आने के कारण भी जनजातियों में एक विवाह का प्रचलन तेजी से बढ़ता चला जा रहा है।

बहुपत्नी विवाह (Polygamy)

बहुपत्नी विवाह वह प्रथा है जिसके अनुसार एक पुरुष को अपनी पहली पत्नी के जीवित रहते हुए भी अन्य स्त्रियों से विवाह करने की छूट होती है। यह प्रथा सामान्यतया उन्हीं जनजातियों में प्रचलित है जिनकी आर्थिक स्थिति अपेक्षाकृत अधिक अच्छी होती है।

बहुपति विवाह

माइकल के ‘समाजशास्त्रीय कोष’ के अनुसार, “एक स्त्री द्वारा एक पति के जीवित होते हुए अन्य पुरुषों से भी विवाह करना अथवा एक समय पर ही दो से अधिक पुरुषों से विवाह करना बहुपति विवाह कहलाता है।” कापडिया का कथन है कि “बहुपति विवाह यह सम्बन्ध है जिसमें स्त्री एक समय में एक से अधिक पतियों का वरण कर लेती है अथवा जिसके अन्तर्गत अनेक भाई एक स्त्री अथवा पत्नी का सम्मिलित रूप से उपयोग करते हैं।”वास्तव में बहुपति विवाह जनजातियों में ही प्रचलित है, यद्यपि इनका क्षेत्र भी काफी सीमित है।

भारत में कुछ समय पूर्व तक बहुपति विवाह प्रथा बहुत सी जनजातियों में प्रचलित थी, लेकिन सभ्य समाजों के सम्पर्क में आने और शिक्षा के प्रसार के कारण अनेक जातियों में यह प्रथा अब समाप्त होती जा रही है। इस समय जिन जनजातियों में यह प्रथा विशेष रूप से पायी जाती है उनमें उत्तरी और पूर्वी भारत की जनजातियां टोडा, कोटा, खम, केरल की टियान, कोट, कुसुम्ब, नीलगिरि पर्वत की टोडा दक्षिण भारत की नैयर, मालावार की कम्मल जनजाति और कुर्ग की पहाड़ियों पर रहने वाली जनजातियों का नाम उल्लेखनीय है। कुछ समय पहले तक मध्य भारत की उरांव जनजाति और छोटा नागपुर की संथाल जनजाति भी बहुपति विवाही थीं, लेकिन आज ये जनजातियां बहुपति विवाह नहीं रही है। बहुपति विवाह से सम्बन्धित किसी निश्चित समय को तो स्पष्ट नहीं किया जा सकता लेकिन उनकी सामान्य विशेषताओं को निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है-

(1) बहुपति विवाह सामान्य रूप से दो प्रकार का होता है। प्रथम तो वह जिसमें स्त्री के अनेक पति आपस में भाई-भाई होते हैं और दूसरा वह जिसमें अनेक पतियों के बीच में किसी प्रकार का रक्त सम्बन्ध होना आवश्यक नहीं है। प्रथम स्वरूप को हम ‘प्रातृ बहुपति विवाह’ (fraternal polyandry) कहते हैं, जबकि दूसरे को ‘अभ्रातृ बहुपति विवाह (non-fraternal polyandry) कहा जाता है।

परिवार की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।

(2) आतृ बहुपति विवाह में पत्नी पर बड़े भाई का अधिकार सबसे अधिक होता है, यद्यपि छोटे भाइयों की पूर्णतया अवहेलना नहीं की जा सकती। इनके विपरीत अभ्रातृ बहुपति विवाह में पत्नी पर सभी पतियों का अधिकार समान होता है।

(3) मातृसत्तात्मक (matriarchal), जनजातियों में स्त्री स्वयं अपने साथियों का वरण करती है जबकि पितृसत्तात्मक (patriarchal) जनजातियों में पत्नी को चुनने का अधिकार पुरुषों को होता है। सामान्यतया बहुपति विवाह की प्रथा मातृसतात्मक जनजातियों में ही अधिक पायी जाती है।

(4) बहुपति विवाह की प्रमुख विशेषता बच्चों के पितृत्व (fatlerhood) के निर्धारण से सम्बन्धित है। ऐसे विवाहों से निर्मित परिवारों में बच्चे के पितृत्व का निर्धारण जैविकीय रूप से न होकर साधारणतया सामाजिक रूप से होता है, तथा बच्चे पर मां का अधिकार को प्राथमिकता दी जाती है।

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