जलालुद्दीन खिलजी कौन था? उसकी गृहनीति एवं विदेश नीति की विवेचना कीजिए।

जलालुद्दीन खिलजी ने दिल्ली में एक नवीन खिलजी राजवंश की स्थापना की। वह बलबन के समय में शाही अंगरक्षक था जिसे बाद में सामना का सूबेदार बना दिया गया। कैकूबाद के समय में उसे सैन्य मंत्री नियुक्त किया गया। अंत में उसने कैकूबाद तथा सुल्तान शमसुददीन को समाप्त कर 13 जून 1290 ई. में कीलूगढ़ी के महल में अपना राज्याभिषेक करवा कर दिल्ली का सुल्तान बना।

गृहनीति

जलालुद्दीन खिलजी उदार नीति एवं दयापूर्ण व्यवहार के आधार पर अपने विरोधियों एवं दिल्ली की जनता का समर्थन प्राप्त करने का निश्चय किया था। उसने खिलजी अमीरों के साथ-साथ तुर्की अमीरों को भी उच्च प्रशासनिक पद सौपे तथा उनका सहयोग प्राप्त किया। अनेक भूतपूर्व पदाधिकारियों, दिल्ली के कोतवाल मलिक फखरूद्दीन, वजीर ख्वाजा खातिर, सावी और मंडहार के राजपूत राजा को क्षमादान किया साथ ही उन्हें तोहफे भी दिये गये। जलालुद्दीन खिलजी ने अपने सम्बंधियों को भी महत्वपूर्ण पद प्रदान किया। जैसे बड़े बेटे इख्तियारुद्दीन को खान-ए-खाना की उपाधि के साथ दिल्ली के निकटवर्ती क्षेत्रों का प्रशासक नियुक्त किया, मझले बेटे को अरकली खाँ की उपाधि दी तथा मुल्तान का सूबेदार बनाया। छोटे पुत्र को कद्रस्खों की उपाधि दी तथा सुल्तान के भाई यगरेश को आरिजे ममालिक, भतीजे, उलूग खों को आखरबक एवं अलाउद्दीन को अमीर-ए-तुजुक एवं कड़ा का सूबेदार बनाया। अहमद चप को बारबक का पद सौंपा। इसने तुर्कों एवं खिलजियों को समान रूप से पद एवं उपाधियों प्रदान की, जिससे सभी वर्गों का समर्थन उसे प्राप्त हो गया।

विद्रोह

जलालुद्दीन खिलजी की उदार नीति एवं दयापूर्ण व्यवहार का विरोधियों ने फायदा उठाकर उसके खिलाफ विद्रोह करना प्रारम्भ कर दिया। अगस्त 1290 ई. में कड़ा मानिकपुर के सूबेदार मलिक ने विद्रोह किया उसने सुल्तान मुशीमुद्दीन की उपाधि धारण की अपने नाम के सिक्के चलाये और खुतवा पढ़वाया अवध का सूबेदार अमीर अली हातिम खाँ और बलबन के समय के राज्य के पूर्वी भागों के कुछ अन्य सरदार भी जाकर उससे मिल गये। दोआब के बहुत से हिन्दू सरदार भी उसके साथ हो गये। उसने बदायूँ के मार्ग से दिल्ली की ओर चलना आरम्भ किया। बदायूँ मलिक बहादुर और आलम गाजी भी अपनी सेनाओं को लेकर उसके साथ मिलने के लिए तत्पर थे। जलालुद्दीन इस विद्रोह को दबाने के लिए स्वयं गया। उसका पुत्र अर्कली खाँ सेना का अग्रगामी भाग के साथ गया और उसने बदायूँ के निकट मलिक छज्जू को परास्त कर दिया। छज्जू भाग गया परन्तु बाद में पकड़ा गया। जब उसे और उसके साथियों को जंजीरों में बाँधकर गन्दे वस्त्रों में सुल्तान के सम्मुख प्रस्तुत किया गया तब सुल्तान रो पड़ा। उसने उनको सम्मानिक ढंग से वस्त्र पहनने की आज्ञा दी और उसको दावत पर बुलाया।

दावत के अवसर पर सुल्तान ने मलिक छज्जू के सहयोगियों की यह कह कर प्रशंस की कि वे अपने स्वर्गीय सुल्तान के एक मात्र वंशज के प्रति वफादार थे जलालुद्दीन ने मलि छज्जू को अर्कलीखों की देखरेख में मुल्तान भेज दिया और उसके साथियों को मुक्त कर दिया उसके भतीजे अलाउद्दीन और सरदार अहमद चप ने इसका विरोध किया परन्तु सुल्तान ने यह कहकर उन्हें शान्त कर दिया कि राज्य की खातिर वह मुसलमानों का रक्त बहाने को तैयार नहीं है। इस अवसर पर कड़ा मानिकपुर की सूबेदारी अलाउद्दीन खिलजी को दी गयी।

षड्यंत्र

जलालुद्दीन की अविवेकपूर्ण उदारता शासन के हित में सिद्ध नहीं हुई। दिल्ली के करीब 1 हजार ठग और चोर पकडे गये परन्तु सुल्तान ने उसको नावों में बैठाकर बंगाल भेज दिया जहाँ उनकी आज्ञानुसार इन्हें मुक्त कर दिया गया जो महत्वाकांक्षी व्यक्तियों को प्रोत्साहित करने वाली थी। जब सुल्तान रणथम्भौर के अभियान पर गया हुआ था, तब एक दावत के अवसर पर कुछ सरदारों ने योजना बनायी कि वह सुल्तान का वध करके मलिक ताजुद्दीन कृची को सिंहासनारूढ किया जाय। तब ताजुद्दीन कूची बलबन के समय के प्रभाव शाली सरदारों के गूट में से एक था। जब इस घटना की सूचना सुल्तान को मिली तो उसने उनको अलग-अलग बुलाया और उनमें से प्रत्येक को अपने से द्वन्द्व युद्ध करने के लिए ललकारा। परन्तु एक समझदार सरदार के समझाने से वह तुरन्त शान्त हो गया। उसने उनको दण्डित किया बल्कि एक वर्ष के लिए उनको दरबार से निष्कासित करके ही सन्तुष्ट हो गया।

जलालुद्दीन केवल एक अवसर पर अपनी स्वाभाविक उदारता को भूल गया। सिद्दी मौला ईरान से आया हुआ एक फकीर था जो दिल्ली में बस गया था। परन्तु उसके पास बहुत धन था और उसके यहाँ हजारों व्यक्तियों को प्रतिदिन भोजन प्राप्त होता था। कुछ व्यक्तियों का विश्वास था कि वह तन्त्र विद्या जानता था और उसके कुछ विरोधी उसकों ठगों से मिला मानते। थे। परन्तु सम्भवतः सुल्तान का पुत्र खानखाना जो उसका अनुयायी था। उसे धन देता था। सिद्दी मौला के अनुयायियों की संख्या करीब दस हजार तक पहुँच गयी थी और उस पर सन्देह किया जाता था कि वह शाहजादा खानखाना का सहयोगी था डॉ. केदृएसदृ लाल का कथन है। कि यह राजनीति में हस्तक्षेप करता था जिससे शाहजादा अर्कलीखाँ उससे असंतुष्ट था। सिद्दी मौला के समर्थकों ने उसका विवाह स्वर्गीय सुल्तान नासिरूद्दीन महमूद की एक पुत्री से करके उसे सिहासन पर बैठने का षड्यन्त्र किया। परन्तु उन्हीं में से एक ने इस षड्यन्त्र की सूचना सुल्तान को दे दी। सुल्तान ने उसे दरबार में बुलाया और सिद्दी मौला ने राजनीति में हस्तक्षेप करने के अपराध को स्वीकार नहीं किया तब सुल्तान ने क्रोधित होकर उसे मार देने की आशा दी। विरोधी समुदाय के एक व्यक्ति ने एक छूरे से सिद्दी मौला पर कई प्रहार किये और उसी समय शाहजादा अर्कली खाँ के आदेश पर उसे हाथी के पैरों तले रदि दिया गया।

विदेश नीति

जलालुद्दीन खिलजी युद्ध तथा रक्तपात से घृणा करता था। वह शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करना चाहता था। इसलिए उसकी गृहनीति की तरह विदेश नीति भी शांतिपूर्ण थी, उसने विजय की इच्छा से केवल दो आक्रमण किये। रणथम्भौर की सत्ता आक्रमण का केन्द्र स्थल था

रणथम्भौर पर आक्रमण तथा मण्डौर विजय

राणा हम्मीर देव ने गौड़ और उज्जैन के राजाओं को परास्त करने में सफलता पायी थी। इस कारण जलालुद्दीन हम्मीर देव की बढ़ती हुयी शक्ति को रोकना चाहता था। सुल्तान 1290 ई. में रणथम्भौर की ओर बढ़ा। मार्ग में सुल्तान ने सौन के किले को जीता। सुल्तान की सेना के एक भाग ने मालवा पर आक्रमण किया जिसने उसके सीमावर्ती क्षेत्रों को लूटा और मन्दिरों को नष्ट किया। उसके पश्चात् सुल्तान रणथम्भौर के किले के सामने पहुंचा जिसकी सुरक्षा का प्रबन्ध राजदूतों ने भली-भाँति संभाला हुआ था। किले की सुदृढ़ स्थिति को देखकर सुल्तान उसी दिन सैन वापस आ गया और उसने अपने सरदारों से स्पष्ट कह दिया कि वह मुसलमान सैनिकों के जीवन के मूल्य पर किले को जीतने को तैयार नहीं है। उसने कहा “यह एक मुसलमान के एक बाल को भी ऐसे दस किलो की तुलना में अधिक महत्व देता है।” इस प्रकार रणथम्भौर को बिना जीते हुए सुल्तान जून 1291 ई. में दिल्ली वापस लौट गया। 1292 ई. में मण्डौर पर आक्रमण किया और उसे जीतकर दिल्ली के अधीन कर लिया गया।

मंगोल आक्रमण

1292 ई. में हलाकू खाँ के एक प्रपौत्र अब्दुल्ला के नेतृत्व में मंगोलों की एक बड़ी सेना ने पंजाब पर आक्रमण किया और सूनम तक पहुँच गयी। उस अवसर पर जलालुद्दीन ने समय नष्ट नहीं किया और अपनी सेना को लेकर सिन्धु घाटी तक पहुँच गया। जहाँ सुल्तान को छुटपुट आक्रमणों में सफलता मिली परन्तु जब मंगालों की एक बड़ी टुकड़ी ने सिन्ध नदी को पार करके सुल्तान पर आक्रमण किया तो वह उसे परास्त न कर सका। उसके कई पदाधिकारी कैद कर लिए गये। उसके पश्चात् सन्धि की बातचीत हुई जो सुल्तान के लिए बहुत सम्मान जनक न था मंगालों ने वापस चले जाने का निर्णय किया। परन्तु चंगेजखा के एक वंशज उलगू ने अपने 4,000 समर्थकों के साथ इस्लाम को स्वीकार करके भारत में रहने का निश्चय किया। जलालुद्दीन ने अपनी एक पुत्री का विवाह उलगू के साथ कर दिया और उसे तथा उसके साथियों को दिल्ली के निकट रहने की आज्ञा प्रदान कर दी। ये मंगोल नवीन मुसलमान कहलाये।

भिलसा पर आक्रमण

जलालुद्दीन के समय में उसके भतीजे और कड़ा मानिकपुर के सुबेदार अलाउद्दीन ने दो साहसिक आक्रमण किये 1292 ई. में सुल्तान की स्वीकृति लेकर उसने मालवा में स्थित मिलसा पर आक्रमण और वहीं से बहुत से धन लूटकर लाया जिसका एक भाग उसने सुल्तान के पास भेज दिया और अवध की सूबेदारी प्राप्त किया।

देवगिरी पर आक्रमण- फरवरी 1296 ई. में 8,000 चुने हुए घुड़सवारों को लेकर वह दक्षिण में देवगिरी पर आक्रमण हेतु रवाना हुआ चन्देरी और मिलसा होता हुआ वह देवगिरी की उत्तरी सीमा पर स्थित एलिचपुर नामक स्थान पर पहुँच गया। देवागिरी से लगभग 12 मील पश्चिम की ओर लासूड़ी के दरें में यहाँ के सरदार कान्हा ने अलाउद्दीन का मार्ग रोका परन्तु उसे परास्त कर दिया गया। इस आक्रमण से रामचन्द्र देव चकित रह गया। मुसलमानों का दक्षिण भारत पर यह पहला आक्रमण था जिससे जनसाधारण में भय और आतंक फैल गया। रामचन्द्र देव का बड़ा पुत्र शंकरदेव राज्य की चुनी हुई सेना लेकर युद्ध करने के लिए होयसल राज्य की सीमा पर गया हुआ था। ऐसी स्थिति में और मुख्यतया तब जबकि अलाउद्दीन की सेना नगर में प्रवेश कर रही थी। रामचन्द्र देव ने सन्धि की बातचीत की और अलाउद्दीन धन लेकर वापस लौटने के लिए राजी हो गया। परन्तु उसी समय रामचन्द्र देव का पुत्र शंकरदेव (सिंह देव) राजधानी पर विपत्ति के समाचार सुनकर वापस आ गया और उसने अपने पिता की राय के विरुद्ध अलाउद्दीन को सूटी हुई सम्पत्ति को छोड़कर चले जाने की धमकी दी। एक हजार घुड़सवारों को नसरत जलेसरी के संरक्षण में किले की देखभाल के लिए छोड़कर अलाउद्दीन ने शंकरदेव का मुकाबला किया।

अलाउद्दीन की पराजय प्रायः निश्चित भी कि नसरत जलेसरी उसकी दुर्बल स्थिति को भांपकर अपने घुड़सवारों के साथ उसकी सहायता को लिए पहुँच गया जिसे देखकर शंकरदेव की सेना ने यह समझा कि वह दिल्ली से आने वाली मुख्य सेना है जिसकी अफवाह अलाउद्दीन ने फैला रखी थी इससे भयभीत होकर हिन्दू सेना भाग खड़ी हुई और अलाउद्दीन की विजय हुई। अब रामचन्द्र देव के पास सन्धि करने के अलावा कोई चारा न था जब उसे पता लगा कि किले में रखे हुए बोरे में अनाज की बजाय नमक है तो उसे किले में बन्द रखकर सुरक्षा करना भी व्यर्थ लगा और सन्धि वार्ता अनिवार्य हो गयी। अलाउद्दीन ने सन्धि के लिए कठोर शर्तें प्रस्तुत की और युद्ध क्षति के रूप में अतुल सम्पत्ति लेकर वापस लौटा।

धर्म सुधार आन्दोलन के परिणामों व महत्व का वर्णन कीजिए।

डॉ. एसदृ राय ने लिखा है कि “वास्तव में दिल्ली को देवगिरी में जीता गया क्योंकि दक्षिण के स्वर्ण ने अलाउद्दीन के सिंहासन पर बैठने का मार्ग प्रशस्त किया। अलाउद्दीन का देवगिरी का आक्रमण जलालुद्दीन के समय की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी। इससे न केवल अलाउद्दीन की महात्वाकांक्षा ही बलवती हुई वरन् उसे वे साधन भी उपलब्ध हो गये जिनकी सहायता से वह दिल्ली का सुल्तान बन सका।’

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