जलालुद्दीन खिलजी का मूल्यांकन कीजिए।

जलालुद्दीन खिलजी ने उत्तरवादी शासन की स्थापना की थी जो प्रजातीय आधार पर नहीं थी बल्कि उसमें सभी वर्गों को सम्मिलित किया गया था। यह इण्डो-मुस्लिम राज्य था। उसने शांतिपूर्ण नीति को अपनाया और अनावश्यक रक्तपात की नीति को त्याग दिया। उसकी शांतिवादी नीति कायरता या निर्बलता का प्रतीक नहीं थी। वह स्वयं एक योग्य सेनानायक था और उसने मंगोलों के साथ युद्ध किए थे। अतः उस पर कायरता का आरोप नहीं लगाया जा सकता। उसने शांति की नीति को अपनाया क्योंकि सुल्तान बनने के बाद उसने शांति और व्यवस्था को आवश्यक समझा।

जलालुद्दीन खिलजी ने प्रशासन में सभी वर्गों को स्थान दिया और उन्हें सन्तुष्ट रखने का प्रयास किया। बलबनी अमीरों तथा तुर्क पदाधिकारियों को पदों पर रखकर उसने समन्वय तथा सहयोग की नीति आरम्भ की। डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव लिखते हैं कि, “उसका राज्य काल किसी भी दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं था, किन्तु यह मानना पड़ेगा कि दिल्ली सल्तनत के इतिहास में जलालुद्दीन ही पहला सुल्तान था जिसने जनमत को प्रसन्न करने तथा मुसलमानों में जो तुर्क, गैर-तुर्की तथा भारतीय वर्ग के थे, उनमें एकता तथा समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया लेकिन उसकी नीति का खिलजी और तुर्कों दोनों ने विरोध किया।

लुई चतुर्दश की गृह नीति का वर्णन कीजिए।

जलालुद्दीन की नीति नकारात्मक नहीं थी। कुछ विद्वानों ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि वह भीरू और दुर्बल था और उसके वध से दिल्ली सल्तनत की रक्षा हुई। यह मत भ्रमपूर्ण है क्योंकि जलालुद्दीन सर्वथा उदार नहीं था। उसकी उदारनीति बलबन की कठोर और आतंकवादी नीति के विरुद्ध एक उदारवादी प्रयोग था। दुर्भाग्य से बरनी ने केवल उन्हीं घटनाओं का उल्लेख किया है जो सुल्तान के विपरीत थी। अगर बरनी ने उसके पूर्ण व्यक्तित्व को प्रस्तुत किया होता, तब उनके आधार पर उसके बारे में निष्पक्ष निर्णय हो सकता था।

लेकिन उसकी उदारवादी नीति इस सीमा तक पहुंच गयी कि दुर्बलता प्रतीत होने लगी। उसकी दयालुता को खिलजी अमीर उसकी अयोग्यता समझने लगे। उसने रणथम्भौर को अविजित छोड़ दिया, इससे उसकी योग्यता में संदेह उत्पन्न हो गया। उसने हिन्दुओं के प्रति कोई उदारता प्रदर्शित नहीं की थी और उनके मंदिरों और मूर्तियों को तोड़ा था। अतः स्पष्ट है कि उदारता उसके चरित्र का आवश्यक गुण नहीं था।

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