जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के सिद्धान्त (Theories of the Origin of Caste System)- जाति व्यवस्था भारत की सबसे प्राचीनतम एवं जटिल संस्था रही है। इस संस्था का जन्म किस प्रकार हुआ ? इसकी व्यवस्था के सम्बन्ध में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद देखने को मिलता है। कुछ विद्वान जाति को प्राचीन वर्ण व्यवस्था का परिवर्तित स्वरूप मानते हैं। कुछ ने इसे प्रजातीय आधार दिया तो कुछ ने इसे जनजातीय टोटम से सम्बन्धित बताया। व्यावसायिक आधार को भी कुछ विद्वानों ने जाति की उत्पत्ति का एक प्रमुख स्रोत माना। किन्तु ये सभी दृष्टिकोण अपने से अधूरे से प्रतीत होते हैं। ब्लंट (Blunt) महोदय ने लिखा है- “इन सिद्धान्तों में कुछ तो हास्यास्पद हैं लेकिन जिनको वैज्ञानिक आधार देकर चतुरतापूर्वक प्रस्तुत किया गया है वे भी जाति की उत्पत्ति का वास्तविक आधार प्रस्तुत नहीं करते हैं।”
इस संदर्भ में डॉ. मजूमदार (Dr. Majumdar) का कथन उल्लेखनीय है। आप लिखते हैं- “एक शताब्दी के कठोर परिश्रम और सावधानीपूर्वक किये गये अध्ययन के पशात् भी इसके इतिहास और कार्यों तथा सम्पूर्ण रूप से इस व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए हम किसी भी निशिचित निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाये हैं कि इस अनोखी संस्था का निर्माण और विकास किन परिस्थितियों की देन है। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि विभिन्न दृष्टिकोणों से भारत की इस संस्था का अध्ययन सबसे अधिक हुआ है।”
जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के प्रमुख सिद्धान्त (Main Theories of the Origin of Caste System)
1.परम्परागत सिद्धान्त (Traditional Theroy)-
जाति व्यवस्था की उत्पत्ति सम्बन्धी यह प्राचीनतम सिद्धान्त माना जाता है। इसकी व्याख्या उपनिषदों, महाकाव्यों, श्रुतियों और धर्मशास्त्रों में देखने को मिलती है। इस सन्दर्भ में ऋग्वेद का पुरुष सूक्त प्रसिद्ध है। उसके अनुसार ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, जांघ से वैश्य तथा पैर से शूद्र की उत्पत्ति हुई। आदि पुरुष मनु ने इसी आधार पर विभिन्न जातियों के सदस्यों के कार्यों का निर्धारण किया। था। ब्राह्मण का स्थान सर्वोपरि माना गया एवं उसका कार्य अध्यापन करना है, द्वितीय स्थान क्षत्रियों को दिया गया तथा उनका प्रमुख कार्य देश की रक्षा करना बताया। वैश्यों का कार्य कृषि, वाणिज्य एवं व्यवसाय करके समाज के अन्य वर्गों के भरण-पोषण का प्रबन्ध करना तथा शूद्रों का जन्म चूंकि ब्रह्मा के पैरों से हुआ, उनका स्थान जातीय संस्तरण में सबसे निम्न माना गया तथा उनका प्रमुख कार्य अपने से उच्च तीन वर्गों की सेवा करना है। वर्ण संकरता को मनु ने उपजातियों के निर्माण का कारण माना। महाभारत के शान्ति पर्व में भी चारों जातियों की उत्पत्ति का इसी प्रकार का उल्लेख मिलता है। यहां पर ब्रह्मा के स्थान पर कृष्ण का वर्णन है। भगवत गीता में कृष्ण ने कहा भी है कि गुण और कर्मों के आधार पर मैंने ही लोगों को चारों जातियों में बांट दिया है। विभिन्न अन्य पौराणिक कहानियों एवं किंवदन्तियों में भी ऐसा ही उल्लेख देखने को मिलता है।
2. ब्राह्मणवादी सिद्धान्त (Brahamin Theory)-
इस सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक आबे डुबायस (Abde Dubois) हैं। आपने जाति प्रथा को ब्राह्मणों की चतुराईपूर्ण एक योजना का प्रतिफल बताया। ब्राह्मणों ने सामाजिक संदर्भ में अपनी स्थिति को उच्च बनाये रखने के लिये जाति जैसी संस्था को विकसित किया तथा उसके समर्थन में धार्मिक तर्कों का सहारा लिया। अपनी स्थिति को सर्वोच्च स्थान पर बनाये रखने के लिये उन्होंने दूसरे सशक्त वर्ण क्षत्रिय को दूसरा स्थान दिया।
3. व्यावसाकि सिद्धान्त (Occupational Theroy)
नेसफील्ड (Nesfield) ने व्यावसायिक सिद्धान्त को प्रतिपादित किया जिसे ब्लण्ट और दहलमन आदि विद्वानों ने समर्थन दिया नेसफील्ड के अनुसार, “कर्म और केवल कर्म ही जाति प्रथा की उत्पत्ति के लिये उत्तरदायी है।” आपके अनुसार आरम्भ में सभी लोग किसी भी पेशे को कर सकते थे, बाद में धार्मिक तथा कर्म इतने जटिल हो गये कि उन्हें सम्पादित करने के लिए विशेष ज्ञान की आवश्यकता पड़ी। सामाजिक जीवन में धर्म का अधिक महत्व होने के कारण जो लोग इन्हें सम्मानित करते थे, वे सर्वोच्च प्रतिष्ठित हुये तथा ब्राह्मण कहे जाने लगे। प्रशासनिक कार्य को दूसरा स्थान मिला और वे क्षत्रिय कहलाये। व्यापार एवं आर्थिक क्रिया करने वाला वर्ग वैश्य हुआ। इस प्रकार आप जाति को समाज की प्राकृतिक उपज के रूप में देखते हैं तथा धर्म को उसमें कोई विशेष महत्व नहीं देते।
4. धार्मिक सिद्धान्त (Religious Theory)
होकार्ट एवं सेनार्ट महोदय ने जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के सम्बन्ध में धार्मिक सिद्धान्त का प्रातिपादन किया होकार्ट महोदय के अनुसार समाज का संगठन धार्मिक सिद्धान्तों एवं प्रथाओं, परम्पराओं के आधार पर हुआ। प्राचीन भारत में धर्म की प्रधानता थी। राजा प्रशासन के साथ-साथ धर्म-कर्म में भी अगुआ रहता था। इस प्रकार धार्मिक नेता के रूप में राजा के विभिन्न समूहों को अलग-अलग पद प्रदान किये।
पुनर्जन्म का सिद्धान्त स्पष्ट कीजिए।
5. प्रजातीय सिद्धान्त (Racial Theory)
जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रजातीय सिद्धान्त का विशेष महत्व है। इस सिद्धान्त के प्रतिपादकों में हरबर्ट रिजले (Herbert Risley) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। जाति की उत्पत्ति सम्बन्धी आपका प्राजातीय सिद्धान्त हमें अपकी कृति ‘दी पीपुल्स आफ इण्डिया’ (The Peoples of India) में देखने को मिलता है। डा. घुरिये (Dr. Ghurey), प्रो. मजूमदार (Prof. Majumdar) प्रो. एन. के. दत्ता (Prof. N.K. Datta), मैक्स वेबर (Max Weber), क्रोबर (Crober) तथा मैकाइवर एवं पेज (Maciver and Page) आदि भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों ने इस प्रजातीय सिद्धान्त का समर्थन किया है।
6. उदविकासीय सिद्धान्त या आर्थिक सिद्धान्त (Ewvolutionary of Economic Theroy)
इस सिद्धान्त के प्रतिपादक जेनखिल इवेटशन महोदय हैं। आपके अनुसार जाति की उत्पत्ति संघों से हुई। आर्थिक वर्गों से संघों का निर्माण हुआ और अन्त में संघ जाति के रूप में परिवर्तित हो गये। इवेटशन महोदय लिखते हैं- “प्रारम्भ में मानव खानाबदोश था और रक्त सम्बन्धी समूहों में रहता था। उनमें हम की भावना रहती थी। लोगों ने आर्थिक उद्विकास में जब खेती को अपनाया और उद्योग व्यापार बढ़ा तो आर्थिक जटिलता भी बढ़ी। इस कारण श्रम विभाजन हुआ और सामाजिक जीवन में विभिन्न वर्ग उत्पन्न हुये। धीरे-धीरे एक व्यवसाय के लोगों में सामुदायिक भावना बनाये रखने के लिये तथा अपने संघ की महत्ता बढ़ाने के लिये व्यावसायिक भेदों को गुप्त रखने की दृष्टि से एक-दूसे से भेदभाव एवं विवाह आदि के सम्बन्ध में अलगाव की नीति अपनाई।” अन्त में सामाजिक स्तरीकरण की वृद्धि हुई और इस प्रकार जाति व्यवस्था का जन्म हुआ।
7. आदिम संस्कृति या माना का सिद्धान्त (Theroy of Primitive Culture of Mana)
इस सिद्धान्त का प्रतिपादन हट्टन (Hutton) महोदय ने किया। आपने अन्य सभी सिद्धान्तों को जाति की उत्पत्ति सम्बन्धी व्याख्या करने में दोषपूर्ण बताया। 1931 में हडून महोदय ने जनगणना सम्बन्धी अपनी रिपोर्ट को प्रस्तुत किया और उसी के साथ आपने जाति प्रथा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में भी अपने विचार व्यक्त किये। आपने कहा कि जाति जैसी जटिल संस्था की उत्पत्ति की व्याख्या करते समय हमें तीन पक्षों को स्पष्ट करने का प्रयास करना चाहिये- (1) जाति में व्यवसाय का पैतृक रूप (2) विवाह, खान-पान और सामाजिक मेल-मिलाप सम्बन्धी प्रतिबन्ध एवं (3) जाति में ऊँच-नीच की धारणा