जाति प्रथा में वर्तमान परिवर्तन- संरचना के दृष्टिकोण से जाति प्रथा सामाजिक संस्तरण और खण्ड-विभाजन की एक व्यवस्था है जिसमें सदस्यता परम्परागत रूप से जन्म पर आधारित होती है और प्रत्येक जाति के सदस्य अपनी ही जाति या उपजाति में विवाह करते हैं अर्थात संरचनात्मक पहलू में सामाजिक संस्तरण, समाज का खण्डात्मक विभाजन, अन्तर्विवाह तथा जन्म का अधिक महत्व प्रमुख तत्व है। वर्तमान समय में बहुत कुछ परिवर्तन हो गए हैं और अब भी हो रहे हैं। ये परिवर्तन निम्नवत है-
1. समाज के खण्डात्मक विभाजन में परिवर्तन
जैसा पहले ही उल्लेख किया जा चुका है, डॉ. धुरिये के अनुसार भारतीय जाति प्रथा ने हिन्दू समाज को विभिन्न खण्डों में विभाजित कर दिया है और सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था में इनमें से प्रत्येक खण्ड के सदस्यों की स्थिति, पद, स्थान और कार्य भी सुनिश्चित हैं। इस खण्ड-विभाजन का तात्पर्य स्पष्ट करते हुए डॉ. धुरिये ने यह भी लिखा है कि जाति प्रथा के अन्तर्गत समग्र समुदाय के प्रति नहीं अपितु अपनी ही जाति के प्रति उस जातिके सदस्य अधिक निष्ठावान होते हैं और अपनी जाति के सदस्यों के प्रति उनमें सामुदायिक भावना अधिक प्रबल होती है परन्तु आधुनिक समय में विभिन्न परिस्थितियों के दबाव या प्रभाव से उक्त व्यवस्था में काफी परिवर्तन देखने को मिलता है। आज एकाधिक क्षेत्रों में विभिन्न जातियों के सदस्यों की सामुदायिक भावना या कर्त्तव्य-बोध अपनी- अपनी की सीमाओं को पार कर चुका है और जातीय भावना से कहीं अधिक विस्तृत रूप में आज वह अभिव्यक्त है। उदाहरणायें, श्रमिक संघों के संरक्षण में मजदूरी, महंगाई भत्ता, बोनस आदि से सम्बन्धित मांगों को पूरा करने में श्रमिक आज जो हड़तालें करता है या मालिकों से संघर्ष करता है, उसे जातीय सीमाओं में बांधा नहीं जा सकता। श्रमिक संघ या हड़ताल के प्रति श्रमिकों का कर्त्तव्य-बोध जाति के प्रति कर्तव्य-बोध की तुलना में कहीं अधिक विस्तृत रूप में प्रकट होता है। इसी प्रकार एक राजनैतिक पार्टी के सदस्य बहुधा पार्टी स्वार्थ को जातीय स्वार्य से ऊपर स्थान देते हैं।
2. जातीय संस्तरण में परिवर्तन
जाति प्रथा समाज को विभिन्न खण्डों में विभाजित करती है और इन खण्डों में ऊंच-नीच का एक संस्तरण या उतार-चढ़ाव होता है जिसमें ब्राह्मण जाति की स्थिति सर्वमान्य रूप से सबसे ऊपर है। जातीय संस्तरण में ब्राह्मणों की स्थिति जैसे पहले सबसे ऊपर थी, वैसे आज भी है परन्तु अब नहीं है। आर्थिक और राजनैतिक शक्ति की महत्ता का वर्तमान युग में बोलबाला होने के कारण परम्परा के आधार पर आधारित ब्राह्मणों की सत्ताओं का घटना स्वाभाविक ही है। औद्योगीकरण और नगरीकरण ने अनेक नए व्यवसायों, नौकरियों आदि को भी जन्म दिया है जिनमें व्यक्तिगत कुशलता या योग्यता को अधिक महत्व दिया जाता है। फलतः निम्न जाति के लोगों को भी अपनी योग्यता के अनुसार उन्नति करने तथा सामाजिक स्थिति को ऊंचा उठाने के अवसर प्राप्त हुए हैं। आज धन का भी महत्व अधिक हैं। इस कारण एक धनी व्यक्ति को चाहे वह किसी जाति का सदस्य क्यों न हो, एक निर्धन ब्राह्मण से कहीं अधिक सामाजिक सम्मान मिलता है। इसके अतिरिक्त ब्राह्मणों का कुछ महत्व उनका धार्मिक क्रियाओं के साथ सम्पर्क होने के कारण भी था, पर नगरों में अब धार्मिक क्रियाओं, पूजा-पाठ आदि में ब्राह्मणों का महत्व बहुत कम हो गया है। यह भी नगरों में ब्राह्मणों के प्रमुत्व को घटाने का एक प्रमुख कारण है। वास्तव में धन, राजनैतिक सत्ता तथा नागरिक जीवन में उपलब्ध व्यक्ति स्वातन्त्र्य एवं धर्म-निरपेक्षता आदि कारणों से निम्न जाति वालों को अपनी स्थिति को बदलकर उच्च स्थान को प्राप्त कर लेना आज सरल हो गया है। जातीय संस्तरण में परिवर्तन हुए हैं, उनमें सबसे उल्लेखनीय परिवर्तन अछूतों की सामाजिक स्थिति में है। परम्प
3. जाति की सदस्यता में परिवर्तन
जाति की सदस्यता मुख्यतः जन्म पर ही आधारित है। यह बात न केवल परम्परा या सामाजिक तौर पर बल्कि सरकारी तौर पर भी सच प्रतीत होती है। सरकार भी आज उन लोगों को अनेक प्रकार की सुविधाएँ प्रदान कर रही है। जिसका जन्म पिछड़ी जातियों में हुआ है। इस कारण ऐसे लोगों को आज इसी में अधिक लाभ है कि वे जन्मके आधार पर ही अपनी जाति की सदस्यता को स्वीकार कर लें, न कि कृत्रिम रूप में उसे बदलने का प्रयत्न करें। अतः इस स्तर पर अर्थात् जहाँ तक पिछड़ी जातियों का प्रश्न है, जाति की सदस्यता जन्म पर स्वीकार की जाती है और इसमें परिवर्तन भी बहुत कम देखने को मिलता है परन्तु इसके बाहर जो जातियाँ हैं, उनमें केवल जन्म के आधार पर ही जाति की सदस्यता निर्भर करती है, ऐसा सोचना उचित न होगा। यह सच है कि अन्य आधारों पर जाति की सदस्य- संख्या बहुत कम है, फिर भी ऐसे प्रयत्नों को अस्वीकार नहीं किया जा सकता जबकि धन, सत्ता, शहरी पर्यावरण आदि से लाभ उठाकर अपनी जाति को बदला जाता है।
जाति व्यवस्था की उत्पत्ति सम्बन्धी विभिन्न सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।
4. जाति प्रथा के सांस्कृतिक पहलू में परिवर्तन (Changes in Cultural Aspect of Caste System)
भारतीय जातिप्रथा के सांस्कृतिक पहलू का आधार धार्मिक है। जाति प्रथा के अन्तर्गत जो पेशों की ऊंचाई-नीचाई या खान-पान के सम्बन्ध में प्रतिबन्ध या हरिहनों की अनेक प्रकार की निर्योग्यताएं देखने को मिलती हैं, उन सभी का आधार पवित्रता और अपवित्रता की धारणा है। यद्यपि सम्पूर्ण जाति प्रथा को केवल पवित्रता और अपवित्रता की धारणा के आधार पर नहीं समझाया जा सकता है, फिर भी इसी आधार पर इस प्रथा की कई विशेषताओं का बहुत-कुछ विश्लेषण सम्भव है। दूसरी जाति विशेषकर अपने से निम्न जाति के सदस्यों के छूने से भोजन के अपवित्र हो जाने की धारणा ने ही भोजन से सम्बन्धित प्रतिबन्धों को धनपाया है। अछूत जातियां अछूत इसलिए भी हैं कि वे अपवित्र पेशों को करती हैं, इसलिए धार्मिक क्षेत्र में उनका प्रवेश निषिद्ध है क्योंकि धर्म से सम्बन्धित सब-कुछ पवित्र है। यहां हम पेशा, भोजन तथा अछूत जातियों की स्थिति में होने वाले परिवर्तनों पर विचार करेंगे।
5. भोजन सम्बन्धी प्रतिबन्धों में परिवर्तन
आधुनिक शिक्षा के आधार पर समानता के विचारों का पनपना, संचार और यातायात के साधनों में उन्नति होने के कारण सामाजिक गतिशीलता का बढ़ना, नगरों, विभिन्न जाति, धर्म और देशों के लोगों के सम्पर्क में आने से सामाजिक सहनशीलता का बढ़ना, मिल, कारखाने दफ्तर और नगर में अज्ञात जाति के लोगों के साथ परिचय और मित्रता, होटलों और जलपान गृहों की लोकप्रियता आदि ऐसे कारण तथा परिस्थितियाँ हैं जिनके फलस्वरूप खाने-पीने के सम्बन्ध में समस्त नियम बहुत ढीले पड़ते जा रहे हैं।
6. सामाजिक तथा धार्मिक निर्योग्यताओं में परिवर्तन
जाति प्रथा के स्वरूप में वर्तमान समय में जो-जो परिवर्तन हुए हैं, उनमें एक महत्वपूर्ण परिवर्तन हरिजनों की सामाजिक तथा धार्मिक निर्योग्यताओं की समाप्ति है। इसका सम्पूर्ण श्रेय पूज्य बापू को है। आपके हरिजन आन्दोलन ने न केवल स्वस्थ जनमत का ही निर्माण किया अपितुसरकार को भी हरिजनों के उत्थान के सम्बन्ध में प्रयत्नशील बनाया। आज सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक सभी क्षेत्रों में उन्हें राज्य की ओर से केवल समान अधिकार ही प्राप्त नहीं है बल्कि प्रत्येक प्रकार की नौकरियों, विधानसभाओं और मंत्रिमण्डलों मेंउनके लिए स्थान सुरक्षित भी कर दिए गए हैं। परन्तु स्मरण रहे कि ये सभी समानाधिकार कानूनी तौर पर मान्य हैं, व्यावहारिक रूप में हरिजनों की परम्परात्मक निर्योग्यताएं बीती तो अवश्य हो गई हैं, पर समाप्त नहीं हुई हैं। गाँवों में आज भी उनकी अधिकतर निर्योग्यताएँ बनी हुई हैं, पर शहरों में बहुत कम रह गई हैं।