इल्तुतमिश के प्रारम्भिक जीवन एवं उसकी उपलब्धियों विजयों का वर्णन कीजिए।

इल्तुतमिश का प्रारम्भिक जीवन – शम्सउद्दीन इलातमिश इल्वरी कबीले का तुर्क था। यह बहुत सुन्दर, होनहार और बुद्धिमानथा। बचपन में उसके सौतेले भाईयों ने उसे गुलाम बनाकर बेच दिया था। कई व्यापारियों के पास विकते हुए यह अन्त में कुतबुद्दीन ऐबक द्वारा खरीद लिया गया। ऐबक उसकी बुद्धिमानी और योग्यता से बड़ा प्रभावित हुआ। ऐबक ने उसे अमीर-ए-शिकार का पद प्रदान किया। शीघ्र ही वह बुलन्दशहर का सूबेदार बना दिया गया। ऐबक को इल्तुतमिश पर इतना भरोसा था कि उससे उसे अपना दामाद बना लिया तत्पश्चात उसे बदायूँ का सूबेदार बना दिया। ऐबक की मृत्यु के बाद आराम शाह को सिंहासन प्रदान किया गया. लेकिन आराम शाह योग्य शासक नहीं था अतः सल्तनत की बागडोर इल्तुतमिश के हाथों में आ गयी। निःसन्देह इल्तुतमिश एक गुलाम का जीवन व्यतीत करने के बाद सुल्तान के पद तक जा पहुँच

शम्सुद्दीन इल्तुतमिश की समस्यायें

कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के बाद उसका गुलाम और दामाद रामादीन इल्तुतमिश सन् 1211 ई. में दिल्ली का शासक बना। सुल्तान बनने के समय वह अनेक समस्याओं से घिरा हुआ था। इल्तुतमिश की प्रारंभिक समस्यायें कठिनाइयाँ निम्नलिखित थी

(1 ) एल्दीज व कुवाचा

शासन प्राप्ति के पश्चात् इल्तुतमिश को एल्दीज तथा कुबाचा द्वारा उत्पन्न की गयी समस्याओं का सामना करना पड़ा। एल्दौज ने गजनी में अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था। वह स्वयं को मुहम्मद गौरी का उत्तराधिकारी मानता था और इस कारण वह दिल्ली पर अपना अधिकार समझता था। दूसरी ओर कुबाचा जिसने कुतुबुद्दीन ऐबक का आधिपत्य तो स्वीकार कर लिया था, किन्तु वह एक अन्य गुलाम के सम्मुख झुकना नहीं चाहता था अतः उसने भी इल्तुतमिश का विरोध करना प्रारम्भ कर दिया था।

(2) अली मर्दान खां का विद्रोह-

ऐबक ने बंगाल को अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य कर दिया था। किन्तु उसके मरने के उपरान्त बंगाल का सूबेदार अली मर्दान खा उसके उत्तराधिकारी इल्तुतमिश की अधीनता में रहने को तैयार न था और उसने विद्रोह कर दिया था।

( 3 ) अमीरों के षड्यंत्र

यद्यपि इल्तुतमिश ऐबक के पुत्र आरामशाह को युद्ध में पराजित करके दिल्ली का सुल्तान बना था फिर भी अधिकांश मुस्लिम अमीरों और दरबारियों की दृष्टि में वह राज्य का अपहरणकर्ता था। इल्तुतमिश को इस स्थिति से भी निपटना था।

(4) मंगोल आक्रमण का भय

पश्चिमोत्तर सीमा के उस पार चंगेज खां ने भारी उपद्रव मचा दिया था। वह किसी भी समय इस ओर अपना पंजा बढ़ा सकता था। इसके अतिरिक्त एक और जटिल समस्या यह थी कि इसी सीमा में बसी खक्कर जाति ने भी आक्रमणात्मक कार्यवाइयाँ प्रारम्भ कर दी थी। ये स्थिति नव गठित इस्लामी राज्य के लिए घातक थी।

(5) राजपूत राज्यों का पुनः स्वतंत्र होना

जिन राजपूत नरेशों और राज्यों को मुहम्मद गोरी और कुतुबुद्दीन ऐबक ने नतमस्तक कर दिया था ये ऐवक की मृत्यु के बाद स्वतंत्र हो गये थे। अजमेर, लियर, दोआब, रगम्भीर ऐसे ही राज्य थे। ये भी इल्तुतमिश के लिए समस्या पैदा कर रहे थे।

(6) असंगठित साम्राज्य

जिस समय इल्तुतमिश ने शासन संभाला उस समय भारत में स्थापित इस्लामी शासन बहुत ही शिथिल और असंगठित था अतः इल्तुतमिश के लिए यह बहुत ही आवश्यक था कि वह साम्राज्य को सुदृढ़ और संगठित करें।

इल्तुतमिश द्वारा कंठिनाइयों (समस्याओं) का समाधान

इल्तुतमिश बहुत ही योग्य और दूरदर्शी व्यक्ति था। उसने शासन सम्भालने के पश्चात् उपरोक्त समस्याओं का कुशलतापूर्वक समाधान किया जिसका संक्षिप्त विवरण निम्नवत है।

(1) विरोधी अमीरों का दमनः

अनेक तुर्क सरदार इल्तुतमिश के सुल्तान बनने का विरोध कर रहे थे। इस्तुतमिश ने सर्वप्रथम इन्हीं दरबारी अमीरों का दमन किया। उसने अनेक तुर्क सरदारों की हत्या करवा दी। अनेक सरदारों को कठोर दण्ड दिये। शेष सरदारों ने विवश होकर उसकी अधीनता स्वीकार कर ली इस प्रकार दिल्ली में कोई बड़ा तुर्क सरदार उसका विरोधी न रहा।

(2) चालीस गुलाम सरदारों के गुट अर्थात तुर्कात ए चिहालगानीका संगठन

आरम्भ में ही कुछ कुतुबी अर्थात कुतुबुद्दीन के समय में सरदार और ‘मुइज्जी’ अर्थात मुहम्मद गौरी के समय के सरदारों ने इल्तुतमिश के सिंहासन पर बैठते ही उसका विरोध किया। – इल्तुतमिश ने उनके विद्रोह को समाप्त कर दिया परन्तु वह कभी भी उन पर पूर्ण विश्वास न कर सका। इस कारण उसने अपने गुलाम सरदारों का एक गुट बनाया जो ‘तुर्कान-ए-चिहालगानी’ के नाम से विख्यात हुआ। वे गुलाम सरदार उसी के द्वारा खरीदे गये थे। उन्हें राज्य में प्रतिष्ठित पद प्रदान किये गये और प्रशासन में उनसे सहयोग लिया गया। वे पूर्णतया इल्तुतमिश पर निर्भर करते थे और उसी के कारण उच्च पदों पर पहुंचे थे। इस कारण वे इल्तुतमिश के प्रति सर्वदा वफादार रहे। इससे इल्तुतमिश की ‘कुतुवी’ और ‘मुइज्जी’ सरदारों पर निर्भरता समाप्त हो गयी।

(3) एल्दीज और कूबाचा का दमन

दरबारी अमीरों से निपटने के बाद इल्तुतमिश ने एल्दौज और कुंबाचा की ओर ध्यान दिया। 1215 ई. में जब एल्दौज ख्वारिज्म के शाह से पराजित होकर भारत भाग आया और उसने नासिरूद्दीन कुवैचा को हराकर लाहौर पर कब्जा कर लिया तब इल्तुतमिश ने एल्दौज के विरुद्ध सैनिक अभियान किया और उसे पराजित किया।

इल्तुतमिश ने इसके बाद सन् 1217 ई. में कुबाचा पर आक्रमण करके उसे अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश किया। कुवाचा ने कर देना भी स्वीकार किया। लेकिन कुवैचा उसके लिए समस्या बना रहा अतः विवश होकर इल्तुतमिश ने 1227-1228 में कुर्बचा पर दुबारा आक्रमण किया। पराजित कुवाचा प्राण-रक्षा के लिए भागते हुए नदी में डूब कर मर गया। कुबाचा के बाद सियालकोट व अजमेर तक इल्तुतमिश का शासन हो गया था।

(4) मंगोलों से साम्राज्य की सुरक्षा

इल्तुतमिश को 1224 ई. में मंगोल समस्या का भी सामना करना पड़ा। सन् 1224 ई. में मंगोलों के नेता चंगेज खां ने ख्वारिज्म के शाह के पुत्र जलालउद्दीन मांगवान को भागने के लिए बाध्य कर दिया। जलालउद्दीन ने इल्तुतमिश से दिल्ली में शरण देने की प्रार्थना की परन्तु इल्तुतमिश ने इंकार कर दिया। कुछ राजनीतिक विद्वानों ने इल्तुतमिश की इस नीति की आलोचना की है परन्तु अधिकतर इतिहासकारों ने उसके इस निर्णय को समयानुकूल बताया है। ए. एल. श्रीवास्तव का कहना है कि यदि इल्तुतमिश ने इससे भिन्न नीति अपनाई होती तो दिल्ली सल्तनत आरम्भ में ही नष्ट हो गई होती। इल्तुतमिश द्वारा शरण न दिये जाने से विवश होकर जलालुद्दीन शीघ्र ही स्वदेश (फारस) लौट गया। उसके लौटने पर मंगोल भी भारत की भयंकर गर्मी से त्रस्त हो कर भारत छोड़कर पश्चिम की ओर चले गये और दिल्ली सल्तनत एक भयंकर खतरे से बच गयी। निःसंदेह यह इल्तुतमिश की राजनीतिज्ञ दूरदर्शिता का परिणाम था।

(5) बंगाल के खिलजी सरदारों का दमन

यद्यपि ऐबक ने बंगाल को जीत लिया था। लेकिन उसकी मृत्यु के बाद बंगाल में खिलजी सरदारों ने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली थी इल्तुतमिश ने अपनी पश्चिमी सीमा सुरक्षित करने के बाद बंगाल की ओर ध्यान दिया। सन् 1225 ई. में उसने बंगाल के तत्कालीन शासक ग्यासुद्दीन पर भयंकर आक्रमण किया। ग्यासुद्दीन उसका मुकाबला करने के लिए आया परन्तु बाद में उसने बिना किसी युद्ध के इल्तुतमिश की अधीनता स्वीकार कर ली और उसे युद्ध की क्षतिपूर्ति में बहुत सा धन दिया।

(6) राजपूतों से युद्ध

ऐबक ने यद्यपि राजपूतों को पराजित कर दिया था लेकिन ऐवक मृत्यु के बाद इन राजपूत शासकों ने आक्रमणकारी नीति को अपना लिया था। चन्देलों ने कालिंजर और अजयगढ़ को जीत लिया था, प्रतिहारों ने ग्वालियर, नरवर व झांसी पर अधिकार कर लिया, गोविन्दराज के नेतृत्व में चौहानों ने रणथम्भौर को तुर्कों से छीनकर जोधपुर और उसके निकट के प्रदेशों पर अपना अधिकार कर लिया था और कई बार तुर्कों को परास्त किया। राजस्थान की भांति दोआब में भी हिन्दू शासक तुकों के विरुद्ध विद्रोह कर रहे थे। हिन्दू शासकों की शक्ति को दुर्बल करना और अपने राज्य के मुख्य भाग दोआब को अपने अधीन करना इल्तुतमिश के लिए आवश्यक था। उसने इन विद्रोही शासकों के विरुद्ध कठोर नीति का पालन किया और इन राजाओं को पराजित कर पुनः उन क्षेत्रों में तुर्कों की सत्ता स्थापित की।

भारत पर हूण आक्रमाण के विषय में आप क्या जानतें हैं संक्षेप में लिखिए?

इस प्रकार इल्तुतमिश ने अपनी योग्यता और सूझबूझ से अपने सामने उत्पन्न कठिनाइयों का समाधान किया और नव स्थापित तुर्की साम्राज्य को न केवल बचाये रखा बल्कि उसका विस्तार कर उसे सुदृढ़ भी किया। निःसंदेह ये कार्य उसे महान सेनानायक और कुशल कूटनीतिज्ञ की संज्ञा प्रदान करते हैं।

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