हिन्दू विवाह के उद्देश्य की विवेचना कीजिए।

हिन्दू विवाह केउद्देश्य-हिन्दू विवाह के मुख्य उद्देश्य अथवा कार्य निम्नलिखित है

(1) पुरुषार्थों के सम्पादन के लिए-

पुरुषार्थों का अभिप्राय धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष से है। इनकी पूर्ति के लिए गृहस्थ आश्रम अपनाना अत्यन्त ही आवश्यक है। स्त्री को सभी पुरुषार्थों का केन्द्र माना जाता है। मोक्ष का सम्बन्ध-संन्यासी से होता है लेकिन यह सत्य नहीं है क्योंकि कोई पुरुष बिना गृहस्थ आश्रम अपनाए सीधा संन्यासी नहीं बन सकता है।

(2) सुखमय जीवन निर्वाह के लिए

विवाह के द्वारा व्यक्ति अपनी इन्द्रियों की सन्तुष्टि, कामवासना की सन्तुष्टि कर लेता है। अतः विवाह व्यक्ति के जीवन का सुखमय मार्ग है।

(3) वंश परम्परा के निर्वाह के लिए-

हिन्दुओं की मान्यता है कि पुत्र पिता का नाम धारण करता है। यह प्रक्रिया वंश परम्परा के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है। अतः पिता का नाम चलता रहता है। वंश की निरंतरता के लिए हिन्दू विवाह आवश्यक है।

(4) धर्म की पूर्ति के लिए

धर्म की साधना, पूजा पाठ संस्कार, दान-दक्षिणा आदि कार्य पत्नी विहीन पुरुष नहीं कर सकता है। वह अयज्ञीय माना जाता है। प्रत्येक कार्य के लिए आवश्यक है कि पुरुष के साथ उसकी स्त्री भी हो। हिन्दू विवाह इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए भी अत्यन्त आवश्यक है।

जेण्डर समाजीकरण की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।

(5) पितृ ऋण से होने के लिए

हिन्दुओं की आस्था है कि पिता पुत्र को जन्म देकर उस पर उपकार करता है। अगर पिता पुत्र को जन्म न दे तो पुत्र का इस संसार में न तो प्रवेश होगा और न ही वह धर्म की पूर्ति कर मोक्ष की प्राप्ति कर सकेगा अतः पुत्र को जन्म देना पुत्र पर पिता का ऋण है। इस ऋण से वह तभी मुक्त हो सकता है जब वह विवाह कर पुत्र को जन्म दें।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top