Sociology

हिन्दू धर्म के स्वरूप की विवेचना कीजिए।

हिन्दू धर्म के स्वरूप / प्रकार- धर्म का तात्पर्य मानव के कर्त्तव्यों से है, अतः वह भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न रूप से व्यक्तियों के कर्तव्यों की व्याख्या करता है। चूंकि सबकी रुचि, मानसिक योग्यता, अधिकार, कार्यक्षमता, परिस्थिति एकसमान नहीं है, इसलिए धर्म का कोई एक स्वरूप न होकर उसके कई स्वरूप हैं किन्तु सभी स्वरूपों का उद्देश्य व्यक्ति के अभ्युदय और निःश्रेयस से सम्बन्धित है। मुख्यतः धर्म के तीन स्वरूप हैं- 1. सामान्य धर्म, 2 विशिष्ट धर्म, 3. आपद् धर्म।

1.सामान्य धर्म (Samanya Dharma)

सामान्य धर्म किसी एक व्यक्ति, परिवार, जाति, समूह या देश का धर्म न होकर समस्त मानव जाति का धर्म है। यह धर्म सभी के द्वारा अनुसरण करने के योग्य है। इसका सम्बन्ध नैतिक नियमों से है। नैतिक नियम सभी के लिए सामान्य होते हैं इसलिए यह सभी के लिए उपयोगी हैं। सामान्य धर्म का पालन जब सकाम रूप से अर्थात् फल प्राप्ति की इच्छा रखते हुए किया जाता है तब मोक्ष की प्राप्ति होती है। श्रीमद्भागवत्

में देवर्षि नारद ने प्रहलाद को धर्म का उपदेश देते हुए सामान्य धर्म के 30 लक्षण बताये हैं। मनुस्मृति के अनुसार सामान्य धर्म के 10 लक्षण हैं

धृतिः क्षमा दमाऽस्तेयं शोचमिन्द्रिय निग्रहः । घीर्विद्या सत्यंक्रोधो दशकम धर्म लक्षणम्॥

ये 10 लक्षण हैं

  1. धृति अर्थात् अपनी जीभ या जननेन्द्रियों पर संयम रखना,
  2. क्षमा अर्थात् शक्तिशाली होते हुए भी क्षमाशील होना,
  3. काम एवं लोभ पर नियंत्रण अर्थात् शारीरिक वासनाओं पर संयम रखना,
  4. अस्तेय अर्थात् सोये हुए, पागल या अविवेकी व्यक्ति से विविध तरीकों द्वारा कपट करके कोई वस्तु न लेना,
  5. शुचिता अर्थात् पवित्रता अपने मन, जीवात्मा और बुद्धि को पवित्र रखना,
  6. इन्द्रिय-निग्रह अर्थात् इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना
  7. थी का तात्पर्य बुद्धि के समुचित विकास से है, किसी वस्तु के गुण-दोष की विवेचना शक्ति है,
  8. विद्या वह है जो व्यक्ति को काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि क्षुद्र प्रवृत्तियों से मुल करती है और धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष पुरुषार्थ को समझाकर तनदुरूप आचरण योग्य बनाती है,
  9. सत्य,
  10. अक्रोध अर्थात् क्रोध न करना। सामान्य धर्म के उपर्युक्त लक्षण मानव मात्र के विकास में योग देते हैं। इन गुणों का अपने आप में विकसित करने की प्रत्येक मानव से अपेक्षा की जाती है।

2. विशिष्ट धर्म (Vishistha Dharma)

एक ओर सम्पूर्ण मानव जाति के सामान्य धर्म का निरूपण किया गया तो दूसरी ओर यह भी ध्यान में रखा गया कि प्रत्येक व्यक्ति के कर्तव्य एक दूसरे से मित्र होने आवश्यक हैं क्योंकि सभी व्यक्तियों में स्वभाव, आयु, गुण, व्यवहार और सामाजिक पद की मित्रता होती है। समाज में दूसरे व्यक्तियों की तुलना में एक व्यक्ति की जो स्थिति है, जैसी परिस्थिति है उसके अनुसार निर्धारित होने वाले कर्तव्यों को विशिष्ट धर्म कहा जाता है। इसे स्वधर्म भी कहा जाता है क्योंकि वह व्यक्ति विशेष का धर्म है। विशिष्ट धर्म के कुछ स्वरूप निम्न हैं

1. वर्ण धर्म का तात्पर्य वर्ण द्वारा निर्धारित नियमों और कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करना है। जैसे ब्राह्मण का वर्ण धर्म है- अध्ययन-अध्यापन, यज्ञ व बलि आदि का विधान करना, यज्ञ आदि को सुसम्पन्न करना तथा दान लेना।

2. आश्रम धर्म- विभिन्न आश्रमवासियों के द्वारा किये जाने वाले कर्त्तव्य-आचरणों की ओर संकेत करता है। उदाहरणार्थ- ब्रह्मचर्य आश्रम में ब्रह्मचारी का धर्म यह है कि सूर्योदय से पहले उठे, ईश्वर पूजा करे, साथ जीवन बिताये, गुरु की सेवा करे आदि।

3. कुल धर्म- व्यक्ति के अपने परिवार वंश या कुल के प्रति उसके कर्त्तव्यों को कहते हैं। जैसे- माता-पिता की सेवा करना, पितरों को पिण्डदान करना आदि।

4. राजधर्म- राजा का धर्म है अपने पराक्रम के बल पर शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए सदैव तत्पर रहना, दृढ़ प्रतिश होना, योद्धाओं का सत्कार करना तथा उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कुटिल नीति का प्रयोग करना तथा दोषी व्यक्तियों को दण्ड देना

5. युग धर्म- हर युग का काल का अपना दृष्टिकोण तथा आवश्यकतायें होती हैं। अतः समय के अनुसार धर्म का परिवर्तित होना अनिवार्य है। धर्म का यह स्वरूप इस बात को स्पष्ट करता है कि धर्म स्थिर न होकर गतिशील है।

6. राष्ट्र धर्म प्रत्येक देश के भिन्न मूल्य और सांस्कृतिक प्रतिमान होते हैं जिन्हें व्यक्ति स्वीकार करता है और जिनका उस देश में महत्व होता है। प्रायः कहा जाता है कि जिस स्थान पर रहो उस स्थान के नियमों का पालन करो। महाभारत में उल्लिखित है कि जो एक स्थान का धर्म हो सकता है वह दूसरे स्थान का नहीं भी हो सकता।

7. मित्र धर्म- इस धर्म में दो मित्रों के बीच आय, सम्पत्ति और सामाजिक आधार पर कोई भेद-भाव नहीं किया जा सकता। एक मित्र का कर्त्तव्य है कि वह अपने मित्र का मन, शरीर और वचन से रक्षा करें। उसके सुख में सुख और दुःख में दुःख का अनुभव करें, दूसरों के सामने उसके गुणों को स्पष्ट करें और अवगुणों को छिपायें तथा उसके लिए सभी प्रकार का त्याग करने को तत्पर रहें।

8. गुरु धर्म- गुरु का धर्म है त्याग और अहिंसा के द्वारा ज्ञान का प्रसार करना। हर प्रकार से अपने शिष्यों का हित सोचना, लोभ और दम्म से दूर रहना तथा सर्वाधिकार सम्पन्न रहते हुए भी अधिकारों का त्याग करना।

इंग्लैण्ड के पुनर्जागरण का इतिहास लिखिए।

3. आपद्धर्म (Apat dharma)

आपद्धर्म का तात्पर्य है आपत्ति के सम अपनाया जाने वाला धर्म हिन्दू शास्त्रकारों का मत है कि प्रत्येक व्यक्ति के सामने अक्सर अनेक आपत्ति और धर्म संकट की परिस्थितियाँ आती रहती हैं। उस परिस्थिति में यदि व्यक्ति अपने सामान्य और विशिष्ट धर्म में कुछ परिवर्तन कर लेता है तो उसे दोषी नहीं माना जाता। संकट की स्थिति समाप्त होने पर धर्म को पूर्ववत् रूप से अपना लिया जाना चाहिए। इस प्रकार यह धर्म अस्थायी है और परिस्थिति विशेष से सम्बन्धित है। आपद्धर्म एक प्रकार का विशिष्ट धर्म ही है परन्तु दोनों के बीच एक अंतर है। विशिष्ट धर्म का पालन उसी रूप में किया जाना चाहिए जिस समय विशेष के लिए वह निर्धारित हुआ है, किन्तु आपद्धर्म में अपनी बुद्धि एवं विवेक के अनुसार नियमों में परिवर्तन किया जा सकता है।

About the author

pppatel407@gmail.com

Leave a Comment