गुप्त वाकाटक सम्बन्ध की विवेचना कीजिए।

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गुप्त वाकाटक सम्बन्ध – वाकाटक गुप्तों के समकालीन थे। गुप्त जहाँ उत्तर भारत की प्रमुख शक्ति होकर उमरे, वहीं वाकाटक दक्षिण भारत में इन दोनों राजवंशों के मध्य आपसी सम्बन्ध भी था, जिसका विवरण अधोलिखित है-

(1) विन्ध्यशक्ति और श्रीगुप्त एवं घटोत्कच

ये दोनों गौण शासक थे। अतः इनके मध्य किसी सम्बन्ध की सम्भावना नहीं है।

(2) प्रवरसेन प्रथम (275-335 ई.) और चन्द्रगुप्त (31-350 ई०)

दोनों ही समकालीन थे, एक का वैवाहिक सम्बन्ध नागवंशीय नरेश भणनाग था ये दूसरे का वैशाली के लिच्छवियों से दोनों ही अपने राजवंश के प्रथम शक्तिशाली राजा थे। प्रवरसेन ने सम्राट की तथा चन्द्रगुप्त प्रथम ने महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की थी परन्तु दोनों के मध्य किसी प्रकार के सम्बन्धों की सूचना नहीं मिलती है।

(3) रूद्रसेन प्रथम (335-360 ई.) और समुद्रगुप्त (350-375 ई.)

दोनों ही नरेश समकालीन एवं महत्त्वाकांक्षी थे। परन्तु इनके मध्य किसी स्पष्ट सम्बन्ध की हमें प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती है। समुद्रगुप्त के आर्यावर्त विजय के रूद्रदेव का समीकरण कुछ विद्वान रुद्रसेन प्रथम से करते हैं, परन्तु उक्त मत को अन्य विद्वानों ने अमान्य घोषित कर दिया। कुछ विद्वान समुद्रगुप्त के व्याघ्रनिहंता प्रकार के सिक्कों पर गंगा का अंकन होने के कारण उसे वाकाटकों का सामन्त घोषित किया क्योंकि गंगा वाकाटकों का राजसिंह था साथ में इस पर समुद्रगुप्त की उपाधि केवल राजा ही उत्कीर्ण है। परन्तु यह मत भी निराधार है। समुद्रगुप्त ने अपनी आर्यावर्त विजय के समय नागों से प्रारम्भिक संघर्ष के बाद मित्रता कर ली और अपने पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय का विवाह नागवंशीय कुबेरनागा से कर दिया। नाग वाकाटकों के भी सम्बन्धी थे। अतः नागों के साथ सम्बन्ध हो जाने से गुप्त और वाकाटक वंश के सम्बन्ध भी मधुर हुए होंगे। इससे अधिक इनके बीच किसी अन्य सम्बन्ध की जानकारी हमें नहीं मिलती है।

पृथ्वीसेन (360-385 ई.), समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त द्वितीय

पृथ्वीसेन समुद्रगुप्त एवं चन्द्रगुप्त द्वितीय दोनों का समकालीन था। समुद्रगुप्त ने नागों से सम्बन्ध स्थापित कर गुप्त वाकाटक सम्बन्धों की अच्छी पहल की थी जिसकी परिणति चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में हुई। उसने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्ता का विवाह पृथ्वीसेन प्रथम के पुत्र रूद्रसेन द्वितीय के साथ कर गुप्त- वाकाटक सम्बन्धों की नींव डाली। रूद्रसेन द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् वाकाटक राज्य पर प्रभावती गुप्ता ने चन्द्रगुप्त द्वितीय के दिशा-निर्देश में शासन किया। यह गुप्त वाकाटक सम्बन्धों का ‘स्वर्णकाल’ कहा जाता है। वाकाटकों की सहायता से ही चन्द्रगुप्त द्वितीय शकों को पूर्णतया समाप्त करने में सफल हुआ था। उसने अपने पदाधिकारियों की नियुक्ति वाकाटक राजदरबार में भी कर रखी थी। महाकवि कालिदास भी वाकाटक राजदरवार में गए थे, जहाँ उन्होंने प्रवरसेन द्वितीय (दामोदरगुप्त ) द्वारा रचित काव्य सेतुबन्ध का संशोधन किया था। यहीं पर कालिदास ने मेघदूत की भी रचना की थी।

प्रवरसेन द्वितीय

प्रवरसेन द्वितीय ने अपने नाना चन्द्रगुप्त के संरक्षण में ही राजकाज सीखा था। उसके समय में रप्त वाकाटक सम्बन्ध अत्यन्त मधुर थे। कदम्ब नरेश काकुत्सर्ग ने अपनी दो बेटियों में एक की शादी गुप्त राजकुमार से तो दूसरी की प्रवरसेन द्वितीय के साथ की थी।

रामगुप्त की ऐतिहासिकता पर प्रकाश डालिए।

नरेन्द्रसेन (440-460 ई.), कुमारगुप्त (412-455 ई.) तथा स्कन्दगुप्त (455-467 ई.)

कुमार गुप्त के काल तक सम्भवतः दोनों राजवंशों में कोई समस्या उत्पन्न नहीं हुई थी परन्तु स्कन्दगुप्त के शासन काल में पुष्यमित्र के आक्रमण के समय स्कन्दगुप्त को संकट में देखकर नरेन्द्रसेन ने उसकी सहायता करने की बजाय मालवा, मेकल और कोशल के विद्रोही गुप्त सामन्तों को सहायता देकर अपने अधीन कर लिया। परन्तु स्कन्दगुप्त ने पुष्यमित्रों को पराजित करने के बाद पुनः इन पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय से चली आ रही गुप्त वाकाटक मैत्री सम्बन्धों की परम्परा स्कन्दगुप्त एवं नरेन्द्रसेन के समय में गुप्त- वाकाटक में बदल गया। जिसका फायदा वत्सगुल्य के वाकाटक नरेश हरिषेण ने उठाया और गुप्तों से मालवा और दक्षिणी कोशल के प्रदेश छीन लिए। इसने 475-510 ई. तक शासन किया। इसके बाद दोनों ही राजवंशों का क्रमशः पतन हो गया।

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