‘ग्रीन का स्वतंत्रता सम्बन्धी सिद्धान्त’ की विशेषताओं का उल्लेख कीजिये।

ग्रीन का स्वतंत्रता सम्बन्धी सिद्धान्त – ग्रीन ने अपने सम्पूर्ण व्यावहारिक दर्शन को ‘स्वतंत्र नैतिक इच्छा’ पर आधारित किया है। उसने स्वतंत्रता को महानतम् वरदान माना है जिसकी प्राप्ति एवं अनुभूति ही नागरिकों के सम्पूर्ण प्रयत्नों का अन्तिम ध्येय होना चाहिये। ग्रीन के अनुसार मानव का चरम लक्ष्य परमात्मा में आत्म-दर्शन करना है। जब मनुष्य अपनी आत्मा को पहचानने का प्रयत्न करते हैं तो वे परमात्म चेतन की अवस्था में प्रवेश करते हैं और इस अवस्था में उनको यह बोध होता है कि हम सब समान स्वभाव वाले हैं, हमारी सबकी समान शुभेच्छायें हैं और सबका एक ही लक्ष्य है, परमात्मा में आत्म-दर्शन इस प्रकार मानव चेतना अर्थात् आत्मा को सामाजिक कल्याण का बोध होता है जिसमें स्वयं उसका भी कल्याण निहित है। जब वह इस सामाजिक कल्याण की पूर्णता प्राप्त कर लेता है तो उसको आत्म बोध हो जाता। है। इस आत्म-बोध के निमित्त मानव चेतना स्वतंत्रता चाहती है। यह स्वतंत्रता दो प्रकार की होती है- प्रथम, आन्तरिक स्वतंत्रता जिसका अर्थ है अपनी मनोवृत्तियों को वश में रखना जो आचारशास्त्र का विषय है, द्वितीय, बाह्य स्वतंत्रता जिसका अर्थ ऐसी बाह्य परिस्थितियों का होना जिनमें व्यक्ति निर्वाध रूप से अपने वास्तविक हित के निमित्त क्रियाशील हो सकें। यह राज्य शास्त्र का विषय है। ग्रीन के मानव चेतना सम्बन्धी विचार नैतिक और आध्यात्मिक हैं। स्वतंत्रता सिद्धान्त राजनीतिक होने के कारण हमारे अध्ययन का विषय है।

विशेषताएँ-

1.स्वतंत्रता करने योग्य कार्यों की ही होती है

ग्रीन के मन्तव्य को स्पष्ट करते हुये बार्कर का कथन है कि ‘मानव-चेतना में स्वतंत्रता निहित है, स्वतंत्रता में अधिकार निहित है और अधिकारों के लिये राज्य आवश्यक है। ग्रीन का विश्वास है कि स्वतंत्रता का अर्थ केवल शुभ इच्छा की स्वतंत्रता ही हो सकती है। वह केवल उन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने की स्वतंत्रता हो सकती है जो स्वयं ऐसी इच्छा प्रस्तुत करती है। इसका अभिप्राय यह है कि स्वतंत्रता न तो केवल प्रतिबन्धों का अभाव ही है और न ही इसका अर्थ नियंत्रण अथवा अनुशासन से मुक्ति प्राप्त करना मात्र माना जा सकता है। जिस तरह कुरूपता का अभाव सौन्दर्य नहीं होता, उसी तरह प्रतिबन्धों का अभाव स्वतंत्रता नहीं कहा जा सकता। हम उसे भी स्वतंत्रता नहीं कह सकते जब कोई व्यक्ति अथवा वर्ग दूसरों की स्वतंत्रता की कीमत पर खुद की स्वतंत्रता का उपभोग करता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है जिसके कार्य समाज के दूसरे लोगों से सम्बन्धित हैं।

अतः स्वतंत्रता इसी बात में निहित है कि हमें उन्हीं कार्यों को करने की छूट हो जिनके द्वारा हम उस सुख अथवा वस्तु को प्राप्त कर सकें जो सामाजिक और नैतिक दृष्टिकोण के प्राप्त करने योग्य हो तथा जिसकी प्राप्ति हम समाज के अन्य व्यक्तियों के साथ मिलकर करें। हमें कुछ बुरे कार्य करने से भी क्षणिक सुख मिल सकता है, लेकिन इन कार्यों को करने की छूट देना स्वतंत्रता नहीं कही जा सकती। ये कार्य आत्मा के विकास में बाधक होते हैं क्योंकि ये शुभ इच्छा से उत्पन्न नहीं होते। अतः ऐसे कार्यों को न करने देना स्वतंत्रता है जबकि करने देना परतन्त्रता होगी। वास्तविक स्वतंत्रता तो उन कार्यों को करने या आनन्द प्राप्त करने की सकारात्मक शक्ति है जो किये जाने अथवा आनन्द-लाभ करने योग्य हों।

बार्कर ने प्रीन द्वारा अभिव्यक्त इस स्वतंत्रता के दो लक्षणों का उल्लेख किया है-

  • सकारात्मक या यथार्थ स्वतंत्रता
  • निश्चयात्मक स्वतंत्रता

2. स्वतंत्रता मानव चेतना की एक विशेषता

ग्रीन के अनुसार मनुष्य की आत्म चेतना के विकास के लिये स्वतंत्रता का होना अनिवार्य है। मानव चेतना विश्व चेतना का एक अंश है और विश्व चेतना का सार स्वतंत्रता है, इसलिये आत्म चेतना भी स्वतंत्र होती है। यह मानव चेतना स्वतंत्रता के लिये राज्य की माँग करती है। बार्कर के शब्दों में “मानव चेतना स्वतंत्रता चाहती है। स्वतंत्रता में अधिकार निहित हैं और अधिकार राज्य की मांग करते हैं।”

3. स्वतंत्रता में अधिकार निहित हैं

स्वतंत्रता की भावना स्वयं अधिकार मुक्त होती है। एक व्यक्ति जिस कार्य को अपने लिये अच्छा समझता है, अन्य मनुष्य भी उसे अपनी पूर्णता के लिये उपयोगी समझते हैं और इस तरह सम्पूर्ण समाज ही उन्हें अपने विकास में सहायक समझने लगता है जिसका परिणाम यह होता है कि सामाजिकता की भावना पैदा होती है।” एक व्यक्ति का अपनी भलाई की आकांक्षा के साथ अन्य व्यक्तियों की भलाई की कामना करना समाज की भलाई की इच्छा होती है। ऐसा सम्बन्ध समाज की रचना करता है जिसका अर्थ अधिकार होता है।” इस तरह स्वतंत्रता में अधिकार निहित होते हैं।


अमेरिकी सीनेट की ब्रिटिश लार्ड सभा से तुलना कीजिए।

स्वतंत्रता का अभिप्राय यह कदापि नहीं होता कि कोई व्यक्ति प्राप्त अधिकारों का दुरुपयोग करे। स्वतंत्रता शब्द अपने आप में भी स्वतंत्र है और दूसरों को भी उतनी स्वतंत्रता प्रदान करता है जितना वह स्वयं स्वतंत्र है। स्वतंत्रता का वास्तविक उपभोग तभी किया जा सकता है जब वह अधिकारयुक्त हो अधिकारविहीन स्वतंत्रता उच्छृंखलता में परिणत हो जाती है। यदि हमें व्यक्तित्व 1 की उन्नति के लिये पूर्ण स्वतंत्रता की अपेक्षा है तो यह स्वाभाविक है कि हमें जीवन का अधिकार, सम्पत्ति का अधिकार, स्वतंत्रतापूर्वक भ्रमण का अधिकार, व्यवसाय, शिक्षा एवं कार्य का अधिकार आदि प्राप्त हो, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं होता कि हम अपने मार्ग में आने वाली बाधाओं को इस रूप में हटाने का प्रयत्नशील हो जायें जिससे दूसरे लोगों के अधिकारों का हनन हो। इस प्रकार स्वतंत्रता के साथ अधिकार जुड़ा होता है। स्वतंत्रता शब्द में ही अधिकार निहित होते हैं। अधिकार रहित स्वतंत्रता की कल्पना करना मूखों के संसार में रहना है।

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