ग्रामीण समुदाय के समाजशास्त्रीय महत्व की विवेचन कीजिए।

ग्रामीण समुदाय के समाजशास्त्रीय महत्व निम्न लिखित है ।

1. सम्पूर्ण समाज के प्रतिनिधि

अधिकांश देशों में जनसंख्या का बड़ा भाग गांवों में ही निवास करता है, इसलिए ग्रामीण समुदाय का जीवन-स्तर ही उस देश का जीवन स्तर होता है और वहां की प्रगतिवादिता ही सम्पूर्ण राष्ट्र की प्रगति बन जाती है। भारत में जहां जनसंख्या का लगभग तीन-चौथाई भाग गांवों में निवास करता हो इस स्थिति को अच्छी प्रकार समझा जा सकता है।

2. आर्थिक जीवन का आधार

सभी आर्थिक क्रियाएं प्राथमिक रूप से कच्चे माल के उत्पादन पर ही निर्भर हैं। यदि कपास, जूट, गन्ना और तिलहन जैसी व्यापारिक फसलों का उत्पादन गांवों में रुक जाये तो नगरीय आर्थिक संरचना अपने आप टूट जायेगी। ऐश्वर्य में रहने वाले नगरवासी इसलिए सारी सुविधाएं प्राप्त कर लेते हैं कि उनके लिए करोड़ों व्यक्ति धूप और वर्षा में हल चलाते रहते हैं। ग्रामीण जीवन ही वास्तव में श्रम की सच्ची अभिव्यक्ति है।

3. संस्कृति के वाहक

किसी भी समाज की संस्कृति ग्रामीण समुदाय में परिपक्व होती है और गांव के निवासियों द्वारा ही उसे स्थिरता प्राप्त होती है। ग्रामीण अपनी परम्पराओं, प्रथाओं और लोकाचारों में विश्वास करते हैं और आगे आने वाली पीढ़ियों को ये सांस्कृतिक विशेषताएं बिल्कुल विशुद्ध रूप से हस्तान्तरित कर देते हैं। उनके यहां परिवार और धर्म का रूप सैकड़ों वर्षों तक परिवर्तित नहीं होता। सांस्कृतिक आदशों की अवहेलना करना सबसे बड़ा अपराध समझा जाता है। इससे सांस्कृतिक विशेषताएं सदैव स्थायी बनी रहती है। नगर का व्यक्ति दूसरे समाज में जाकर अपनी मौलिक विशेषताओं को भूल सकता है लेकिन एक ग्रामीण नये स्थान पर जाकर बसने के बाद भी एक लम्बे समय तक अपनी संस्कृति को ही प्राथमिकता देता है भारत की हजारों वर्ष प्राचीन संस्कृति की स्थिरता का सबसे महत्वपूर्ण कारण यही है कि भारत मुख्यतः एक ग्रामीण देश रहा है।

4. सामाजिक संगठन के प्रतीक

ग्रामीण समुदाय अपेक्षाकृत कहीं अधिक संगठित और कहीं अधिक व्यवस्थित होते हैं। एक गांव के सभी व्यक्ति प्राथमिक सम्बन्धों द्वारा बंधे रहते हैं और नियन्त्रण के अनौपचारिक साधनों द्वारा प्रभावित होते हैं। इससे व्यक्तिवादिता और सामाजिक संघषों की मात्रा अत्यधिक कम हो जाती है। गांवों में देश की जनसंख्या का बड़ा भाग निवास करता है, इसलिए ग्रामीण संगठन ही समाज का संगठन है और गांव में उत्पन्न होने वाले विघटनकारी तत्व ही सम्पूर्ण समाज को विघटित कर देते हैं।

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5. परिवर्तन के प्रति उदासीन

समाज की एक प्रमुख आवश्यकता कम से कम परिवर्तनशील जीवन का होना है। यद्यपि परिवर्तन होने से समाज प्रगति भी कर सकता है लेकिन परिवर्तन से अनुकूलन न कर सकने की दशा में समाज के विघटित होने की भी आशंका रहती है। इसलिए प्रत्येक समाज का उद्देश्य परिवर्तन को कम से कम प्रोत्साहन देना होता है। ग्रामीण समुदाय इस उद्देश्य की पूर्ति सबसे अच्छे ढंग से करते हैं। वे परिवर्तन के प्रति शंकालु ही नहीं होते बल्कि अपनी सम्पूर्ण शक्ति से परिवर्तन का विरोध भी करते हैं। इससे सामाजिक जीवन में स्थायित्व बना रहता है।

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