गीता में वर्णित कर्मयोग की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।

गीता में वर्णित कर्मयोग – गीता में आत्मलाभ के साधन के रूप में कर्मयोग का भी साधन प्रतिपादित है। आधुनिक युग में लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी और श्रीमती एनी विसेंट आदि विचारकों ने कर्मयोग, विशेषतः निष्काम कर्मयोग को ही गीता की मुख्य शिक्षा स्वीकार किया है। यह आत्मलाभ के साथ लोकसंग्रह की भी सिद्धि का साधन है। कर्मयोग शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है-कर्म और योग। ‘कर्म’ शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त होता है। ‘कर्म’ शब्द का एक अर्थ है, ‘कार्य (कर्तव्य कर्म) ।

‘कर्म’ शब्द का एक अर्थ ‘यज्ञ’ भी है। ब्राह्मण ग्रन्थों में इसका यही अर्थ किया जाता है। ‘कर्म शब्द कभी-कभी ‘ईश्वरोपासना’ के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। गीता में कर्म शब्द यथास्थान उपरोक्त सभी अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। गीता में कर्म शब्द एक अन्य अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है। यह शब्द उन कर्तव्यों के अर्थ में आया है जो परम्परया समाज के पृथक-पृथक वर्गों के साथ सम्बद्ध हो गये थे। इन्हें ‘स्वधर्म’ या ‘वर्णधर्म’ कहा जाता है। वास्तव में गीता में कर्म शब्द का यही अन्तिम अर्थ अधिक अभीष्ट है। तात्पर्य यह है कि गीता में कर्म शब्द वर्णगत कर्म (सामाजिक कर्तव्य) के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है।

स्पष्ट कीजिए ‘समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है।’

‘योग’ शब्द का अर्थ है, ‘जोड़ना’ या ‘लगाना’, यह बताया जा चुका है। हम स्वधर्म का विस्तृत विवेचन इसी अध्याय में आगे करेंगे। इस प्रकार कर्मयोग का अर्थ है, निष्ठापूर्वक अपने सामाजिक कर्तव्यों का पालन करना’। वास्तव में गीता कर्मयोग के प्रसंग में प्रत्येक व्यक्ति से यह आग्रह करती है कि वह अपने वर्णंगत कर्तव्यों का, उन सामाजिक कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक

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