एक्वीनाश के राजनैतिक विचार की विवेचना कीजिए।

एक्वीनाश के राजनैतिक विचार – एक्वीनाश के राजनैतिक विचार अग्रलिखित

शासन-प्रणालियों का वर्गीकरण

एक्वीनास शासन की विभिन्न प्रणालियों का वर्गीकरण अरस्तु द्वारा प्रयुक्त आधार पर करता है। अरस्तू के समान ही वह सुबका हित और कल्याण करने वाली शासन-प्रणालियों को श्रेष्ठ और न्यायूपर्ण तथा सिर्फ शासकों का हित चाहने वाली शासन-प्रणालियों को निकृष्ट और अन्यायपूर्ण समझता है। अरस्तू राज्य का लक्ष्य सद्गुणी जीवन की प्राप्ति मानता है। किन्तु एक्पीनास के लिए राज्य का लक्ष्य ऐसे सदगुणी जीवन को प्राप्ति है जिससे अन्ततः मनुष्य को मोक्ष प्राप्त हो सके। उसके अनुसार वही राज्य श्रेष्ठ है जो इस तरह के जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होता है।

अरस्तू लोकतन्त्र को श्रेष्ठ शासन प्रणाली समझता था जबकि एक्वीनास राजतन्त्र को विभिन्न कारणों से लोकतन्त्र की तुलना में श्रेष्ठ शासन प्रणाली समझता है। ये कारण इस प्रकार है- पहला, जिस प्रकार विश्व पर एक ईश्वर का शरीर पर हृदय का और मधुमक्खियों पर रानी मधुमक्खी का शासन होता है, उसी तरह मनुष्य समाज पर भी एक व्यक्ति का शासन उचित होता। है। दूसरा, लोककल्याण की दृष्टि से भी यह आवश्यक है कि समाज में एकता और शान्ति बनी रहे। यह राजतन्त्र में ही सम्भव है। तीसरा, व्यावहारिक दृष्टि से भी यह सिद्ध होता है कि प्रजातन्त्र प्रणाली फूट और झगड़ों को जन्म देने वाली है जबकि राजतन्त्र में एकता और शान्ति बनी रहती है। अत: इन विभिन्न कारणों से उसके मतानुसार राजतन्त्र ही प्रजातन्त्र से श्रेष्ठ है। राजतन्त्र में भी यह निर्वाचित राजतन्त्र को आदर्श मानता है। राजतन्त्र का समर्थक होते हुए भी वह उसके दोषों के प्रति जागरूक था। राजतन्त्र का

सबसे बड़ा दोष यह है कि यह निरंकुशतन्त्र में परिवर्तित हो जाता है। यद्यपि उसके अनुसार प्रजातन्त्र की तुलना में राजतन्त्र के निरंकुशतन्त्र में परिवर्तित होने के अवसर कम हैं। अत्याचारी शासकों को नियन्त्रण में रखने के सम्बन्ध में उसके विचार बहुत उदार हैं। यह सेलिसबरी के जॉन के समान उनके वध के पक्ष में नहीं है क्योंकि उसका कथन है कि प्रायः ऐसा कार्य सज्जन नहीं, दुर्जन व्यक्ति ही किया करते हैं, दुर्जनों को अत्याचारी शासकों के शासन की अपेक्षा उत्तम राजाओं का शासन बुरा प्रतीत होता है। अत: अगर निरंकुश शासकों के वध का अधिकार स्वीकार कर लिया जाय हो इस बात की पूरी सम्भावना है कि निरंकुश शासकों के स्थान का ही वध अधिक होगा। फलस्वरूप अराजकता उत्पन्न होने और अव्यवस्था फैलने के अवसर बढ़ जायेंगे।

अतः राजा की निरंकुशता को नियन्त्रित करने हेतु वह राजा के लिए ईश्वरीय नियम के पालन का प्रावधान करता है और उसे परामर्श देता है कि उसे सदा उसका अनुशीलन करना चाहिए तथा उसे ईश्वर की आज्ञा मानकर उसके अनुसार कार्य करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, राजा द्वारा धर्माचरण निरंकुशता की औषधि है।

राज्य के कार्य

सन्त एक्वीनास ने यूनानी, रोमन तथा ईसाई धर्म के विचारों का समन्वय करते हुए राज्य के कार्यों को निर्धारित किया है। उसके अनुसार राज्य के निम्नलिखित मुख्य कार्य है

(1) राज्य का मुख्य कार्य जनता के लिए उत्तम जीवन व्यतीत करने के लिए आवश्यक परिस्थितियों को उत्पन्न करना तथा राज्य में एकता और शान्ति को बनाये रखना है तथा उसकी बाह्य शत्रुओं से रक्षा करना है। साथ ही उसे कानून का पालने करने वालों को पुरस्कार तथा उल्लंघन करने वालों को दण्ड देकर नियन्त्रण में रखना चाहिए।

(2) आवागमन के मार्गों को सुरक्षित बनाना और उन्हें उपद्रवियों से मुक्त रखना भी राज्य का दायित्व है।

(3) मुद्रा-पद्धति का प्रचलन और नाप-तौल की विशेष प्रणाली को स्थापित करना।

(4) दरिद्रों के भरण-पोषण के उत्तरदायित्व को स्वीकार करना आदि कार्य एक्वीनास के अनुसार राज्य के कार्य-क्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं।

एक्वीनास द्वारा सुशाये गये राज्य के इन कार्यों का अवलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि यह सुव्यवस्थित राजनीतिक जीवन को सुखी मानव जीवन के लिए अनिवार्य मानता था।

राजसत्ता और धर्मसत्ता में सम्बन्ध

इस सम्बन्ध में अपने विचारों को प्रतिपादित करते हुए एक्वीनास का कथन है कि मनुष्य जीवन के दो लक्षण हैं- सांसारिक सुख की प्राप्ति तथा आत्म सुख की प्राप्ति। दोनों की प्राप्ति के लिए दो तरह की सत्ताओं की स्थापना की गयी है। इनमें से पहली सत्ता राज्य की और दूसरी सत्ता चर्च की है। उसका आगे कहना है कि मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य मुक्ति प्राप्त करना है। मोक्ष के लिए आत्म शुद्धि का होना आवश्यक है, जो चर्च के माध्यम से ही सम्भव है अतः राज्य, जो कि भौतिक उद्देश्य की प्राप्ति का एक साध न है, मुक्ति प्राप्ति करने वाले साधन अर्थात् चर्च की तुलना में निम्न स्तर का है। इसलिए राज्य को चर्च के नियन्त्रण में रहकर उसके निर्देशों के अनुसार कार्य करना चाहिए।

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इस प्रकार एक्वीनास ने राज्य के मुकाबले में चर्च की सर्वोच्चता का समर्थन किया किन्तु इस ढंग से नहीं कि दोनों में संघर्ष हो जाये। उसका कथन था कि भौतिक लक्ष्यों को प्राप्त करने वाली शक्ति की तुलना में आत्मिक उद्देश्यों को प्राप्त करने वाली शक्ति होने के कारण राज्य की तुलना में चर्च श्रेष्ठ है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि दोनों को आपस में लड़ना चाहिए बल्कि इन दोनों का अपना महत्व है और इसलिए दोनों का परस्पर सहयोग कर एक-दूसरे के पूरक के रूप में कार्य करना चाहिए। एक्वीनास के लिए चर्च सामाजिक संगठन का मुकुट है, वह लौकिक संगठन का प्रतिद्वन्द्वी नहीं है वरन् उसकी पूर्णता का प्रतीक है। इस प्रकार दोनों शक्तियों में एक्वीनास ने सहयोग स्थापित करने का प्रयत्न किया लेकिन आत्मिक उद्देश्यों की पूर्ति का साधन होने की वजह से उसने अन्ततः चर्च की सर्वोच्च शक्ति का समर्थन करते हुए यह कहा कि अगर कोई राजा धार्मिक-सत्ता की अवलेहना करता है तो उसे पोप पदच्युत कर सकता है और उसकी प्रजा को उसके प्रति भक्ति की शपथ से मुक्त कर सकता है। इस प्रकार एक्वीनास राज्य-सत्ता के महत्व को स्वीकार करते हुए पोप की सर्वोच्च सत्ता का प्रबल समर्थक है और यह चाहता है कि सभी शासक सांसारिक और पारलौकिक सभी विषयों में पोप के आदर्शों का पालन करे।

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