ईसाई विवाह का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Christian Marriage)— ईसाईयों में विवाह को जीवन के विभिन्न दायित्वों को निभाने की दृष्टि से आवश्यक माना जाता है। जहाँ मुस्लिम विवाह को यौन सन्तुष्टि का ही प्रधान साधन माना जाता है, वहाँ ईसाई विवाह में इसके अतिरिक्त पवित्र दायित्वों की पूर्ति पर विशेष जोर दिया जाता है।
क्रिश्चियन बुलेटिन में ईसाई विवाह को इस प्रकार परिभाषित किया गया है, “विवाह समाज में एक पुरुष तथा स्त्री के बीच एक समझौता है, जो साधारणतः सम्पूर्ण जीवन भर के लिए होता है और इसका उद्देश्य यौन-सम्बन्ध, पारस्परिक सहयोग और परिवार की स्थापना करना है। इस परिभाषा के अनुसार विवाह एक समझौता है, परन्तु साथ ही इसे एक ऐसा समझौ माना गया है जो आजीवन चलता रहता है। यह इस बात से और भी स्पष्ट हो जाता है जब विवाह के अवसर पर पादरी यह शब्द कहता है- “तुम अब पति-पत्नी केवल औपचारिक संविदा से संयुक्त नहीं हुए हो, बल्कि विवाह संस्कार के पवित्र बंधन में बंधे हो।” एक अन्यत्र स्थान पर ईसाई बुलेटिन में यह भी कहा गया है कि- “ईसाई चर्च में यह सदैव विचार रहा है कि सार्वभौमिक विवाह की संस्था का मानव जीवन के लिए ईश्वरीय उद्देश्य में केन्द्रीय स्थान है।” इस प्रकार स्पष्ट है कि ईसाई विवाह में कुछ मात्रा में धार्मिक संस्कार के गुण भी मौजूद हैं। यद्यपि ईसाईयों में वैवाहिक समझौता जीवनपर्यन्त होता है, किन्तु यदि कोई पक्ष इससे असन्तुष्ट हो तो विशेष परिस्थितियों में इसे समाप्त किया जा सकता है।
ईसाई विवाह के उद्देश्य (Objectives of Christian Marriage)-
1.यौन सम्बन्ध
मुरडाक ने विश्व के 250 समाजों में प्रचलित विवाहों का तुलनात्मकअध्ययन किया और पाया कि मानव समाज में विवाह के जो तीन मुख्य उद्देश्य होते हैं उनमें यौन नासम्बन्धी इच्छाओं की तृप्ति भी एक है। निश्चित रूप से विवाह के उद्देश्य के रूप में यौन सम्बन्ध को महत्व देने का प्रमुख कारण यह है कि विवाह सम्बन्ध होने से यौन इच्छाओं की सन्तुष्टि हो म जाने से समाज में व्यभिचार एवं पाप नहीं फैलता तथा समाज की निरन्तरता भी बनी रहती है।
2. पारस्परिक सहयोग
विवाह एक ऐसा बन्धन है जो दो अनजाने स्त्री-पुरुष को प्रत्येक परिस्थिति में एक-दूसरे के साथ रहने के लिए प्रेरित करता है साथ ही यह उन्हें एक-दूसरे के प्रति प्रेम, सद्भाव, त्याग, सहयोग व्यक्त करने का अवसर प्रदान करता है। इस प्रकार दोनों एक-दूसरे के व्यक्तित्व विकास में अपना योगदान देते हैं।
3. परिवार की स्थापना
विवाह वह साधन है जो समाज द्वारा मान्य एक परिवार को बसाता है। सन्तानोत्पत्ति के द्वारा ईसाई लोग ईश्वर की रचनात्मक क्रिया में भाग लेते हैं और बच्चों के पालन-पोषण द्वारा वे ईश्वर की पालक शक्ति में विश्वास करते हैं। चूँकि घर बसाने की इच्छा न केवल मानव में बल्कि पशु-पक्षियों तक में पायी जाती है। उस इच्छा की सन्तुष्टि सामान्यतः विवाह द्वारा सम्भव है। अतः इस ईश्वरेक्षित विधि (विवाह) सभी को स्वीकार करनी चाहिए।
4. पवित्र जीवन का विकास
इसे विवाह के एक उद्देश्य के रूप में स्वीकार किया गया है। विवाह पति-पत्नी को पवित्र जीवन व्यतीत करने हेतु अवसर प्रदान करता है। उत्तर भारत में संयुक्त चर्च के संविधान में बतलाया गया है कि विवाह एक पवित्र व्यवस्था है जो ईश्वर द्वारा स्थापित है और इसलिए यह अपने प्राकृतिक क्रम में पाया जाता है। विवाह सम्बन्ध को ईसा एवं चर्च के अलौकिक सम्बन्धों का प्रतीक माना गया है।
ईसाईयों में विवाह के प्रकार या स्वरूप
ईसाईयों में दो प्रकार के विवाह पाये जाते हैं-
1.धार्मिक विवाह
ऐसे विवाह का निर्धारण सामान्यतः वर-वधू के माता-पिता या परिवारीजनों द्वारा होता है। ऐसे विवाह गिरजाघरों में सम्पन्न किये जाते हैं।
2. सिविल मैरिज
इस प्रकार के विवाह में सम्बन्धित पक्षों को भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम 1872 के अन्तर्गत मैरिज रजिस्ट्रार के कार्यालय में जाकर कानूनी कार्यवाही करना आवश्यक है।
ईसाईयों में विवाह पद्धति (Marriage Ritual among Christians)
ईसाईयों में विवाह को जीवन भर का एक अटूट व पवित्र बन्धन माना जाता है। यह एक ऐसा बन्धन होता है जिसमें विवाह विच्छेद के लिए कोई स्थान नहीं रखा गया। विवाह के लिए जीवन साथी का चुनाव जब अन्तिम रूप से कर लिया जाता है और वधू पक्ष, वर पक्ष द्वारा रखे गये विवाह- प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता है तो सगाई या मँगनी संस्कार सम्पन्न किया जाता है। इसके लिए दिन निश्चित कर लिया जाता है। उस निशित दिन दोनों पक्षों के लोग गिरजाघर पहुँच जाते हैं।
वर पक्ष के लोग अपने साथ मिठाई, नारिलय, वस्त्र, अंगूठी तथा रुपये आदि ले जाते हैं। इस अवसर पर वर-वधू पास-पास बैठाये जाते हैं तथा पादरी बाइबिल के कुछ अंशों को पढ़ाता है। यहाँ औपचारिक रूप से वैवाहिक सम्बन्धों की वर-वधू द्वारा स्वीकृति प्राप्त की जाती है। दोनों एक- दूसरे को अंगूठियाँ पहनाते हैं और इस अवसर पर मँगनी की घोषणा कर दी जाती है। इसके बाद मिष्ठान वितरण, जलपान आदि होता है।
मंगनी होने के बाद विवाह होता है। विवाह के लिए वर-वधू दोनों को चर्च की सदस्यता व आचरण की शुद्धता का प्रमाण-पत्र तथा विवाह के लिए एक प्रार्थना विवाह तिथि से तीन सप्ताह पूर्व चर्च के अधिकारी को देना पड़ता है। इस प्रमाण-पत्र में वे अपने परिवार तथा दूसरे पक्ष व उसमें परिवार का संक्षिप्त परिचय देते है जिसमें इस बात का उल्लेख रहता है कि किस स्थान पर विवाह सम्पन्न करने का प्रस्ताव है। चर्च का अधिकारी इस प्रार्थना पत्र की सूचना प्रकाशित करता है। सूचना प्रकाशित होने के 96 घंटे के बाद ही विवाह सम्पन्न हो सकता है। इस दौरान यदि विवाह का विरोध नहीं होता है तो वह अधिकारी विवाह करने के लिए एक प्रमाण-पत्र देता है तभी विवाह सम्पन्न हो सकता है। विवाह चर्च में सम्पन्न होते हैं। यदि विवाह के प्रार्थना-पत्र के प्रकाशित होने से तीन महीने के अन्दर विवाह सम्पन्न नहीं हो जाता है तो पुनः प्रार्थना-पत्र देना पड़ता है।
भारतीय समाज के दार्शनिक आधार की विवेचना कीजिए।
विवाह के लिए निश्चित की गयी तिथि को वर और वधू पक्ष वाले गिरिजाघर पहुँच जाते हैं। वर पक्ष के लोग दायीं ओर और वधू पक्ष के लोग बायीं ओर बैठ जाते हैं। वधू के गिरजाघर में पहुंचने पर उसके स्वागत में चर्च का घण्टा बजता है, सभी उपस्थित लोग खड़े हो जाते हैं और गीत गाये जाते हैं। उसके बाद पादरी वर-वधू को यह घोषित करने को कहता है कि उनके विवाह में किसी भी प्रकार की बाधा नहीं है। फिर दोनों के द्वारा यह प्रतिशा की जाती है कि वे आजीवन एक दूसरे के साथ पवित्र बन्धन में ही बचे रहेंगे, सुख-दुःख में एक दूसरे का सदैव साथ देंगे। पादरी सर्वप्रथम वर से पूछता है कि क्या तुम्हें यह लड़की पत्नी के रूप में स्वीकार है? जब वह इसकी स्वीकृति दे देता है तो पादरी फिर से उससे कहता है कि क्या तुम पवित्र वैवाहिक जीवन बिताने का प्रत्येक परिस्थिति में पत्नी का साथ देने का, उसके प्रति वफादारी से रहने का मृत्युपर्यन्त उसका साथ नहीं छोड़ने का वचन देते हो? इस सम्बन्ध में घर की स्वीकृति प्राप्त हो जाने पर पादरी लड़की से भी ये प्रश्न पूछता है और उसकी भी स्वीकृति प्राप्त की जाती है। फिर वर और वधू अपनी अंगूठी बदल लेते हैं। तत्पमात् पावरी घोषित करता है कि ये दोनों पति- पत्नी हो गये हैं। वह तीन बार आमीन कहता है और इसके साथ ही विवाह सम्पन्न मान लिया जाता है। इस अवसर पर पादरी वर-वधू को आशीर्वाद देता है।
कुछ ईसाई परिवार इस प्रकार का धार्मिक विवाह न करके सिविल मैरिज करते हैं। जिसमें विवाह का धार्मिक स्वरूप बिल्कुल नष्ट हो जाता है। यह आदलती तौर पर एक मामूली समझौता मात्र होता है। पर इसके लिए भी विवाह करने वाले पक्षों को रजिस्ट्रार के सामने ना पत्र प्रस्तुत करना पड़ता है। ऐसे पति-पत्नी केवल आशीर्वाद लेने के लिए वर्ष चले जाते हैं। सिविल मैरिज के सम्बन्ध में 1872 के भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम के अन्तर्गत भारतीय ईसाईयों को कुछ विशेष सुविधायें दान की गयी हैं। पर विवाह के समय लड़के व लड़की की आयु क्रमशः 16 और 13 वर्ष से कम नहीं होनी चाहिए। विवाह के समय किसी पक्ष का दूसरा जीवन साथी जीवित नहीं होना चाहिए। यदि लड़के-लड़की की उम्र कम है तो अभिभावक की सम्मति होना आवश्यक है। दो गवाहों के सामने एवं पादरी या मैरीज रजिस्ट्रार के सामने एक दूसरे को पति-पत्नी के रूप में ग्रहण करने की शपथ लेनी पड़ती है।