द्वितीयक समूह- चार्ल्स कूले ने प्राथमिक समूह की अवधारणा का उल्लेख किया है, न कि द्वितीयक समूह की इतना अवश्य है कि प्राथमिक समूह की अवधारणा का विकास हो। सका है। जार्ज सी० होमन्स तथा किंग्सले डेविस आदि विद्वानों ने द्वितीयक समूह पर प्रकाश डाला है। डेविस ने द्वितीयक समूह के सम्बन्ध में लिखा है कि “द्वितीयक समूह को स्थूल रूप से सभी प्राथमिक समूहों के विपरीत रहकर परिभाषित किया जा सकता है।” बीरस्टीड ने बताया है, कि “वे सभी समूह द्वितीयक है जो प्राथमिक नहीं है।” इन दोनों परिभाषाओं से स्पष्ट है कि प्राथमिक समूह में पायी जाने वाली विशेषताओं के विपरीत प्रकार की विशेषताओं को व्यक्त करने वाले समूह ही द्वितीयक समूह है। ऑगवर्न एवं निमकॉफ ने लिखा है “द्वितीयक समूह उन्हें कहते हैं जिनमें प्राप्त अनुभवों में घनिष्ठता का अभाव होता है। आकस्मिक सम्पर्क ही द्वितीयक समूह का सारतत्व है।” लुण्डबर्ग उन समूहों को द्वितीयक समूह मानते हैं जिनमें सदस्यों के सम्बन्ध अवैयक्तिक हितप्रधान एवं व्यक्तिगत योग्यता पर आधारित होते हैं।” कूने के अनुसार “द्वितीयक समूह वे समूह हैं जिनमें धनिष्ठता का अभाव होता है और सामान्यतया उन विशेशताओं का भी अभाव होता है जो कि अधिकांशत: प्राथमिक समूहों में पायी जाती है।” फेयरचाइल्ड के अनुसार, “समूह का यह रूप जो अपने सामाजिक सम्पर्क और औपचारिक सम्पर्क की मात्रा में प्राथमिक समूह की घनिष्ठता से भिन्न हो द्वितीय समूह कहलाती है।”
उपर्युक्त परिभाषाओं से ज्ञात होता है कि द्वितीयक समूह वे हैं जिनमें सदस्यों के बीच अवैयक्तिक सम्बन्ध पाये जाते हैं।
विद्वानों ने द्वितीयक समूह की विशेषताओं का वर्णन निम्नवत्
- द्वितीयक समूहों का आकार बहुत बड़ा होने के कारण उनकी सदस्य संख्या लाखों में हो सकती है।
- ये समूह कम स्थायी होते हैं क्योंकि एक विशेष स्वार्थ के पूरा हो जाने अथवा न होने की स्थिति में सदस्य इनकी सदस्यता को कभी भी छोड़ सकते हैं।
- सामान्यतः इन समूहों में पारस्परिक सम्बन्ध अप्रत्यक्ष होते हैं तथा इनकी स्थापना में संचार के साधनों जैसे टेलीफोन, रेडियो, प्रेस तथा पत्रों आदि का महत्व होता है।
- इन समूहों का निर्माण जान-बूझकर किया जाता है जिससे व्यक्ति अपने कुछ विशेष हितों को पूरा कर सके।
- द्वितीयक समूह स्वार्थवादिता पर बल देता है।
- इसके सदस्यों में औपचारिक सम्बन्ध पाया जाता है।
- द्वितीयक समूहों में उद्देश्यों का विशेषीकरण पाया जाता है।
द्वितीयक समूह के कार्य / महत्व
(1) विशेषीकरण को प्रोत्साहन जैसे
जैसे समाज और उसकी संस्कृति व सभ्यता का विकास होता है वैसे-वैसे ही सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उत्तरोत्तर श्रम विभाजन होता जाता है और नित्य नये तरीके से कार्य किया जाता है जिसके कारण प्रत्येक व्यक्ति को यह अवसर मिलता है कि यह अपने को किसी एक विशेष कार्य में योग्य और कुशल बना ले। ये द्वितीयक समूह ही है जो व्यक्ति को एक कुशल डॉक्टर, इंजीनियर, प्रबन्धक, प्रोफेसर एवं एकाउण्टेण्ट बना देते हैं।
(2) सामाजिक परिवर्तन द्वारा प्रगति
वैसे तो प्रत्येक समाज परिवर्तनशील होता है, उसमें सदैव हो कुछ न कुछ परिवर्तन होते रहते हैं किन्तु इन परिवर्तनों की गति घटती बढ़ती रहती है। आधुनिक युग में सामाजिक परिवर्तनों की गति इतनी तो है कि निरन्तर बदलती हुई सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों के साथ अनुकूल करने में प्राथमिक समूह सहायक नहीं हो सकते। केवल द्वितीयक समूह ही ऐसे हैं जिनमें आवश्यकतानुसार शीघ्र परिवर्तन किया जा सकता है। प्राथमिक समूहों के सम्बन्ध भावात्मक होने के कारण उनमें शीघ्र परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। जबकि द्वितीयक समूहों के सम्बन्ध पूर्ण रूप से गवाह्य होते हैं तथा उनकी स्थापना भी विशिष्ट हितों की पूर्ति के लिए की जाती है। व्यक्ति का उनमें नियमों आदि से कोई आन्तरिक लगाव नहीं होता। अतः परिस्थितियों के बदल जाने पर उनमें बिना किसी संकोच के आसानी से परिवर्तन किया जा सकता है। इस प्रकार अधिक परिवर्तनशील परिस्थितियों के साथ अनुकूलन करने में केवल द्वितीयक समूह ही सहायक हो सकते हैं।
(3) जागरूकता में वृद्धि करते हैं
द्वितीयक समूह परम्परा पर आधारित न होकर विवेक और तर्क पर आधारित होते हैं इसलिए इन समूहों में रहकर व्यक्ति का दृष्टिकोण अधिक तार्किक बन जाता है। आज हम द्वितीयक समूहों में रहकर ही अपने अधिकारों के प्रति इतने अधिक सचेत हो सके हैं अन्यथा प्राथमिक समूहों के सीमित दायरे में रहने से हम कभी भी अपनी कुप्रथाओं की जंजीरों को न तोड़ पाते। इसके अलावा स्त्रियों की वर्तमान उप्रति और श्रमिक वर्ग को प्राप्त होने वाले अधिकार भी द्वितीयक समूह के कारण ही सम्भव हो सके हैं।
(4) द्वितीयक समूह आवश्यकता की पूर्ति में सहायक
औद्योगिक युग में व्यक्ति की आवश्यकता की पूर्ति केवल द्वितीयक समूह में रहकर ही हो सकती है। आज एक व्यक्ति को एक साथ अनेक क्षेत्रों में कार्य करना आवश्यक हो गया है। उदाहरणार्थ, शिक्षा प्राप्त करना, किसी कारखाने या ऑफिस में नौकरी करना, राजनैतिक दलों से सम्बन्ध बनाये रखना, अनेक कल्याणकारी संगठनों में रहकर कार्य करना, राष्ट्रीय हित में रुचि लेना इत्यादि व्यक्ति की प्रमुख हैं। वास्तव में इन सभी आवश्यकताओं की पूर्ति केवल द्वितीयक समूह में ही हो सकती है।
(5) द्वितीयक समूह श्रम को प्रोत्साहित करते हैं
द्वितीयक समूहों में श्रम को सर्वोच्च मानवीय मूल्य के रूप में स्वीकार करके सामाजिक प्रगति में विशेष योगदान दिया है। द्वितीयक समूह व्यक्ति को श्रम का वास्तविक मूल्य देकर उसे अधिक से अधिक कार्य करने की प्रेरणा देते हैं। इससे जहाँ एक ओर व्यक्ति का जीवन कर्मठ बनता है वहीं दूसरी तरफ अपने संचित अनुभवों के कारण जोखिम उठाने की क्षमता भी पैदा हो जाती है।
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(6) सामाजिक नियंत्रण
द्वितीयक समूह व आकार में विस्तृत होते हैं और उनमें विभिन्न वर्ग, जाति, सम्प्रदाय व रुचि के लोग रहते हैं तथा अपने हित अथवा स्वार्थ की अधिकतम पूर्ति के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा करते हैं, इस कारण उनके व्यवहारों को प्रथा, परम्परा, पड़ोस, पंचायत जैसे प्राथमिक साधनों द्वारा नियंत्रण में रखना सम्भव नहीं होता। इसी कारण द्वितीयक समूह में कार्य की प्रकृति भी द्वितीयक होती है, यह कार्य पुलिस, न्यायालय और सेना जैसे अन्य द्वितीयक समूह के द्वारा होता है।